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महबूबा की दुविधा, मोदी का संकट

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गंठबंधन कायम रहेगा या नहीं, महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनेंगी या नहीं, इस बारे में फिलहाल कोई भविष्यवाणी करना मुनासिब नहीं होगा. भाजपा तो नहीं, लेकिन महबूबा भारी दुविधा में हैं. एक तरफ मुख्यमंत्री की कुर्सी है, तो दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की अवाम है. उनके दिवंगत पिता मुफ्ती मोहम्मद […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गंठबंधन कायम रहेगा या नहीं, महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनेंगी या नहीं, इस बारे में फिलहाल कोई भविष्यवाणी करना मुनासिब नहीं होगा. भाजपा तो नहीं, लेकिन महबूबा भारी दुविधा में हैं. एक तरफ मुख्यमंत्री की कुर्सी है, तो दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की अवाम है.
उनके दिवंगत पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद को भी भाजपा के साथ गंठबंधन सरकार बनाने में लगभग दो महीने का वक्त लगा. गहरे असमंजस और आत्ममंथन के बाद उन्होंने सरकार बनाने का फैसला किया. लेकिन, उनका फैसला उनके या उनकी पार्टी के लिए फायदेमंद नहीं रहा. यह बात आईने की तरह साफ है कि कश्मीरी अवाम ने भाजपा से मिल कर सरकार बनाने के उनके फैसले को पसंद नहीं किया. मुफ्ती साहब भी लगभग दस महीने की पीडीपी-भाजपा सरकार में उस तरह स्वतंत्र होकर फैसले नहीं ले सके, जिस तरह वह 2002-2005 के दौर की पीडीपी-कांग्रेस गंठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर लिया करते थे.
अगर सब कुछ सहज होता और कोई बड़ा राजनीतिक पेंच न होता, तो अपने पिता के इंतकाल के कुछ दिनों बाद ही महबूबा मुफ्ती ने नये मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाल लिया होता. क्योंकि दोनों दलों के बीच सरकार चलाने का न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बना हुआ है. लेकिन महबूबा बीते दस महीने में इस तथ्य से वाकिफ हो चुकी थीं कि भाजपा के साथ सरकार बनाना पीडीपी के लिए राजनीतिक तौर पर बहुत महंगा साबित हो रहा है, जबकि भाजपा को फायदे ही फायदे हैं.
जम्मू से लेकर लद्दाख तक वह प्रशासनिक तंत्र के जरिये अपने संगठन के विस्तार में लगी हुई है. कश्मीर घाटी में जिन मतदाताओं ने नेशनल काॅन्फ्रेंस के मुकाबले पीडीपी को समर्थन दिया, उसका बड़ा हिस्सा सरकार बनने के कुछ ही समय बाद पीडीपी से मायूस होता गया. चुनाव हारने के बावजूद नेशनल काॅन्फ्रेंस के खेमे में बुलंदी देखी गयी.
कश्मीर घाटी के राजनीतिक प्रेक्षक यह कहते पाये गये कि मुफ्ती साहब जैसी सरकार चला रहे हैं, उससे नेशनल काॅन्फ्रेंस बहुत बड़ी ताकत बन कर उभरेगी और अगली बार सूबे की सत्ता पर कब्जा कर लेगी. पीडीपी की सीटों का दहाई में पहुंचना भी कठिन होगा. इस तरह के ‘आॅब्जर्वेशंस’ और एहसासात इतने कम समय में आने लगे कि पीडीपी में अंदर ही अंदर बेचैनी थी. इसी दरम्यान मुफ्ती साहब चल बसे. अब महबूबा मुफ्ती की दुविधा यही है, वह सत्ता संभालें या कश्मीरी अवाम का समर्थन. सत्ता का अपना आकर्षण होता है.
शपथग्रहण करती हैं, तो वह पहली बार सरहदी सूबे की मुख्यमंत्री बनेंगी. उनके सियासी-सफर को नया और महत्वपूर्ण मुकाम मिलेगा. लेकिन वह इसके फलितार्थ को भी जानती हैं. भाजपा के साथ सरकार चलाना और कश्मीरी अवाम का समर्थन बनाये रखना, दोनों एक साथ कर पाना नामुमकिन-सा है. ऐसे में यह कम बड़ी दुविधा नहीं कि वह अपने दिवंगत पिता की गलतियों से सबक लें या उन्हीं के रास्ते पर चलें!
महबूबा ने बहुत नजदीक से देखा कि उनके दिवंगत पिता को किस तरह कदम-कदम पर भाजपा के दबाव के चलते अपनी नीतियों पर समझौता करना पड़ा. मुफ्ती साहब ने 2002 से 2005 के बीच कांग्रेस के साथ साझा सरकार का नेतृत्व किया था.
