(यह बीबीसी की ख़ास सीरिज़ "हीरो हिंदुस्तानी" #HeroHindustani #UnsungIndians का तीसरा अंक है.)
क्या आप तकलीफ़ में हैं? गुरमीत सिंह पटना स्थित अस्पताल के वॉर्ड में पहुंचते हैं तो यही सवाल पूछते हैं.
नाम मात्र की सुविधाओं वाले इस वार्ड की दीवारें बदरंग हो चुकी हैं और फ़र्श दाग़ धब्बे से भरे हुए हैं.
मरीज़ों के इस्तेमाल आने वाले आधे दर्जन स्ट्रेचर या बेड इधर उधर बिखरे पड़े हुए हैं. पेशाब और बासी खाने की गंध हवा में भरी हुई है.
रात में खाने की तलाश में चूहे भी आ जाते हैं. यहां मौजूद मरीज़ों को रात के खाने में चावल, दाल और फीकी सब्ज़ी दी गई है.
दिन भर में एक बार डॉक्टर और नर्स भी चक्कर लगा लेती हैं. बाक़ी पूरे समय यहां मौजूद मरीज़ अपनी क़िस्मत के भरोसे ही होते हैं.
दरअसल, यह लावारिस मरीज़ों का वार्ड है. यहां उन मरीज़ों का इलाज होता है, जिनका कोई परिवार नहीं है या फिर रिश्तेदारों ने उन्हें छोड़ दिया है.
जो लगो यहां ठीक हो जाते हैं, उन्हें सुधार गृह भेज दिया जाता है या फिर वे सड़कों पर लौट जाते हैं.
कई लोगों के लिए यह वॉर्ड महीनों तक घर भी बना रहता है, क्योंकि सड़कों की गलियां कहीं ज़्यादा मुश्किल भरी जगह हैं.
बहरहाल, आज किसी को बहुत ज़्यादा तकलीफ़ नहीं है.
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एक बेड पर एक युवती लेटी है, जिसके हाथ-पैर ट्रेन हादसे में कट चुके हैं. यह महिला गर्भवती भी है.
नर्स महिला को मंजू के नाम से बुलाती हैं. इनके परिवार, घर, पेट में पल रहे बच्चे के पिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है. कुछ रात पहले नर्सों ने मंजू को सर्द रात में फ़र्श पर रोते हुए पाया था, क्योंकि चूहों ने उन्हें काट लिया था.
लेकिन जब गुरमीत सिंह यहां आते हैं तो इस महिला की आखों में चमक दिखने लगती है, वे मुस्कुराने लगती हैं.
मंजू की बेड के सामने एक औरत का बेड है, जिनके बाल बिखरे हुए हैं. उन्होंने मुड़ी तुड़ी गाउन के ऊपर हरे रंग का मटमैला जैकेट पहना हुआ है.
आज की रात उनके पास ब्रेड का टुकड़ा है, जो सुबह उन्हें अस्पताल की ओर से दिया गया था. उनके साथी बताते हैं कि वह एक दिन बेड से गिर गई थीं.
उसी कमरे में 40 साल के तपन भट्टाचार्य भी हैं. उन्हें यहां जांघ की हड्डी टूटने के बाद लाया गया था. वे जिस ऑटो रिक्शा से सफ़र कर रहे थे, वह पलट गया था.
वे कहते हैं, “आप मेरे लिए एक नौकरी तलाश दीजिए. मेरा कोई नहीं है और कहीं जाने के लिए कोई जगह नहीं है मेरे पास.”
वार्ड के दूसरे रूम में दो मरीज़ हैं, सुधीर राय और फ़रहान. वे अपनी दुनिया में खोए हुए हैं. दोनों ने अपने हाथ में ब्रेड और फल पकड़ा हुआ है. यह खाना उन्हें नाश्ते में मिला था, अब उन्हें अगले भोजन का इंतज़ार है.
क़रीब 15 दिन पहले फ़रहान पटना में एक ट्रेन की चपेट में आ गए थे. उनके हाथ-पांव कट गए.
सुधीर ने हमें यह नहीं बताया कि उनके साथ क्या हुआ था. लेकिन यहां ना तो कोई डॉक्टर मौजूद है और ना ही बेड चार्ट पर नज़र रखने के लिए कोई नर्स. बेड के नीचे ख़ून और पेशाब फैला हुआ है.
लेकिन जैसे ही इस वॉर्ड में गुरमीत सिंह दाख़िल होते हैं, मरीज़ों के चेहरे खिल उठते हैं.
साठ साल के गुरमीत सिंह दिन भर सिटी बाज़ार में मौजूद कपड़ों की अपनी पुश्तैनी दुकान संभालते हैं.
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लेकिन रात होते ही वे 90 साल पुराने और 1760 बेड वाले सरकारी पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पीटल के मरीज़ों के लिए मसीहा बन जाते हैं.
