विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
सत्तर-अस्सी साल पुरानी घटना है. डाॅ एस राधाकृष्णन तब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति थे. छात्रों से जुड़े किसी मामले में पुलिस विश्वविद्यालय-परिसर में प्रवेश चाहती थी. डाॅ राधाकृष्णन ने पुलिस के आग्रह को अस्वीकार कर दिया- उन्होंने कहा था, यह विश्वविद्यालय का आंतरिक मामला है.
पुलिस नहीं गयी. ऐसे कई उदाहरण हैं. विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता की रक्षा संस्थान स्वयं भी करते रहे हैं और पुलिस भी इस परंपरा का आदर करती रही है. लेकिन, पिछले दिनों देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में जो कुछ हुआ, उससे लगता है कि अब न तो शिक्षण-संस्थानों के कर्त्ता-धर्ता अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति सजग हैं और न ही अब पुलिस (शासन) एक स्वस्थ परंपरा के पालन में विश्वास करती है. जेएनयू छात्र-संघ के अध्यक्ष और उनके सहयोगियों को जिस तरह पुलिस ने हिरासत में लिया, वह कई सवाल खड़े करता है. इन छात्रों पर ‘देशद्रोह’ का आरोप लगाया गया है!
छात्रों पर आरोप है कि इन्होंने संसद पर हमला करनेवाले आतंकवादी अफजल गुरु के समर्थन में नारे लगाये, कश्मीर की आजादी की मांग की, पाकिस्तान जिंदाबाद कहा आदि… देश-विरोधी बातें कहना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है. देश में पाकिस्तान का झंडा फहराना या अपने देश की बरबादी की कस्में खाना निश्चित रूप से अपराध है.
अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए, पर पहले यह तो तय हो कि अपराधी कौन है?
जेएनयू समेत हमारे अनेक शिक्षा-संस्थानों में राजनीतिक दलों के युवा-संगठन सक्रिय हैं. जेएनयू छात्र-संघ में अक्सर वामपंथी विचारधारा के विद्यार्थियों का वर्चस्व रहा है. इस समय वहां भाजपा की छात्र-शाखा एबीवीपी का सिर्फ एक सदस्य छात्र-संघ का पदाधिकारी बन पाया है.
कल यह स्थिति बदल भी सकती है, लेकिन तब तक तो वाम-विचारों वाले छात्रों का वर्चस्व स्वीकारना ही होगा. यही बात कुछ तत्वों को मान्य नहीं लग रही. जेएनयू के भीतर और बाहर जिस तरह एबीवीपी उग्र रूप से सक्रिय हो रहा है, उसका प्रभाव इस वर्तमान विवाद में स्पष्ट दिख रहा है. जिस तरह देश के गृहमंत्री समेत भाजपा नेताओं ने इस विवाद को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ कर राजनीति का मुद्दा बनाया है, उससे जेएनयू में पुलिसिया कार्रवाई पर संदेह होना स्वाभाविक है.
सवाल यह है कि क्या राष्ट्रवाद का ठेका किसी एक विचारधारा को माननेवालों के ही पास है? क्या मां सरस्वती किसी एक राजनीतिक सोच वाले को ही भारत मां की जय का नारा लगाने का अधिकार देती हैं?
जनतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब क्या है? यह सही है कि हमारी संविधान-प्रदत्त यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है, विवेक का पहरा होना चाहिए, लेकिन यदि कोई इसका गलत उपयोग करता है, तब भी उसे राष्ट्रद्रोह की संज्ञा देना कितना उचित है? अफजल गुरु की फांसी की सजा पर उंगली उठाना यदि राष्ट्रद्रोह है, तो नाथूराम गोडसे की पूजा करना किस श्रेणी में आयेगा? राष्ट्रपिता की हत्या को ‘वध’ कहनेवालों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलता?
जेएनयू में राष्ट्र-विरोधी नारे लगाना भी गलत है और छात्र नेताओं को राष्ट्रद्रोही मान लेना भी गलत है. उन्हें सजा देने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह समझाना है कि वे गलत क्यों हैं? वामपंथी विचारों का होना कोई अपराध नहीं है. न वामपंथ राष्ट्रद्रोही बनाता है, और न ही दक्षिणपंथ राष्ट्रभक्ति का तमगा लगाता है. दक्षिणपंथी भी राष्ट्रद्रोही हो सकता है और वामपंथी भी राष्ट्रभक्त.
यह मानसिकता ही गलत है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है. देश को कथित राष्ट्रभक्त और कथित राष्ट्रद्रोही खेमों में बांट कर कुछ लोग इस महान जनतंत्र के ताने-बाने को कमजोर बना रहे हैं. आज इस देश की लोकतांत्रिक परंपराओं और बहुलतावादी मूल्यों का तकाजा है कि असहमति को दुश्मनी माननेवाली मानसिकता की राजनीति से हम स्वयं को उबारें. भाजपा के नेतृत्व को यह समझना होगा कि असहमति को अधिकार का सीधा रिश्ता जनतांत्रिक मूल्यों से है. सिर्फ इसलिए कि कोई मुझसे असहमत है, तो मैं उसे राष्ट्रद्रोही कह दूं, यह मेरी नासमझी भी है और यह बात मेरे मंतव्य पर भी सवालिया निशान लगाती है!
भाजपा को स्वयं से पूछना चाहिए कि देश के अनेक विश्वविद्यालयों के छात्र आज जेएनयू में हुई पुलिसिया कार्रवाई का विरोध क्यों कर रहे हैं? सवाल जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास का है और सवाल है शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता की रक्षा का. आखिर क्यों जेएनयू का वाॅयस चांसलर बीएचयू के राधाकृष्णन की तरह पुलिस से यह नहीं कह सका कि यह हमारा आंतरिक मामला है, हम इसे निपटा लेंगे?