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सोरेन होंगे मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति शासन!

-हरिवंश- बाबा बैद्यनाथ और बाबा विश्वनाथ (काशी) की पूजा-अर्चना से भी मधु कोड़ा जी अपनी गद्दी बचाते नहीं दिखाई दे रहे. 2005 में हुए चुनावों के बाद, झारखंड में सत्ता परिवर्तन का यह तीसरा चक्र होगा. प्रभात खबर में कुछेक माह पहले छपा था, ‘बड़े बेआबरू होकर…’. यह कोड़ा जी को संबोधित टिप्पणी थी. कोड़ा […]

-हरिवंश-

बाबा बैद्यनाथ और बाबा विश्वनाथ (काशी) की पूजा-अर्चना से भी मधु कोड़ा जी अपनी गद्दी बचाते नहीं दिखाई दे रहे. 2005 में हुए चुनावों के बाद, झारखंड में सत्ता परिवर्तन का यह तीसरा चक्र होगा. प्रभात खबर में कुछेक माह पहले छपा था, ‘बड़े बेआबरू होकर…’. यह कोड़ा जी को संबोधित टिप्पणी थी.

कोड़ा जी को यह बताने की कोशिश कि वह राजनीतिक संकेत समझें. जिस गद्दी पर हैं, उसकी गरिमा और महिमा के लिए भी कोशिश करें. आत्मसम्मान गिरवी रख कर हास्यास्पद न बनें. पर लगता है, कोड़ा जी निर्दलीय रहने का ‘लिम्का रिकार्ड’ बना कर ही संतुष्ट नहीं हैं, वह ‘बड़े बेआबरू होकर’ मुख्यमंत्री की गद्दी से जाने के लिए डटे हैं, कैसे?

पहली चीज! सरकार बनाना गणित का खेल है. और इसी रास्ते निर्दल कोड़ा जी मुख्यमंत्री बन बैठे. यूपीए के छाते में बहुमत जुटा कर. पहला तथ्य यह है कि अब यह बहुमत माननीय कोड़ा जी के साथ नहीं है. झामुमो के 17 विधायक अब उनके साथ नहीं हैं. यह सब टेक्निकल तथ्य हैं कि अभी लिखित रूप से समर्थन वापस नहीं लिया. पर खुले रूप से सार्वजनिक स्टैंड देश को बता दिया है, उन्हें सीएम बनानेवाले समर्थक दलों ने.

कांग्रेस प्रभारी अजय माकन का ऑफिशियल बयान है कि कांग्रेस, शिबू सरकार को समर्थन देगी. यही बात झारखंड से केंद्र में मंत्री बने सुबोधकांत सहाय ने कही है. वह तो यह भी बताना नहीं भूले कि कांग्रेस ने मधु कोड़ा को इस्तीफा देने को कह दिया है. अगर वह इस्तीफा नहीं देते हैं, तो कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी. इस तरह कांग्रेस के भी नौ विधायक, कोड़ा जी के साथ नहीं हैं. 17+9 = 26 विधायक का, कोड़ा सरकार को सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं रहा.

अब बचे राजद के सात विधायक और मुख्यमंत्री समेत नौ निर्दल. यानी ये सब एकजुट हैं, यह मान लिया जाये. (हालांकि बंधु तिर्की छिटक गये हैं), तब भी यह संख्या (7+9=16) है, कुल सोलह? अब 81 विधायकों (एक रिक्त) की विधानसभा में 16 विधायकों के समर्थन से सरकार चलायेंगे कोड़ा जी? सरकार चलाने के लिए न्यूनतम 41 विधायक चाहिए. इस तरह सरकार चलाने का गणित कोड़ा सरकार के खिलाफ चला गया है. क्या यह दृश्य कोड़ा जी नहीं देख रहे?

जब भी किसी राज्य में ऐसा राजनीतिक संकट आता है, बहुमत के संकेत समझ कर खुद मुख्यमंत्री इस्तीफा देते हैं. और अपने उत्तराधिकारी (जिन्हें पार्टियां या गुट मिल कर तय करते हैं) के नाम की घोषणा करते हैं. अब तक यह मान्य परंपरा रही है. पर झारखंड तो रिकार्ड बनानेवाला राज्य है, इसलिए हर मान्य राजनीतिक परंपरा तो यहां भंग होनी ही है.
दूसरा तथ्य, जो कोड़ा जी और उनके समर्थक समझ कर भी मानने को तैयार नहीं. झामुमो ने झारखंड की राजनीति का पेंच पकड़ लिया है. ‘मत चूको चौहान’ की स्थिति है. झामुमो या शिबू सोरेन को लग गया है कि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’. कांग्रेस या राजद के लिए यूपीए की केंद्र सरकार अधिक महत्वपूर्ण है, झारखंड की सरकार नहीं.

दिल्ली में उसे समर्थन दे कर, अब झामुमो, झारखंड की गद्दी की कीमत मांग रहा है. दिखावे के लिए ही सही, पर कांग्रेस या राजद यही कहने को मजबूर हैं, हम गुरुजी को समर्थन देंगे. झामुमो का तर्क है कि यूपीए में सबसे अधिक विधायक हमारे हैं, इसलिए मुख्यमंत्री हमारा होना चाहिए. दिल्ली में कांग्रेस ने इसी लॉजिक पर झामुमो से मदद ली है, तो उसे झारखंड में यही मदद झामुमो को देनी पड़ेगी.

