दकियानूसी दंडसंहिता में जमी हैं असहिष्णुता की जड़ें
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत रत्न और नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने गत 12 फरवरी, 2016 को वार्षिक राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान दिया था. वह मानते हैं कि भारतीयों के रूप में, सहिष्णुता तथा बहुलता की अपनी परंपरा के प्रति हमारे गौरवान्वित होने की पर्याप्त वजहें हैं, मगर हमें इसकी रक्षा के लिए कड़ी मेहनत भी करनी होगी. पढ़िए व्याख्यान का मूल पाठ.
मैं एक निजी प्रसंग से शुरुआत करना चाहूंगा. “अमर्त्य कैसा है?” मेरे चाचा शिद्धू (ज्योतिर्मय सेनगुप्त) ने बर्दवान जेल से 22 अगस्त 1934 को लिखे अपने पत्र में तब पूछा, जब मैं एक साल से भी छोटा था. उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा मुझे दिये गये नाम ‘अमर्त्य’ पर आपत्ति करते हुए कहा कि ‘बुढ़ापे ने उनकी बुद्धि पूरी तरह हर ली है,’ जो उन्होंने एक ऐसा नाम रख दिया, जिसका उच्चारण इतने छोटे शिशु के ‘दांत तोड़ देनेवाला’ है.
ज्योतिर्मय ब्रिटिश राज के खात्मे की अपनी कोशिशों की वजह से जेल की सजा काट रहे थे और उन्हें एक जेल से दूसरे जेल में स्थानांतरित किया जाता रहा था – ढाका जेल, अलीपुर सेंट्रल जेल, बर्दवान जेल और मिदनापुर सेंट्रल जेल.
मेरे कई अन्य चाचा तथा चचेरे भाई भी ब्रिटिश भारत की अन्य जेलों में ऐसी ही सजाएं भुगत रहे थे.
ज्योतिर्मय एक दुखद अंत के शिकार बने, जब उन्होंने जेलों में कुपोषण की वजह से उन्हें हुई यक्ष्मा से अपने प्राण त्यागे. एक छोटे बच्चे के रूप में मुझे उनसे बातचीत का सौभाग्य हासिल हुआ और मैं उनके कथन तथा लेखन से अत्यंत प्रेरित महसूस किया करता. वे हम पर ‘हमारे शासकों द्वारा थोपी गयी बेड़ियां’ काट फेंकने में अपने योगदान के लिए कृतसंकल्प थे.
आज के भारत में, जब न ब्रिटिश राज रहा और न ही हम पर हमारे औपनिवेशिक शासकों द्वारा थोपा कोई बंधन शेष है, ज्योतिर्मय कितने खुश हुए होते? मगर, और यह एक बड़ा मगर है, क्या सचमुच हमारे बंधन कट चुके हैं?
अभी भी हमारे जीवन का अहम हिस्सा साम्राज्यशाही शासकों द्वारा निर्मित दंड संहिता से निर्देशित होता है, जिनमें धारा 377 की, जो समलैंगिकता को अपराध घोषित करती है, संभवतः सबसे अधिक चरचा होती है, हालांकि यह खुशी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ इसकी समीक्षा कर रही है. किंतु जो कुछ नजरअंदाज कर दिया जाता है, वह यह है कि किसी धार्मिक समुदाय – जिसे प्रायः बड़े मोटे तौर पर ही परिभाषित किया जाता है – की भावनाओं को पवित्रता की वेदी पर प्रतिष्ठित कर देना भी ब्रिटिश राज की ही एक निशानी है, खासकर दंड संहिता की धारा 295 (अ), जिसे 1927 में लागू किया गया. किसी अन्य व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को, चाहे वे जितनी भी व्यक्तिगत और विचित्र ढंग से नाजुक हों, को आहत करने पर किसी व्यक्ति को जेल की सजा हो सकती है.
