पठानकोट में हुए चरमपंथी हमलों ने भारत की सुरक्षा और गुप्तचर तंत्र की ख़ामियां उजागर कर दी हैं.
इसके साथ ही यह भी साफ़ हो गया कि किस तरह दोनों देशों के रिश्ते सरकार के बाहर मौजूद तत्वों की दख़लअंदाज़ी के शिकार हो सकते हैं.
जब कभी दोनों देशों के बीच बातचीत का कार्यक्रम बनता है, कोई न कोई ‘जिहादी’ गुट इसकी राह में रोड़े अटका ही देता है.
साफ़ है, भारत सरकार यह उम्मीद करती है कि उसने पाकिस्तान के विदेश विभाग को जो सूचनाएं दी हैं, उसके आधार पर वहां की सरकार कार्रवाई करे.
पर तुरत-फुरत नतीजे की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में चरमपंथियों का इस्तेमाल करने के पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए यह उम्मीद करना बेमानी है कि पठानकोट मामले की जांच तेज़ी से की जाएगी.
यदि मुंबई हमलों से बात समझी जाए, तो लगता है कि ‘ठोस सबूत’ देने की पाकिस्तानी मांग पठानकोट हमलों की जांच में भी रुकावट डालेगी.
इसके बावजूद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भारत के साथ रिश्ते सुधारने की लगातार कोशिश करते रहे हैं.
वे तल्ख़ी से याद करते हैं कि किस तरह साल 1999 में वाजपेयी के लाहौर दौरे के कुछ हफ़्तों बाद ही जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने करगिल हमला कर दिया था.
शरीफ़ ख़ुद उस समय प्रधानमंत्री थे.
सौभाग्य से पठानकोट हमलों के बाद भारत में वैसा राष्ट्रवादी उन्माद नहीं देखा गया, जैसा इसके पहले की ‘सीमा पार कार्रवाइयों’ के बाद हुआ था.
जवाब में पाकिस्तान पर हमला करने या राजनयिक रिश्ते तोड़ लेने की मांग नहीं की गई.
शायद हमला करने वाले पहले की तरह बिना सोचे-समझे और हड़बड़ी में दिए गए जवाब भारत से नहीं मिलने से निराश हैं.
दूसरी उत्साहजनक बात है पाकिस्तान का ये मानना है कि हमले की योजना वाकई वहीं बनी थी और वहीं से इसे शुरू भी किया गया था.
यह पहले के पाकिस्तानी रवैये के उलट है. पहले होता यह था कि भारत में कहीं भी हमला होने के तुरंत बाद पाकिस्तान इसमें कोई हाथ होने से इनकार करने लगता था.
भारत के सबसे परिपक्व जवाब का कारण शायद नरेंद्र मोदी का हाल का लाहौर दौरा था.
इस पहल पर राजनीति दांव लगाने के बाद मोदी यह नहीं चाहते थे कि ये पहल चरमपंथी हमले की भेंट चढ़ जाए.
संयोगवश, एक कम चर्चित कश्मीरी गुट ने हमले की ज़िम्मेदारी ली.
लेकिन, ऐसा प्रतीत होता है कि इस हमले की योजना काफी पेशेवर ढ़ंग से बनाई गई थी और उसे उसी पेशेवर तरीके से अंजाम भी दिया गया था.
तो सवाल उठता है कि इसके पीछे दरअसल क्या था?
पाकिस्तान में इतनी बड़ी तादाद में जिहादी गुट सक्रिय हैं कि असली हमलावरों का पता लगाना कठिन है.
यह भी सच है कि पाकिस्तानी सेना के कुछ रिटायर्ड और कुछ अब भी काम कर रहे अफ़सर जिहादी तत्वों से सहानुभूति रखते हैं.
वे कश्मीर की समस्या के किसी भी तरह के निपटारे के सख़्त ख़िलाफ़ हैं.
दूसरा सच यह है कि भारत-पाकिस्तान सीमा दुनिया की उन चंद सीमाओं में है, जहां सबसे अधिक सैनिक तैनात हैं.
भारी मात्रा में गोला बारूद और असलहे लेकर इस सीमा को पार करने में सेना का सहयोग किसी न किसी स्तर पर ज़रूर रहा होगा.
इसलिए एक बार फिर उंगली सेना के उन तत्वों की ओर उठनी लाज़मी है जिन्होंने इस काम में संभवत: मदद की होगी.
यदि यह सच है तो भारत के साथ रिश्ते सुधारने की नवाज़ शरीफ़ की कोशिशों को कोई न कोई ज़रूर अंदर ही अंदर पलीता लगा रहा है.
इसका मतलब यह भी है कि पाक सेना के अंदर मौजूद तत्व भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे के नज़दीक आने की कोशिशों में रुकावट डालने पर आमादा हैं.
इन मंसूबों को नाकाम करने के लिए सबसे अच्छा जवाब तो यही हो सकता है कि दोनों देश पहले से तय विदेश मंत्रियों की बैठक में शिरकत करें.
इस कोशिश को आगे बढ़ाने के लिए यह भी ज़रूरी है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ़ पठानकोट हमले में शामिल अपने मातहत अफ़सरों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करें.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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