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मकर संक्रांति के दिन आचार्य श्री ने पढ़ाया दान का पाठ

मकर संक्रांति के दिन आचार्य श्री ने पढ़ाया दान का पाठ सभी जीवों पर दया करें : महाश्रमण जी फोटो संख्या-9,10 कैप्सन-प्रवचन करते आचार्य महाश्रमण जी व उपस्थित श्रद्धालु. प्रतिनिधि, कटिहार शुक्रवार को तेरापंथ के ग्यारहवें आचार्य महाश्रमण जी अपने पांचवें प्रवास के अंतिम दिन शुक्रवार को अपने श्रद्धालुओं को दान का पाठ पढ़ाया. मकर […]

मकर संक्रांति के दिन आचार्य श्री ने पढ़ाया दान का पाठ सभी जीवों पर दया करें : महाश्रमण जी फोटो संख्या-9,10 कैप्सन-प्रवचन करते आचार्य महाश्रमण जी व उपस्थित श्रद्धालु. प्रतिनिधि, कटिहार शुक्रवार को तेरापंथ के ग्यारहवें आचार्य महाश्रमण जी अपने पांचवें प्रवास के अंतिम दिन शुक्रवार को अपने श्रद्धालुओं को दान का पाठ पढ़ाया. मकर संक्रांति के दिन आचार्य श्री ने दान के महत्व को बताते हुए कहा कि दान का आध्यात्मिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व है. उन्होंने कहा कि दान की भीतर सेवा व अनुकंपा की भावना होना नितांत आवश्यक है. दान के दस प्रकार होते हैं और उसमें पहला और सबसे महत्वपूर्ण दान धर्म दान होता है. धर्म दान की व्याख्या करते हुए कहा कि धर्म दान के भी तीन स्वरूप होते हैं. ज्ञान दान, संयति दान और अभय दान. आचार्य श्री ने कहा कि दूसरों को ज्ञान देकर सम्यक बना देना ही ज्ञान दान है. ज्ञान नहीं होने के अभाव में मनुष्य सभी प्रकार से हीन हो जाता है. हीन होने का तात्पर्य है अभाव ग्रस्त होना. ज्ञान एक ऐसी संपदा है, जिसकी तुलना किसी भी वस्तु विशेष से नहीं की जा सकती. इसका भंडार जिसके पास होता है, उसके सामने दुनिया का हर व्यक्ति झुकता है. उसका यथोचित स्वागत-सत्कार करता है. उन्होंने ज्ञान दान के लिए गुरु की महत्ता पर भी प्रकाश डाला. गुरु शब्द के दोनों अक्षरों को विभाजित कर उसकी व्याख्या की. बताया गु का अर्थ अंधकार व ण का अर्थ अंधकार को दूर करने वाला. गुरु अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर कर अपने शिष्य को प्रकाशित जीवन की ओर ले जाने का कार्य करते हैं. इसलिए ज्ञान दान में गुरु की विशेष महत्ता है. कहा कि ज्ञान भी पात्र को मिलना चाहिए अपात्र को नहीं. संयति दान धर्म दान का दूसरा स्वरूप है. इसमें मनुष्य साधु-संतो का यथोचित सत्कार व उनकी सेवा कर इस दान को चरितार्थ करता है. इसमें संतों को साधना के लिए उचित स्थान, उनके लिए भोजन-जल आदि की व्यवस्था व उनकी सेवा उपासना करना, यह सब संयति दान है. अभय दान की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अभय दान महादान है. किसी को भी अभय दान दे देना अर्थात उसे किसी भी परिस्थिति में नहीं मारने का संकल्प लेना ही अभय दान है. उन्होंने श्रद्धालुओं से कहा कि जीवों पर सदा दया की भावना रखनी चाहिए. कहा कि मनुष्य को दयालु होना चाहिए. साथ ही उसे यह संकल्प भी लेना चाहिए कि वह पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या न करें. बताया साधु छह काय के जीवों के कभी नहीं मारते. आदमी को हिंसा से सर्वदा बचना चाहिए. सांप, बिच्छू व चूहे आदि जीवों पर भी दया भाव रखना चाहिए और उन्हें भी अभय दान देना चाहिए. कहा कि अभय दान देकर ही अहिंसा के मार्ग पर चला जा सकता है. वर्तमान समय में सबसे बड़ी आवश्यकता है किसी को अभय दान देने की. इससे मनुष्य के प्रवृत्ति में परिवर्तन आता और वह धर्म के मार्ग पर अग्रसर होता है. मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी ने अज्ञानता को दुख का सबसे बड़ा कारण बताते हुए लोगों को ज्ञानवान होने की प्रेरणा दी. कहा आदमी के अंदर जैसे ही ज्ञान का प्रवेश होता है, उसके सभी दुख दूर हो जाते हैं. उन्होंने दुख और समस्या को अलग-अलग परिभाषित किया. साध्वी प्रमुख कनकप्रभा जी ने विवेक की चेतना जगाने की आवश्यकता जतायी और कहा आदमी को विवेक से काम लेना चाहिए. दैनिक जीवन में विवेक का होना अति आवश्यक है. इसके बिना आदमी का जीवन कष्टमय हो जाता है. उन्होंने पानी संयम, वाणी संयम को जरूरी बताया और वाणी संयम से होने वाले लाभ से श्रद्धालुओं को अवगत कराया. उन्होंने कहा कि आदमी को नियमित स्वाध्याय भी करना चाहिए. इससे वह ज्ञानवान होकर अपने जीवन की दशा-दिशा को परिवर्तित कर सकता है. अंत में पुज्य आचार्य ने कटिहार में अपने प्रवास के समय को सुंदर बताया. यहां के सभी सेवकों की प्रशंसा करते हुए कहा कि यहां प्रवास का समय सुखद व सराहनीय रहा. जिस तरह आपलोगों ने अपनी जागरूकता दिखाई धर्म-कर्म के प्रति वह सभी के लिए अनुकरणीय है. अब आगे आवश्यकता है कि आप सभी विकास रहित जीवन जीयें. नशा व हिंसा का त्याग कर अहिंसा से मुक्त व नशामुक्त जीवन जीयें.

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