इसके विपरीत किये गये दावे के उलट, भारतीय संविधान द्वारा ऐसी कोई भी चीज नहीं थोपी गयी है. तीन मार्च 2014 को दिये गये अपने एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी. ‘सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता तथा नैतिकता’ पर संविधान द्वारा दिया गया जोर उससे बहुत भिन्न है, जिसे तथाकथित नाजुक भावनाओं से निर्देशित राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसक मारपीट के जरिये थोपने की कोशिश की जा रही है. गोपूजा करनेवालों द्वारा किसी की खान-पान संबंधी किसी खास आदत से आहत होने पर भी किसी दूसरे के द्वारा गोमांस खाने अथवा उसे फ्रिज में रखने पर संविधान को कोई आपत्ति नहीं है.
नाजुक भावनाओं के दायरे हैरतभरी हद तक फैलते प्रतीत होते हैं. किसी अन्य व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से कुछ खाने पर आहत भावनाओं की बिना पर हत्याएं तक हुई हैं. ताकतवर समूहों की शाकाहारी भावनाओं की प्राथमिकता के लिए भारत के कई हिस्सों में स्कूलों में दिये जा रहे भोजन को अंडे के पोषण से वंचित रखा जा रहा है.
इसी तरह अंतरराष्ट्रीय विद्वानों द्वारा गंभीर शोधों के आधार पर लिखी गयी पुस्तकों का प्रकाशन उनके प्रकाशकों को यह धमकियां देकर रोक रखा गया है कि वे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत करने के अपराध में कैद किये जा सकते हैं. पत्रकारों को विभिन्न सक्रिय समूहों द्वारा थोपे गये व्यवहारों के उल्लंघन के विरुद्ध प्रायः धमकियां मिला करती हैं या उनके साथ और भी बदतर व्यवहार किये जाते हैं. डराने की कार्रवाइयों के प्रतिकार में भारतीय मीडिया का रिकॉर्ड बेहतर है, मगर अभिव्यक्ति और रिपोर्टिंग की आजादी को और भी ज्यादा सामाजिक समर्थन की दरकार है.
मगर इन सब में एक ‘असहिष्णु भारत’ के सबूत ढूंढ़ना उतनी ही गंभीर गलती है, जितनी किसी खास सामाजिक व्यवहार के लिए लोगों के उत्पीड़न को अपना संवैधानिक अधिकार मानना. मेरे समेत हिंदू की कोटि में रखे जानेवाले अधिकतर हिंदुओं सहित ज्यादातर भारतीयों को विभिन्न समूहों (यहां तक कि खुद हिंदुओं के बीच) की खान-पान संबंधी आदतों की भिन्नता स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होगा. और यदि उन्हें वैसा उचित तथा किफायती लगे, तो वे अपने बच्चों को अंडे के पोषक तत्वों का लाभ देने को तैयार रहते हैं.
पिछले 3,000 वर्षों से भी लंबी अवधि से हिंदू समाज धार्मिक विश्वासों से संबद्ध दलीलों से परिचित तथा उनके प्रति सहिष्णु रहा है (‘तब किसे पता कि यह कहां से पैदा हुआ? … स्वर्ग में जिसकी आंख इस विश्व का संचालन करती है, केवल वही इसे जानता है, अथवा संभवतः वह नहीं जानता,’ ऋग्वेद, मंडल X, छंद 129). किसी छोटे मगर सुसंगठित राजनीतिक समूह की, जो स्वयं निर्दिष्ट तथा प्रचारित व्यवहारों के उल्लंघन पर दूसरों के प्रति आक्रामक हो उठता है, विचित्र दावेदारियों से सभी भारतीयों तथा सामान्यतः, सभी हिंदुओं का संबंध जोड़ना उनका गंभीर अपमान है.
असहमति को चुप कराना और लोगों के मन में भय पैदा करना न केवल व्यक्तिगत आजादी का उल्लंघन करता है, बल्कि यह संवाद-आधारित लोकतांत्रिक समाज का निर्माण भी कठिन बना देता है. समस्या यह नहीं है कि भारतीय असहिष्णु हो गये हैं. इसके उलट, हम असहिष्णुता के प्रति भी हद से ज्यादा सहिष्णु रहे हैं. जब कुछ लोगों – प्रायः किसी अल्पसंख्यक समूह (धर्म या समुदाय अथवा ज्ञान संबंधी) के सदस्यों पर उनके संगठित विरोधियों द्वारा हमले किये जाते हैं, तो उन्हें हमारे समर्थन की जरूरत होती है. अभी यह समुचित रूप से नहीं हो पा रहा है, जिस तरह यह पहले भी संतोषजनक ढंग से नहीं हो सका था.