बीते 20 साल से गुरमीत सिंह हर रात लावारिस मरीज़ों को देखने के लिए पहुंचते हैं. वे उनके लिए भोजन और दवाएं लिए आते हैं.
सिंह पिछले 13 साल से कभी पटना से बाहर नहीं निकले, छुट्टियां नहीं लीं. वे इन लावारिसों को उनके हाल पर नहीं छोड़ना चाहते.
गुरमीत अपने पांच भाई के साथ अस्पताल के सामने ही एक बहुमंज़िला इमारत में रहते हैं. सिंह हर रात नौ बजे अपने अपार्टमेंट से बाहर निकलते हैं और अस्पताल की ओर चल देते हैं.
वे अपनी जेब में मरीज़ों की दवाओं के लिए कुछ पैसे रखना नहीं भूलते.
पांचों भाई अपनी मासिक आमदनी का 10 फ़ीसदी हिस्सा इस मदद में जमा करते हैं. इस अस्पताल में इलाज तो मुफ़्त में होता है, लेकिन दवाएं ख़रीदनी पड़ती हैं.
रास्ते में वे मरीज़ों के लिए ब्रेड, सब्ज़ी, सलाद, अंडे और कढ़ी भी ख़रीदते हैं.
जब गुरमीत सिंह वॉर्ड में पहुचते हैं तो मरीज़ों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करते हैं. नर्स और डॉक्टर से बात करने के बाद वे मरीज़ का पर्चा भी देखते हैं. वे कैंसर के मरीज़ों के लिए महंगी दवाओं के लिए भी पैसे देते हैं.
इसके अलावा वे रक्त दान भी करते हैं.
बरहाल, सिह अस्पताल के वॉर्ड में स्टील की प्लेट निकालते हैं और मरीज़ों को खाना निकालते हैं. आज के मेन्यू में गर्म रोटी, सब्ज़ी, कढ़ी और मिठाईयां हैं.
अस्पताल से दिया गया खाना ऐसा होता है कि मरीज़ खा ही नहीं पाते. ऐसे में मरीज़ों के लिए यह दिन का पहला भोजन जैसा ही होता है.
गुरमीत सिंह कहते हैं, “इन लोगों को थोड़ी इज़्ज़त और देखभाल की ज़रूरत है. सरकार ये चीज़ें उनको मुहैया नहीं करा पाई है. बीते 22 साल से मैं यहां आ रहा हूं. इस वॉर्ड में कुछ भी नहीं सुधरा है. कुछ भी नहीं.”
ऐसी स्थिति में यहां डॉक्टर और नर्स कभी-कभी ही आते हैं और इलाज भी नहीं होता है. यह अस्पताल बिहार के सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल देता है.
बिहार के अस्पतालों में जितनी नर्सों की ज़रूरत है, उसकी आधी संख्या में नर्स यहां तैनात हैं.
अस्पतालों में डॉक्टरों के लिए 4,851 पद हैं, पर केवल 2,289 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं.
इन अस्पतालों के सभी बेड हमेशा मरीज़ों से भरे होते हैं, हालत इतनी बुरी है कि कई बार तो मरीज़ों को फ़र्श पर ही लिटा दिया जाता है.
बीस साल पहले प्लास्टिक का थैला बेचने वाली एक महिला अपनी गोद में झुलसे हुए बच्चे को लेकर गुरमीत सिंह की दुकान पर आई थी.
वे उस घटना को याद करते हुए कहते हैं, “उस दिन बहुत गर्मी थी. उनकी आंखों में आंसू था. मैंने उनके बच्चे को देखा, वह झुलसा हुआ था."
वे इसके आगे कहते है, "मैं उन्हें अस्पताल ले गया, लेकिन वहां कोई इलाज करने वाला नहीं था. डॉक्टर हड़ताल पर थे. ग़रीब और लावारिस लोग सबसे ज़्यादा प्रभावित थे. मैं काफ़ी ग़ुस्से में था. मैंने उसी समय इन लोगों के लिए कुछ करने का फ़ैसला लिया.”
गुरमीत सिंह को उनके काम के लिए लोग सम्मानित करना चाहते हैं, उन्हें प्रशंसा की चिट्ठियां भेजी जाती हैं. लेकिन गुरमीत पर्दे के पीछे रहकर काम करना चाहते हैं.
वे इस रात मैली कुचैली कपड़ों में लिपटी एक महिला को भोजन करा रहे हैं. उसे दिन का भोजन नहीं मिला था. वे उसे फिर कंबल में सुलाते हैं.
वॉर्ड में एक आवाज़ आती है, "गुरमीत भगवान की तरह हैं."
लेकिन औसत क़द काठी के गुरमीत चुपके से दरवाज़ा बंद कर बाहर निकल जाते हैं, अगली रात वापस आने के लिए.
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