भारत में आतंकी गुटों की जड़ें लंबे समय से पसरी हुई हैं और देश को अक्सर भयावह हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है. इराक और सीरिया में करीब दो सालों से उभरे इसलामिक स्टेट के भयानक साये ने सुरक्षा से संबंधित हमारी चिंताओं को बहुत बढ़ा दिया है.
इंटरनेट और अतिवादी विचारों के जरिये, युवा इसलामिक स्टेट के चंगुल में फंसते जा रहे हैं. हालांकि, इसलामिक स्टेट के लड़ाकों में करीब दो दर्जन भारतीयों के ही होने की रिपोर्ट है, पर माना जा रहा है कि देश के सैकड़ों युवाओं पर उसके हिंसक और चरमपंथी विचारों का असर है.
सरकार गुमराह युवाओं के साथ नरमी से पेश आकर उन्हें सुधारने की कोशिश के साथ आतंक के प्रचारकों पर लगाम कसने का भी प्रयास कर रही है. लेकिन, इस बाबत समाज को भी गंभीरता से सोचते हुए अनुकूल वातावरण बनाने की दिशा में अग्रसर होने की जरूरत है, ताकि विध्वंसक विचारधाराएं युवाओं को अपने चंगुल में न ले सकें. युवाओं के आतंक के प्रति आकर्षित होने की समस्या के विविध पहलुओं की पड़ताल आज के समय में…
केस 1
पवित्र स्थानों की यात्रा या नौकरी के बहाने गये और…
मुंबई के चार युवा इराक में मई, 2014 में इसलामिक स्टेट में शामिल हुए थे. मुंबई के कल्याण इलाके के निवासी ये चारों युवक इराक में पवित्र स्थानों की यात्रा का बहाना बना कर भारत से गये थे, लेकिन इन्होंने घरवालों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी. बाद में आरिफ के मारे जाने की खबर आयी थी. लेकिन, नवंबर, 2014 में गृह मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से खबर छपी थी कि ये चारों युवक जीवित हैं और उन्होंने अपने परिवार से संपर्क कर वापसी की इच्छा जाहिर की है. खबर के मुताबिक, एक युवक के पिता ने नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी के अधिकारियों से संपर्क कर अपने बेटे को तुर्की से बचाने की गुहार लगायी थी.
माना जाता है कि ऐसे मामले में सरकार के पास विकल्प नहीं के बराबर हैं, पर उसने गुमराह युवाओं के संबंध में नरमी बरतने के संकेत दिये हैं.
आरिफ माजिद (सिविल इंजीनियरिंग का तीसरे वर्ष का छात्र)- यह 24 मई, 2014 को दोपहर 11 से 12 बजे के बीच स्थानीय मसजिद में नमाज पढ़ने के बहाने घर से निकला था. अगले दिन इसके पिता को आरिफ द्वारा लिखी पर्ची मिली, जिसमें उसने इराक में जिहादियों के साथ जुड़ने की बात कही थी. अगस्त, 2014 के आखिरी सप्ताह में इसके साथी शाहीन टांकी ने अपने परिवार को आरिफ के इराक के मोसुल में एक बम धमाके में मारे जाने की खबर दी थी.
फहद शेख : मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर चुका फहद शेख शाम सात से साढ़े आठ के बीच अपनी मां को नयी नौकरी मिलने की बात कह कर घर से निकला था. इसे दो दिन पहले ही बांद्रा में काम मिला था.
अमन टांडेल : यह युवक भी मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष का छात्र था. 24 मई, 2014 को रात नौ से 10 बजे के बीच इसने चाइनिज फूड खाने की बात कह घर छोड़ा था.
शाहीन टांकी : इसने हाईस्कूल में ही पढ़ाई छोड़ दी थी. यह उस दिन बिना किसी को बताये शाम छह बजे घर से निकला था.
केस 2
आजमगढ़ का युवक इंटरनेट के जरिये हुआ गुमराह
पिछले वर्ष अक्तूबर के शुरू में इंटेलिजेंस सूत्रों के हवाले से खबर आयी थी कि सीरिया के राक्का शहर में इसलामिक स्टेट के लिए काम कर रहे आजमगढ़ के एक युवक ने अपने परिवार से संपर्क कर वापस आने की इच्छा जाहिर की है. यह युवक अप्रैल के महीने में तुर्की होते हुए सीरिया पहुंचा था.
