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नेपाल को गृहयुद्ध से क्या हासिल हुआ

महेश आचार्य बीबीसी संवाददाता, काठमांडू नेपाल में माओवादियों ने 20 साल पहले आज ही के दिन राज्य के ख़िलाफ़ सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था. उन्होंने जिस व्यवस्था के ख़िलाफ़ हथियार उठाए थे आज वे उसी का हिस्सा बन गए हैं. अब भी एक बड़ा सवाल माओवादियों का पीछा करता रहता है कि उस लड़ाई से […]

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नेपाल में माओवादियों ने 20 साल पहले आज ही के दिन राज्य के ख़िलाफ़ सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था.

उन्होंने जिस व्यवस्था के ख़िलाफ़ हथियार उठाए थे आज वे उसी का हिस्सा बन गए हैं. अब भी एक बड़ा सवाल माओवादियों का पीछा करता रहता है कि उस लड़ाई से आख़िर क्या हासिल हुआ.

अब मुख्यधारा में शामिल हो चुके माओवादी छह गुटों में बंट गए हैं. उनके पास सशस्त्र संघर्ष को सही ठहराने के कुछ कारण हैं. हालांकि बहुत से लोग उनसे सहमत नहीं है.

13 फ़रवरी 1996 को युद्ध की औपचारिक शुरुआत से कुछ दिन पहले माओवादियों ने 40 सूत्री मांग रखी जिसमें नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र शाह और उनके परिवार को मिले विशेष अधिकारों को कम करने से लेकर महंगाई पर क़ाबू करने की मांग शामिल थी.

माओवादी मौजूदा व्यवस्था को अपनी लड़ाई की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं. उनका मानना है कि अगर उन्होंने राज्य के ख़िलाफ़ सशस्त्र लड़ाई नहीं लड़ी होती तो राजशाही से नेपाल का गणतंत्र बनना संभव नहीं होता.

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संविधान सभा द्वारा संविधान तैयार करने और धर्मनिरपेक्षता अपनाने की माओवादियों की सबसे प्रमुख मांगों को पूरा कर लिया गया है. माओवादी देश के संघीय ढांचे का श्रेय भी ख़ुद को देते हैं. लेकिन कई लोग उनके इस दावे से सहमत नहीं हैं.

उनका कहना है कि ये बदलाव मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के समर्थन के बिना संभव नहीं थे जिन्होंने 2006 में जन आंदोलन चलाकर देश में ढाई शताब्दी पुराने राजवंश की विदाई, हिंदू राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष बनने और एकाकी मॉडल के बजाय संघीय ढांचे को अपनाए जाने की आधारशिला रखी.

इस विचार के समर्थक तो यहां तक मानते हैं कि नरेश को सारी शक्तियों को अपने हाथ में लेने का दुस्साहस उन्हें महंगा पड़ा. उन पर लोकप्रिय नरेश बीरेंद्र के परिवार की हत्या का आरोप लगा (हालांकि यह आरोप कभी साबित नहीं हुआ) लेकिन उनकी लोकप्रियता बनी हुई थी.

ज्ञानेंद्र शाह ने आंतरिक ताक़तों और नेपाल की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले भारत को छोड़ दिया. यही बात अंततः उनके पतन का कारण बनी.

कई लोग इस बात से सहमत है कि माओवादी आंदोलन ने यथास्थितिवादी माने जाने वाले नेपाली समाज को बुरी तरह झकझोरा और वंचितों, पिछडों और हाशिए पर खड़े लोगों को उनके अधिकारों से परिचित कराया. इनमें से कुछ का मानना है कि सभी निकायों में आनुपातिक प्रतिनिधितत्व का प्रावधान माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष की देन है.

लेकिन जो माओवादियों के हिंसक विचारों से सहमत नहीं हैं, वे आरोप लगाते हैं कि माओवादियों ने अपने लक्ष्य को पाने के देश में हिंसा को एक स्वीकार्य पैमाने के तौर पर स्थापित कर दिया और बाद में भी यह प्रवृत्ति जारी रही.

माओवादी आंदोलन ने जातीय समूहों की परेशानियों को सतह पर तो ला दिया लेकिन राजनीतिक वर्ग इस संवेदनशील मुद्दे को संभाल नहीं पाया जिससे देश के सामाजिक ताने बाने के लिए ख़तरा पैदा हो गया.

