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बसंत का मौसम बहार का आलम

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार बसंत का मौसम आ गया है. यानी बहार आ गयी है. शायद ही किसी मौसम की रूमानियत के इतने गुण गाये होंगे, जितने बसंत के गाये गये हैं. कम ही सही पर सरसों इस बार भी फूली हैं. हालांकि, मौसम की मार खेतों पर साफ दिख रही है. इसके बावजूद यूपी से […]

नासिरुद्दीन

वरिष्ठ पत्रकार

बसंत का मौसम आ गया है. यानी बहार आ गयी है. शायद ही किसी मौसम की रूमानियत के इतने गुण गाये होंगे, जितने बसंत के गाये गये हैं. कम ही सही पर सरसों इस बार भी फूली हैं.

हालांकि, मौसम की मार खेतों पर साफ दिख रही है. इसके बावजूद यूपी से बिहार और बंगाल तक फैले खेतों के बीच में पीले सरसों के फूल अपने होने का अहसास दिला रहे हैं. रुत के साथ खेतों का रंग भी बदला है.

ट्रेन की खिड़की से दिखते-भागते गांव. हरे के साथ पीला रंग. कभी पीछे नीला आकाश. कभी लंबे-लंबे दरख्त के बीच से झांकती सूरज की किरणों से चमकते खेत. फिल्म की मानिंद एक सीन से निकलता दूसरा सीन. मटमैले, हरे, नीले, पीले रंग की अनेक छवियां आंख के सामने से निकलती जाती हैं. खेत ही बता पा रहे हैं, बसंत का मौसम आ चुका है.

सरसों के खेत से गुजरते हुए, मन में अचानक एक तराने का ध्यान आता है. इसके शायर हफीज जालंधरी हैं. मगर इस गीत को मकबूलियत मल्लिका पुखराज और ताहिरा सईद की रूमानी आवाज ने दी.

लो फिर बसंत आयी / फूलों पे रंग लायी…

बजे जल तरंग/ मन पर उमंग छायी…

धरती के बेल बूटे/ अंदाज-ए-नौ से फूटे.

फूली हुई है सरसों/ भूली हुई है सरसों.

नहीं कुछ भी याद / यूं ही शाद शाद / गोया रहेगी बरसों…

इक नाजनीं ने पहने/ फूलों के जर्द गहने/ है मगर उदास/ नहीं पी के पास… लो फिर बसंत आयी / फूलों पे रंग लायी…

और केदारनाथ अग्रवाल की कविता तो हम में से कइयों ने बचपन में ही पढ़ी होगी. बसंती हवा में कवि के साथ उड़ते हुए, हमें याद हैं न ये लाइनें-

…हंसी जोर से मैं/ हंसी सब दिशाएं/ हंसे लहलहाते/ हरे खेत सारे/ हंसी चमचमाती/ भरी धूप प्यारी/ बसंती हवा में/ हंसी सृष्टि सारी!/ हवा हूं, हवा मैं/ बसंती हवा हूं!…

बसंत यानी उल्लास. मस्ती. रंग-बिरंगे फूल. इन सबमें अलग पीला सरसों का फूल. फूलों पर मंडराते काले भौंरे. आम की बौर. पीली चुनरी. पीले कपड़े. पीली चूड़ी. कपड़ों से हलका बदन. आसमान पर पतंगों का जमघट. मौसम की अंगड़ाई. देवी सरस्वती की पूजा. वगैरह…-वगैरह…

मगर मौसम हाल तो दिन पर दिन बेहाल हो रहा है. सब उलटा-पुलटा. डर है कि कहीं बसंत गायब ही न हो जाये. वैसे भी थोड़ा ही बचा है. यानी हुजूर, जब मौसम ही नहीं रहेगा, तो यह बसंत गुजरे जमाने के गीतों-गानों में ही सिमट जायेगा. बसंत अदब की किताबों से निकल कर इतिहास की किताबों में कैद हो जायेगा. तब हम आहें भरेंगे. आह, वह भी क्या जमाना था, जब बसंत का मौसम आता था.

मौसम कंक्रीट के जंगलों के लिए बने ही नहीं हैं. न ही चारदीवारी में कैद लोगों के लिए मौसम का कोई माने है.

खास तौर पर उन लोगों के लिए मौसम का होना न होना बेमानी है, जो बंद घर से निकल कर, बंद कार में बैठते हैं और बंद दफ्तर में बंद हो जाते हैं. उनके लिए क्या जाड़ा, क्या बसंत… बारहों महीने एक-सा मौसम रहता है.

वैसे क्या हमें पता है कि बसंत पंचमी कब है?

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