बारहवीं कक्षा पास इस युवा का इंटरनेट के जरिये इसलामिक स्टेट से संपर्क हुआ था. सूत्रों के अनुसार संयुक्त अरब अमीरात में 25 सालों से बसे किसी व्यक्ति ने इस युवा को गुमराह किया था, जो कि छोटे व्यवसाय के जरिये जीवन-यापन कर रहा था.
केस 3
दिल्ली के दो छात्र अलकायदा के साथ
दिसंबर, 2015 में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने जानकारी दी थी कि जामिया मिलिया इसलामिया के दो छात्र अलकायदा में शामिल हो गये हैं. स्पेशल सेल को यह जानकारी भारतीय महाद्वीप में सक्रिय अल-कायदा के कथित तीन वरिष्ठ आतंकियों से पूछताछ से मिली है. दो छात्रों में एक रेहान दिल्ली का और दूसरा सरजिल उत्तर प्रदेश के संभल का रहनेवाला है.
केस 4
एक युवती सहित हैदराबाद के 15 युवा आइएस से प्रेरित
सितंबर, 2014 की एक खबर ने पूरे देश को चौंका दिया था. तेलंगाना पुलिस ने पश्चिम बंगाल में हैदराबाद के 15 युवाओं की पहचान की, जो इसलामिक स्टेट में शामिल होने के विचार से प्रेरित थे. पुलिस को इन युवाओं के गायब होने की सूचना उनके अभिभावकों से मिली थी.
इनमें से किसी को भी न तो गिरफ्तार किया गया और न ही उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज किया गया. पूछताछ में जेहादी विचारधारा से प्रभावित लोगों में एक लड़की के भी शामिल होने का पता चला. जांच में शामिल एक अधिकारी ने मीडिया को बताया था कि ये युवक इंटरनेट के जरिये एक-दूसरे के संपर्क में आये थे और आपस में जेहाद जैसी अतिवादी गतिविधियों पर चर्चा करते थे.
केस 5
तीन हैदराबादी युवक गिरफ्तार
पिछले वर्ष दिसंबर के आखिरी हफ्ते में महाराष्ट्र के नागपुर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से इसलामिक स्टेट में शामिल होने की मंशा से जा रहे तीन हैदराबादी युवकों को हिरासत में लिया गया था. इन छात्रों की गुमशुदगी की रपट उनके परिवारवालों ने तेलंगाना के विभिन्न थानों में दर्ज करायी थी.
केस 6
हैदराबाद की महिला रिक्रूटर अाफ्शा जबीन
पिछले वर्ष सितंबर में हैदराबाद की निवासी आफ्शा जबीन को संयुक्त अरब अमीरात से प्रत्यार्पित कर भारत लाया गया है. यह सोशल मीडिया के माध्यम से अतिवादी इसलाम के प्रति युवाओं को आकर्षित करती थी और खुद के बारे में ईसाई से मुसलिम बनने की झूठी जानकारी देती थी. वर्ष 2002 में इसने एक हिंदू देवेंद्र बत्रा से शादी की थी, जो बाद में मुसलिम बन गया था. तीन बेटियों की मां आफ्शा के बारे में भारतीय इंटेलिजेंस को 2015 के जनवरी में हैदराबाद में गिरफ्तार युवक सलमान मोहिउद्दीन से मिली थी.
केस 7
पुणे की लड़की को आइएस में शामिल होने से रोका
महाराष्ट्र के एंटी-टेररिज्म स्क्वायड ने दिसंबर, 2015 में जानकारी दी कि पुणे की एक लड़की को उसने इसलामिक स्टेट में शामिल होने से रोक दिया है. कॉन्वेंट से पढ़ी इस लड़की को दसवीं की परीक्षा में 90 फीसदी अंक आये थे और पिछले कुछ समय से वह इंटरनेट पर करीब 200 इसलामिक स्टेट से सहानुभूति रखनेवाले लोगों से संपर्क में थी. स्क्वायड को इसके बारे में जानकारी राजस्थान के जयपुर में गिरफ्तार संदिग्ध आतंकी मोहम्मद सिराजुद्दीन से मिली थी. पूछताछ के दौरान इस लड़की ने बताया कि 2020 तक इसलामिक स्टेट भारत पर हमले की योजना बना रहा है. इसके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है और फिलहाल समझा-बुझा कर परिवार के सुपुर्द कर दिया गया है.