उस वक्त उनकी ‘हिलिंग-टच पाॅलिसी’ का सूबे, खासकर कश्मीर घाटी में भरपूर स्वागत हुआ और उसके चलते वहां का माहौल और बेहतर हुआ. लेकिन, इस बार जब से सरकार बनी, भाजपा ने मुफ्ती को पहले की तरह आजाद होकर फैसले लेने का कभी मौका ही नहीं दिया. ‘हिलिंग-टच’ की बात तो दूर रही, एक मसर्रत आलम की (न्यायिक आदेश पर हुई) रिहाई के मुद्दे पर भाजपा-संघ ने तूफान मचा दिया.
राजनीतिक गोलबंदी और दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया के बड़े हिस्से ने जिस तरह हाय-तोबा मचाया, उससे आलम की रिहाई राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. यह बात साफ हो गयी थी कि मुफ्ती सईद को भाजपा के साथ मिल कर सरकार चलानी है, तो उन्हें अपने उसूलों से समझौता करना होगा. पहले की तरह वह ‘हिलिंग टच’ या विश्वास-बहाली (सीबीएम) की कोई बड़ी पहल नहीं कर सकते हैं.
चुनाव के पहले वाले मुफ्ती और भाजपा समर्थन से सरकार चलानेवाले मुफ्ती की शख्सियत महज कुछ ही महीने के अंदर बदल सी गयी. महबूबा ने यह सब देखा. बाप-बेटी में इस बाबत बातचीत जरूर होती रही होगी, लेकिन घर की बात घर तक ही रही. जो लोग महबूबा के मिजाज से वाकिफ हैं, उन्हें यह अंदाज लगाना कठिन नहीं कि वह अपने पिता की सरकार से शायद ही कभी संतुष्ट रही होंगी.
ऐसे नाजुक दौर में मुफ्ती सईद का 7 जनवरी को दिल्ली के एम्स में इंतकाल हुआ. परिवार के हवाले से खबर आयी कि महबूबा को यह बात नागवार गुजरी कि पीएम मोदी एम्स में भर्ती उनके पिता को देखने तक नहीं आये, जबकि विपक्षी नेता सोनिया गांधी सहित अनेक बड़े नेता उनका हालचाल लेने आते-जाते रहे. सोनिया सहित कई विपक्षी नेता मातमपुर्सी के लिए श्रीनगर तक गये, पर प्रधानमंत्री ने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा.
मुफ्ती मोहम्मद सईद की तरह महबूबा बहुत लचीले किस्म की व्यवहारवादी राजनेता नहीं हैं. इसलिए भाजपा नेतृत्व से सियासी ही नहीं, निजी स्तर पर भी वह कभी बहुत सहज नहीं रहीं और अपने बीमार पिता के इलाज के दौरान उन्होंने जो कुछ दिल्ली में महसूस किया, वह भी भाजपा से उनकी दूरी बढ़ानेवाला साबित हुआ. भाजपा अब उन्हें किसी भी कीमत पर मनाने में जुटी है.
कश्मीर में गंठबंधन टूटता है, तो प्रधानमंत्री मोदी के खाते में एक और नाकामी जुड़ेगी. इसीलिए शीर्ष नेतृत्व से मशवरे के बाद राम माधव फिर श्रीनगर जा रहे हैं, जहां वह महबूबा से निर्णायक बातचीत करेंगे. भाजपा हर हालत में सरकार बनाने को व्याकुल है.
इसके लिए सूबे को आर्थिक सहायता सहित कुछ और ऐलान भी हो सकते हैं. भाजपा-संघ परिवार को लगता है कि गंठबंधन सरकार में कायम रहते हुए वे सियासी स्तर पर जम्मू-कश्मीर में ज्यादा प्रभावी हो सकते हैं. प्रशासन के सहयोग से उनकी राजनीति को कुछ नये क्षेत्रों में फैलने का मौका मिलेगा. लेकिन, महबूबा अब कह रही हैं कि बात सिर्फ आर्थिक सहायता और पैकेज की नहीं, घाटी में विश्वास-बहाली के लिए ठोस कदम उठाने की भी है और यह काम सिर्फ केंद्र के भरोसे ही किया जा सकता है.
उनका इशारा साफ है. सवाल उठता है, क्या संविधान के अनुच्छेद-370 पर रह-रह कर उठनेवाला संघी-शोर थमेगा? क्या आफ्सपा जैसे विवादास्पद कानूनों को नागरिक-इलाकों से हटाने और राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर केंद्र राजी होगा?

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