नए संविधान को लागू करने के बाद के दिनों में माओवादी जातीय आधार पर राज्य बनाने की अपनी मांग से पीछे हट गए और उन्होंने इसमें नरमी दिखाई जिसने बड़ी राजनीतिक शक्तियां के बीच आम सहमति कायम करने में अहम भूमिका निभाई.

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कई लोग मानते हैं कि माओवादियों को पूर्व में की गई अपनी ग़लतियों का अहसास हो गया है जबकि दूसरों का मानना है कि उन्होंने अपनी उस विचारधारा को त्याग दिया है जिसके ख़ातिर उन्होंने हथियार उठाए थे.

हालांकि संघीय व्यवस्था को लागू करना नेपाल में अब भी दूर की कौ़ड़ी लगती है क्योंकि देश में अशांति का माहौल है और समुदायों के बीच खाइयां अभी से उभरने लगी हैं.

माओवादी दल यूसीपीएन क़रीब आधा दर्जन धड़ों में बंट गया है. ये सभी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं. माना जा रहा है कि नेत्र बिक्रम चंद की अगुवाई वाला उग्र धड़ा एक बार फिर सशस्त्र संघर्ष छेड़ने पर विचार कर रहा है. उसने प्रचंड और दूसरे नेताओं पर लोगों के साथ धोखा करने का आरोप लगाया है.

प्रचंड अपने क़दम को मौजूदा राजनीतिक हालात में व्यावहारिक बता रहे हैं. उनकी पार्टी अब उसी संसदीय निजाम का हिस्सा है जिसे वह गृहयुद्ध के दौरान नेस्तनाबूद करने पर आमादा थी. कभी माओवादी विचारक रहे बाबूराम भट्टाराय ने अब माओवादियों से सारे संबंध तोड़कर नया शक्ति नाम से नई पार्टी बनाई है.

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अब सवाल उठता है कि माओवादियों ने युद्ध क्यों छेड़ा जिसमें हज़ारों लोगों की जान गई. यह ऐसा सवाल है जिसका सामना पार्टी को अंदर और बाहर दोनों जगह करना पड़ता है.

माओवादी नेताओं पर अपने हितों की पूर्ति के लिए निरक्षर और बेरोज़गार युवाओं को बरगलाने का आरोप लगता है जबकि गृहयुद्ध के दौरान उनके अपने बच्चे देश के बोर्डिंग स्कूलों और विदेशों में निजी कॉलेजों में पढ़ रहे थे.

अधिकांश माओवादी नेताओं के पास आज आलीशान जीवनशैली, शानदार बंगले और महंगी कारें हैं, कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे हैं. इससे आलोचकों को उन पर निशाना साधने का मौका मिल गया है और देश को गृहयुद्ध में झोंकने के पीछे उनकी मंशा पर भी सवाल उठ रहे हैं.

लेकिन कइयों का मानना है कि समस्याओं को सुलझाने में सरकार की नाकामी, बेरोज़गारी, सत्ता के लिए दलों के बीच चल रहे संघर्ष ने माओवादी आंदोलन को फूलने फलने का मौका दिया है.

सशस्त्र अभियान शुरू करने से पहले माओवादियों ने जो 40 सूत्री मांग रखी थी उनमें से पहली नौ का संबंध भारत से था. इनमें 1950 की संधि को समाप्त करने, भारत-नेपाल सीमा पर नियंत्रण, भारतीय सेना में गोरखों की भर्ती बंद करने और हिंदी वीडियो और सिनेमा पर प्रतिबंध शामिल था.

एक समय तो माओवादियों ने ‘साम्राज्यवादी’ भारत के ख़िलाफ़ टनल वार भी घोषित किया था.

विडंबना है कि उसी समय एक जाने माने भारतीय प्रोफ़ेसर एसडी मुनि ने एक किताब में यह खुलासा किया कि माओवादियों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय के एक पत्र लिखकर भारत सरकार को यह जताने की कोशिश की थी कि वे भारत के ख़िलाफ़ नहीं हैं.

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2006 में माओवादियों और राजनीतिक दलों ने भारत समर्थित 12 सूत्री समझौते पर सहमति जताई थी जिससे माओवादियों के मुख्यधारा की राजनीति में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ था. इसके बाद भी भारत के साथ माओवादियों के रिश्तों में कई उतार चढ़ाव आए.

आज प्रमुख माओवादी दल में भारत विरोध के स्वर कम हुए हैं और भारत से साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों से दिल्ली में उनका क़द भी बढ़ा है.

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