केस 8
सीरिया में चार भारतीय गिरफ्तार
इस हफ्ते भारत यात्रा पर आये सीरिया के उप प्रधानमंत्री वालिद अल मौलेम ने जानकारी दी है कि इसलामिक स्टेट में शामिल होने के इरादे से जॉर्डन के रास्ते सीरिया पहुंचे चार भारतीय युवाओं को दमिश्क में गिरफ्तार किया है.
केस 9
23 भारतीय इसलामिक स्टेट से जुड़े, जिनमें छह की मौत
पिछले साल नवंबर में विभिन्न इंटेलिजेंस रिपोर्टों के आधार पर जानकारी मिली थी कि लड़ाकों के रूप में कुल 23 भारतीय भी इसलामिक स्टेट से जुड़े हुए हैं. इनमें से छह की अलग-अलग घटनाओं में मौत हो चुकी है. रिपोर्टों के मुताबिक, मृत आतंकियों के नाम हैं- आतिफ वसीम मोहम्मद (अदिलाबाद, तेलंगाना), मोहम्मद उमर सुभान (बेंगलुरु, कर्नाटक), मौलाना अब्दुल कादिर सुल्तान अर्मार (भटकल, कर्नाटक), सहीम फारूक टांकी (थाणे, महाराष्ट्र), फैज मसूद (बेंगलुरु, कर्नाटक) और मोहम्मद साजिद उर्फ बड़ा साजिद (आजमगढ़, उत्तर प्रदेश)
आतंक की तरफ जाते बच्चे : दोषी कौन?
कुमार प्रशांत
गांधीवादी चिंतक
अातंकी फौज में अब न देशों का फर्क बचा है अौर न धर्म का, न रंग का अौर न भाषा का. अब इसे इसलामी राज्य का नाम देना खुद को भुलावे में रखना है. अब हमारे-अापके बच्चे भी हैं, जो अातंकी की बंदूक की गोली भी बन रहे हैं अौर उनकी बंदूक के घोड़े पर जिनकी उंगली भी है. इसलिए अब इस खतरे को दूसरी नजर से पहचानने की जरूरत है. कभी आप अपने उस बच्चे की अांखों में झांक कर देखिए, जो अंधेरे भविष्य के सामने खड़ा अापसे अपने भविष्य की तसवीर मांग रहा है. वह अातंकवादी होने की सीमा रेखा पर खड़ा है. उसका हाथ थामिए अौर उसे वहां से वापस ले अाइए. क्या अाप कर सकेंगे? क्या हम सब कर सकेंगे?
सवाल पुराने भले हों, नयी परिस्थितियां उन्हें नया संदर्भ दे देती हैं अौर फिर हमें नयी तरह से उनके जवाब तलाशने पड़ते हैं. पठानकोट में हुई अातंकी वारदात ऐसा ही मामला है. वहां हमारी वायुसेना के अड्डे पर हुए अातंकी हमले के पीछे पाकिस्तान है, यह बात अाईने की तरह साफ है, लेकिन क्या भारत सरकार उसके ऐसे सबूत ला सकती है कि जिससे पाकिस्तान भी यह मान ले कि इसके पीछे उसी का हाथ है? अगर ऐसा होता कि हमारे कहने-बताने से पाकिस्तान इस अातंकी हमले में अपना हाथ कबूल कर लेता, तो क्या यह घटना हो सकती थी? यह घटना हुई ही इसलिए कि पाकिस्तान ईमानदारी के साथ उन अातंकी कार्रवाइयों को मदद कर रहा है, जिनसे भारत में भी अौर दुनिया के दूसरे देशों में भी नागरिक जीवन कठिनतर होता जा रहा है.
संगठित अातंकवाद की शुरुअात
अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल की समाप्ति बेला में, बराक अोबामा ने अभी-अभी अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए जो कहा है, वह भी पाकिस्तान को अातंकवादी गतिविधियों का अभी का भी अौर भविष्य का भी केंद्र बताता है.