सच तो यह है कि असहमति तथा गैरदकियानूसी व्यवहारों के प्रति यह असहिष्णुता कोई वर्तमान सरकार के साथ शुरू नहीं हुई है, हालांकि इस सरकार ने पहले से मौजूद प्रतिबंधों में काफी कुछ जोड़ा तो जरूर है. भारत के अग्रणी चित्रकारों में एक, एमएफ हुसैन को एक छोटे संगठित समूह के नेतृत्व में चले लगातार विरोधों की वजह से देश के बाहर कर दिया गया और उन्हें वह मुखर समर्थन नहीं मिल सका, जिसकी उम्मीद वे उचित ही कर सकते थे. कम से कम उस भयानक घटना से भारत सरकार का कोई भी प्रत्यक्ष संबंध नहीं था, हालांकि वह उन्हें सुरक्षा देने को काफी कुछ कर सकती थी, जो उसे करना ही चाहिए था.
किंतु तब सरकार की संलिप्तता कहीं अधिक सीधी थी, जब भारत सलमान रश्दी की ‘सेटनिक वर्सेस’ को प्रतिबंधित करनेवाला पहला देश बन गया.
तो फिर स्वतंत्रता तथा उन्मुक्तता के समर्थक भारतीय नागरिकों के रूप में हमें क्या करना चाहिए? पहली बात तो यह कि हमें भारतीय संविधान को उन चीजों के लिए दोषी ठहराना बंद करना चाहिए, जो उसमें कहीं नहीं लिखी हैं.
दूसरी, उस औपनिवेशिक दंड संहिता को हमारी स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए, जो प्रतिबंधों को चुनौती देने पर पाबंदी लगाती है. तीसरी, हमें उस असहिष्णुता को सहन नहीं करना चाहिए, जो हमारे लोकतंत्र को कमजोर करती है, जो बहुत सारे भारतीयों का जीवन दरिद्र बनाती है और जो प्रताड़ित करनेवालों को दंड के दायरे से बाहर रखने को बढ़ावा देती है. चौथी, अदालतों, खासकर सर्वोच्च न्यायालय के लिए इसकी समग्र समीक्षा करने की पर्याप्त वजह है कि जिस राज के खात्मे के लिए हमने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी, उसी का जारी रहना क्या भारत के लिए एक गंभीर भटकाव नहीं है?
खासकर इसकी न्यायिक समीक्षा की जरूरत है कि किस तरह संगठित उत्पीड़क ‘कुपित न करने’ के एक काल्पनिक हक का इस्तेमाल करते रहे हैं (एक तथाकथित हक, जिसका इस खास रूप में किसी भी दूसरे देश में अस्तित्व नहीं है). पांचवीं, यदि कुछ पंथिक समूहों के प्रभाव में कुछ राज्य स्थानीय रूप से इन पाबंदियों (मसलन, किसी खास खाद्य को प्रतिबंधित करना) को अपने यहां लागू करने के लिए उन्हें विधायी रूप देते हैं, तो अदालतों को निश्चित रूप से इसकी परीक्षा करनी होगी कि बोलने के मौलिक अधिकार तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं के साथ इन विधेयकों का तालमेल है या नहीं.
भारतीयों के रूप में, सहिष्णुता तथा बहुलता की अपनी परंपरा के प्रति हमारे गौरवान्वित होने की पर्याप्त वजहें हैं, मगर हमें इसकी रक्षा के लिए कड़ी मेहनत भी करनी होगी. अदालतों को अपने कर्तव्यपालन की जरूरत है (जैसा वे कर भी रहे हैं, पर और अधिक करने की आवश्यकता है) और हमें अपना करना है (निश्चित रूप से काफी अधिक). चौकसी को एक लंबे वक्त से आजादी की कीमत माना जाता रहा है.
(अमर्त्य सेन अभी हार्वर्ड यूनिवरसिटी में थॉमस डब्ल्यू लैमोंट यूनिवरसिटी प्रोफेसर और प्रोफेसर ऑफ इकोनोमिक्स एंड फिलॉसफी हैं.)
(अनुवाद: विजय नंदन)