लेकिन, पाकिस्तान इन सबसे इनकार करता है अौर ठोस सबूत की मांग करता है. अगर उसकी धरती पर, उसकी व्यवस्था की देख-रेख में रह रहे अोसामा बिन लादेन को उसकी सीमा में घुस कर जिस तरह अमेरिका ने मारा, उसे भी पाकिस्तान ठोस सबूत नहीं मानता है, तो अाप दूसरा क्या अौर कैसा प्रमाण ला सकते हैं? फिर तो यही कहना शेष रह जाता है न, कि अातंकी संगठनों और उनके अाकाअों को अपने देश में यहां-वहां शरण देना, उनकी अनदेखी करना या अपने फायदे में उनका जब-तब इस्तेमाल करना, यहां-वहां उनकी मदद करना अौर उन्हें मजबूत बनाना ही वह अपराध है, जिसका अारोप पाकिस्तान पर चस्पां होता है. पाकिस्तान ऐसे अातंकवादियों के अपने यहां होने से इनकार नहीं कर सकता है, क्योंकि वह अपनी फौज के सहारे ऐसे ही अातंकवादियों अौर उनके संगठनों से लड़ रहा है. जिससे अाप लड़ रहे हैं, वह है ही नहीं, ऐसा तो अाप चाह कर भी नहीं कह सकेंगे न! लेकिन, सवाल इतने से भी खत्म नहीं होता है.
सवाल अगर यह है कि पाकिस्तान अातंकवादियों को प्रश्रय क्यों दे रहा है, तो फिर यह सवाल ही पलट कर अापसे पूछ बैठेगा कि क्या केवल पाकिस्तान ही ऐसा कर रहा है? क्या यह भी उतना ही सच नहीं है कि अल-कायदा या ऐसे ही दूसरे सभी अातंकी संगठनों की जन्मकुंडली अमेरिका समेत दुनिया की तथाकथित महाशक्तियों ने ही लिखी है? इतिहास के पन्ने पलटें, तो हम पाएंगे कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, जब विजयी मित्र राष्ट्रों ने पराजित देशों का मनमाना बंटवारा किया, इजरायल नाम के देश के वे जन्मदाता बने अौर ईसाई मान्यतावाले देशों ने एकजुट होकर, इसलामी मान्यतावाले देशों को हर तरह से नुकसान पहुंचाया, तबसे ही संगठित अातंकवाद की शुरुअात होती है.
अब आतंक का एक नया चेहरा सामने है
छिटपुट अातंकी कार्रवाइयां पहले भी होती थीं, लेकिन उनका आज जैसा संगठित स्वरूप पहले नहीं था. अौर यहां अाकर सवाल एकदम दूसरा ही रूप ले लेता है, जब हम देखते हैं कि अब अातंकी सेना में भर्ती होनेवाले किसी एक मुल्क तक महदूद नहीं रह गये हैं.
अब तो यह एक पेशा बन गया है, जिसमें सभी जाति-धर्म-संप्रदाय-भाषा के युवा शामिल हो रहे हैं. क्या भारत सरकार ने भी पिछले दिनों ऐसे भारतीय युवकों की धर-पकड़ नहीं की कि जो अाइएसअाइएस में शामिल होने जा रहे थे? इनमें लड़कियां भी थीं. जिन देशों पर लगातार ही अातंकी हमले होते रहे हैं, अब बात उनसे अागे चली गयी है. अब सवाल यह नहीं है कि कौन किसके निशाने पर है, बल्कि सवाल यह खड़ा हो गया है कि कौन है कि जो निशाने पर नहीं है अौर कौन है कि जो निशाना नहीं लगा रहा है!
परिस्थिति ने चेहरा एकदम ही बदल लिया है. अब हमला कहीं सीमित नहीं है अौर न यही है कि भारत या अमेरिका ही इनके निशाने पर हैं. अभी हमला पेरिस में हुअा, जर्मनी में हुअा अौर अब तो दुनिया के सबसे बड़े इसलामी देश की राजधानी जकार्ता भी रक्तरंजित पड़ी है.
अातंकी फौज में अब न देशों का फर्क बचा है अौर न धर्म का, न रंग का अौर न भाषा का. अब इसे इसलामी राज्य का नाम देना खुद को भुलावे में रखना है. अब हमारे-अापके बच्चे भी हैं, जो अातंकी की बंदूक की गोली भी बन रहे हैं अौर उनकी बंदूक के घोड़े पर जिनकी उंगली भी है. इसलिए अब इस खतरे को दूसरी नजर से पहचानने की जरूरत है.
बच्चों के लिए एक अंधा दौर
यह दौर, जिसमें हमने एक दिशाहीन विकास को अपना भगवान बना लिया है अौर सभी उसी की एक-सी अाराधना में लगे हैं, हमारे बच्चों के लिए सबसे अंधेरा दौर है. अाज हमारे बच्चे भटकाव की सबसे गहरी मन:स्थिति में हैं. पुराने मूल्य ध्वस्त हो चुके हैं, नये इस तरह गढ़े ही नहीं जा सके हैं कि उन पर जीवन अाधारित किया जा सके. मानक वे बच्चे बन रहे हैं, जिनको कोई कंपनी करोड़ों रुपये सालाना की पगार पर, उनके संस्थानों से ही उठा ले जाती है. उनकी खबरें हमारे अखबारों और टीवी में प्रमुखता से अाती हैं.
कोई यह नहीं बताता है कि ऐसे बच्चे दुनिया के कुल बच्चों के कितने फीसदी हैं. खबर ऐसे बनती है मानो अब प्रतिभाअों के लिए सारा अाकाश खुला है, जबकि सच तो इससे एकदम उलट है कि यह अासमान खुला ही इस वजह से है कि यह बहुत थोड़ों के लिए जगह बना सकता है. यह थोड़ों के लिए जगह बनाता है अौर अधिकांश के लिए सारे दरवाजे बंद कर देता है. यह गहरी निराशा व हीन भावना फैलाता है.
समृद्धि की सीमा क्षितिज के पार जाती है (स्काई इज द लिमिट!)- कभी पूंजीवाद ने यह ककहरा हमें सिखाया था अौर इस सिखावन का नतीजा यह हुअा कि कुछ क्षितिज छू अाये, तो बाकी सारे पाताल में जा धंसे! जो बड़ा मानव-समाज पाताल में जा धंसा, उसका वर्तमान ही नहीं खत्म हुअा, भविष्य भी अष्टावक्र बन गया! जिस समाज का वर्तमान अौर भविष्य दोनों विनष्ट हो चुका है, उसकी मन:स्थिति कैसे बनती है? साहिर लुधियानवी ने काफी पहले इस अाती हुई दुनिया को पहचाना था अौर लिखा था : ‘ये दुनिया जहां अादमी कुछ नहीं है/ वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है… ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है… जला दो, जला दो, जला दो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया/ तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया…’
युवा को जीवन में दो ही चीजों का अदम्य अाकर्षण होता है- उसे वैभव दो या उसे भैरव दो! असीम वैभव- जहां वह सबकुछ उपलब्ध हो, जिसकी इंसान चाह करता है. सबके लिए ऐसा वैभव न पूंजीवाद दे सका न साम्यवाद! सबको ऐसा वैभव देने की क्षमता समस्त प्रकृति में भी नहीं है.
वह तो बांट कर जीने की संस्कृति पर चलती है, जबकि वैभव का दर्शन लूट कर जीने का पाठ पढ़ाता है. तो अाज का हमारा युवा अधिकांशत: पहचान गया है कि तुम उसे उसका अपेक्षित वैभव दे नहीं सकते; अौर भैरव का, साहस का, उमंग का अासमान निरंतर सिकुड़ता जा रहा है. जीने में अब कोई चुनौती बची ही नहीं है.
अब तो लड़ाई में से भी बहादुरी निकल चुकी है. एके 47 का घोड़ा कोई फौजी दबाये कि अातंकवादी, कि कोई किशोर कि कोई बच्चा, अादमी की जान जानी ही है. मौत का गणित एकदम सरल अौर बिना कीमत का हो गया है. ऐसे में निरर्थकता का गहरा अहसास भरता जा रहा है. जब जीवन से अाशा खत्म हो जाती है, तब नकारात्मकता अपना घर बनाती है, जो चीख-चीख कर हाहाकार करती है कि जला दो, जला दो, जला दो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया/ तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया…
…तो दुनिया से जंग खत्म हो जाये!
हमारे बच्चे अातंकवादी बन नहीं रहे हैं, बल्कि हम उन्हें उनकी तरफ धकेलते जा रहे हैं. कहूं तो ये सारे युवा, लड़के भी अौर लड़कियां भी, जो अातंक की फौज बनाते-बढ़ाते जा रहे हैं, वे हमसे बदला ले रहे हैं. हमने उनके जीने के रास्ते बंद कर दिये हैं, तो वे मौत का रास्ता पकड़ रहे हैं. इसलिए अातंकवाद की फौज कम करने अौर कमजोर करने का एक ही रास्ता बचा है कि हम विकास के अपने मानक भी बदलें अौर योजना भी! प्रकृति में उपलब्ध संसाधन सारी मानवता की धरोहर हैं, जिनका समत्वबुद्धि से बंटवारा हो, यह जरूरी है.
यह सिद्धांत स्वीकार किया जाये कि जो सबके लिए संभव नहीं है, वह विकास हमें स्वीकार नहीं है; विकास की कसौटी यह है कि वह इनसान अौर प्रकृति का नुकसान न पहुंचाती हो. अगर हमने इसे ईमानदारी से स्वीकार कर लिया, तो मलाला यूसुफजई को हमें अपना दार्शनिक मान कर चलना सीखना होगा, जो कहती है कि सबको स्कूल अौर घर मिले, तो दुनिया से जंग खत्म हो जाये! घर अौर स्कूल मिले सबको अौर दुनिया में जंग न हो, तो कोई अातंकवादी बनेगा क्यों अौर कैसे?
कभी अपने उस बच्चे की अांखों में झांक कर देखिए, जो अंधेरे भविष्य के सामने खड़ा अापसे अपने भविष्य की तस्वीर मांग रहा है. वह अातंकवादी होने की सीमा रेखा पर खड़ा है. उसका हाथ थामिए अौर उसे वहां से वापस ले अाइए. क्या अाप कर सकेंगे? क्या हम सब कर सकेंगे?
300 से अधिक युवक हुए गुमराह!
नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी की 2014 की एक रिपोर्ट के हवाले से खबरें छपी थीं कि पाकिस्तान-स्थित तहरीके-तालिबान ने 300 से अधिक भारतीय युवाओं को इसलामिक स्टेट में भर्ती के लिए तैयार किया है. अनेक जानकारों ने इस सूचना को संदेहास्पद नजर से देखा है, लेकिन वे भी मानते हैं कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में आतंकी गुटों की पहुंच मजबूत हो रही है और वे युवाओं को जेहाद के लिए बरगलाने में सक्रिय हैं.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने करीब 10 ऐसे युवकों की पहचान की है, जो इराक में नौकरी के बहाने जाकर इसलामिक स्टेट में शामिल हो गये हैं. इनमें दुबई में पढ़ाई कर रहा केरल का एक छात्र तथा टेक्सास में अध्ययनरत एक हैदराबादी युवक भी शामिल हैं.
आतंकी संगठनों के लिए युवा हैं सबसे आसान टारगेट
मेजर जनरल (रि) जीडी बख्शी
रक्षा मामलों के जानकार
आतंकवाद से दुनिया के ज्यादातर देश परेशान हैं. कई देशों में आतंकवादी संगठन सक्रिय तौर पर काम कर रहे हैं और इन्हें परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर सरकार या सरकारी संगठनों का समर्थन हासिल है.
लेकिन, आइएसआइएस ऐसा पहला आतंकी संगठन है, जिसे एक देश का संसाधन हासिल है. इस संगठन के पास 13 तेल के कुएं हैं और इससे उसे सालाना 3 बिलियन डॉलर की कमाई हो रही है. आइएसआइएस इस पैसे का इस्तेमाल अपने संगठन को मजबूत करने के लिए कर रहा है. पैसे के बल पर यह संगठन इंटरनेट पर अपने वीडियो और प्रचार सामग्री का प्रसार कर रहा है. इसमें बम बनाने से लेकर युवाओं को जेहाद के लिए प्रेरित करने की सामग्री है. आसानी से उपलब्ध इन सामग्रियों से युवा मानस पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है.
कोई भी संगठन युवाओं के सहयोग से बिना आगे नहीं बढ़ सकता है. ऐसे में आतंकी संगठन की पहली कोशिश होती है कि युवाओं को इससे जोड़ा जाये. इसके लिए आतंकी संगठन युवाओं को लुभाने के लिए धर्म के नाम पर ऐसी सामग्री पेश करते हैं, जिससे वे इससे आसानी से प्रभावित हो सके. कम उम्र के लड़के इसे देख कर गुमराह हो रहे हैं. खास बात है कि खाड़ी के देशों में बहुत से भारतीय काम के लिए जाते हैं और इनमें युवाओं की संख्या भी होती है.
वहां ऐसे युवाओं को अपने मकसद के लिए प्रोत्साहित करने के अलावा कइयों को ब्लैकमेल कर जेहाद में शामिल होने के लिए उकसाया जाता है. इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए परिवार को अपने बच्चों पर चौकस निगाह रखनी चाहिए और इन्हें ऐसे संगठनों के गलत प्रचार के बारे में आगाह करना चाहिए. क्योंकि, आतंकवाद ऐसा दलदल है, जिसमें एक बार फंसने पर बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है. इसलिए परिवार के सदस्यों को समय रहते अपने बच्चों को खबरदार कर देना चाहिए.
आतंकी संगठनों के लिए युवा सबसे आसान टारगेट हैं, क्योंकि इनके दिमाग पर अासानी से गलत बातों का प्रभाव डाला जा सकता है. ऐसे युवाओं के दिमाग को आतंकी संगठन अपने मंसूबे पूरा करने के लिए उपयोग में ला रहे हैं. ऐसे हालात में मुसलिम समुदाय के वरिष्ठ लोगों को आतंकियों द्वारा धर्म के नाम पर गलत कामों के लिए युवाओं को आकर्षित करने के एजेंडे को विफल करने के लिए सामने आकर सही बातों को पेश करना होगा.
समाज के मध्यमार्गी सोच रखनेवाले मुसलिमों को इसलाम के बारे में युवाओं को सही जानकारी देनी होगी. सरकार को भी कोशिश करनी होगी कि इंटरनेट पर गलत सामग्री के प्रचार-प्रसार पर अधिक निगरानी कराये. साथ ही, कट्टरपंथ के रास्ते पर चलनेवाले युवाओं की काउंसेलिंग हो और उन्हें आतंकी संगठनों के गलत मकसद के बारे में बताया जाये. इसके बावजूद अगर कोई इस रास्ते पर चले, तो सख्त कानूनी कार्रवाई हो, ताकि दूसरे को इससे सबक मिल सके. यह काम व्यापक पैमाने पर शुरू किया जाना चाहिए.
पहले लोग सोचते थे कि गरीबी के कारण युवा आतंकवाद के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, जबकि अब पढ़े-लिखे युवा आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं. इससे साफ जाहिर हो रहा है कि आतंकी संगठन पूरी तरह युवाओं के मन पर अपनी सोच को हावी करने में कामयाब हो रहे हैं.
इसमें तकनीक का बहुत बड़ा योगदान है. यह बेहद खतरनाक स्थिति है. ऐसे में आतंकवाद पर समाज में खुल कर बातचीत होनी चाहिए और लोगों को यह बताना चाहिए कि 21वीं सदी में 7वीं सदी की सोच लागू नहीं हो सकती है.
हालांकि अक्सर देखा जाता है कि जब ऐसी ताकतें प्रभावी हो जाती हैं, तो मध्यमार्गी लोग बोलना बंद कर देते हैं. पंजाब में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तो वहां भी मध्यवर्ग और शांतिप्रिय लोगों ने डर से चुप्पी साध ली थी. लेकिन, जब उनकी आवाज मुखर हुई, तो आतंकवाद की जड़ें कमजोर होने लगीं.
कुछ लोगों के गलत इरादों को जब वर्ग के ज्यादातर लोग स्वीकार करने लगते हैं, तो हालात खराब होने लगते हैं. अब समय आ गया है कि मुसलिम वर्ग का बड़ा और बुद्धिजीवी तबका आतंकवाद के खिलाफ युवाओं को आगाह करे और समाज में ऐसे तबके को प्रोत्साहित करे, जो उदारवादी सोच रखते हैं. यह काम समाज के लोगों को ही करना होगा, क्योंकि बाहरी लोगों का प्रभाव उतना नहीं होता है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)