दूसरा पहलू है कि झामुमो अपने स्टैंड पर इतनी दूर जा चुका है कि वह पीछे नहीं लौट सकता. यूपीए के शीर्ष नेताओं को झामुमो बता चुका है कि या तो हमें समर्थन दें या हमारा समर्थन वापस. यूपीए के शीर्ष नेता अब दबाव में हैं. या तो झारखंड में वे यूपीए सरकार लूज करेंगे या गुरुजी को मुख्यमंत्री बनायेंगे. गुरुजी यूपीए का नब्ज पकड़ चुके हैं कि मुख्यमंत्री बनने का इससे बेहतर मौका नहीं मिलनेवाला.

लोकसभा चुनाव भी कुछ ही महीनों में होंगे और फिलहाल भारत की राजनीति क्षेत्रीय दलों के इशारे नाच रही है. इस चुनाव में यूपीए, झामुमो को ही साथ रखना चाहेगा, भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे निर्दलियों को नहीं. इस तरह यूपीए की मजबूरी है कि वह झामुमो को साथ रखे. और यह तथ्य झामुमो समझ रहा है. इसलिए पहली बार झामुमो दबाव की राजनीति में है. एक और महत्वपूर्ण पहलू है.

लोकतंत्र में अंतत: पार्टियों (चाहे वे अच्छी हों या बुरी) की ताकत और पहचान होती है, बिना पेंदी के निर्दलीय की नहीं. और झारखंड में निर्दलीयों ने अपनी पहचान कैसी बनायी है? क्या इसकी पहचान और करनी की पूंजी से यूपीए का बेड़ा लोकसभा चुनावों में किनारे लगेगा? क्या निर्दलीय अपनी यह राजनीतिक कमजोरी नहीं समझ रहे? जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, मजबूरन निर्दलीयों की पूछ यूपीए में घटनी ही है. हवा का यह रुख, झामुमो ने भांप लिया है. इस तरह कह सकते हैं, झामुमो ने सही समय पर सही तरीके से चोट की है. यूपीए बाध्य है, झारखंड में राजनीतिक बदलाव के लिए.

झामुमो का मास्टर स्ट्रोक क्या है? झामुमो समझ रहा है, निर्दलीयों की ताकत और कीमत. एक बार कांग्रेस और राजद ने झामुमो को समर्थन दे दिया, तो निर्दलीयों के पास क्या ‘ऑप्शन’ (विकल्प) है? भाजपा, सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है या वह बनाने की भूल नहीं करना चाहती. वह चुप और तटस्थ है. निर्दलीय, बिना गद्दी रह नहीं सकते, यह उनकी कीमत है. क्या इनके कोई सिद्धांत हैं?

राजनीतिक प्रतिबद्धता है? वसूल है? इसका एक नारा है और एक ही दर्शन गद्दी. मंत्री का पद. तामझाम. रोब रूआब, यह सब छोड़ कर ये सड़क पर पैदल होना चाहेंगे. कतई नहीं. यह कमजोरी झामुमो समझ गया है. एक बार झामुमो की सरकार बनी, तो निर्दल बाध्य हैं, समर्थन के लिए. याद करिए, क्या नाज-नखरे थे स्टीफन मरांडी के, जब कोड़ा सरकार बनी थी. फलां विभाग चाहिए. फलां शर्त्त माननी होगी. अंतत: मधु कोड़ा की शर्त्तों पर मंत्री बने.

बाबूलाल मरांडी को छोड़ दिया. यह देखना रोचक है कि आज उसी शिबू सोरेन के खिलाफ कमान संभाले हुए हैं, स्टीफन. पर शिबू की सरकार बनी, तो यह भी महत्वपूर्ण विभाग पाकर वहां शोभा बढ़ायेंगे? खुद कोड़ा जी? मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौड़ की तरह यह भी शिबू सोरेन सरकार में मंत्री पद पाने के लिए बेचैन होंगे. यह आकलन किस अधार पर? क्योंकि ये लोग किसी दल या विचारधारा से नहीं हैं, इनका एकमात्र दर्शन है, किसी तरह गद्दी पाना या हथियाना.

अगर किसी भी तरह, कहीं कोई व्यवधान पैदा हुआ, तो राष्ट्रपति शासन झारखंड में तय है. एक चर्चा यह भी है कि हजारों बार यह बयान देनेवाले मधु कोड़ा कि ‘शिबू सोरेन के लिए गद्दी छोड़ देंगे’, अब इस बात के लिए डटे हैं कि वे शिबू सोरोन को मुख्यमंत्री नहीं बनने देंगे. किसी भी कीमत पर. कोड़ा जी के इस आत्मविश्वास का राज क्या है? लालू प्रसाद का आशीर्वाद. अब तक कोड़ा जी, लालूजी के ही आशीर्वाद से चल रहे थे.

पर जब समर्थन वापसी का धौंस झामुमो ने दिल्ली में दे दिया है, तो दिल्ली के यूपीए नेता भी दबाव में होंगे. और यूपीए के ये शीर्ष नेता लालू प्रसाद पर भी दबाव डालेंगे कि वे अपना स्टैंड बदलें. कारण सिर्फ झारखंड नहीं है. 22 जुलाई को यूपीए ने लोकसभा में 275 सांसदों का बहुमत हासिल किया. इसमें झामुमो के पांच हैं. अगर ये हट गये, तो यूपीए की संख्या बचेगी 270. लोकसभा में बहुमत की सीमा है, 272. फिर एक नया विवाद, दिल्ली में शुरू होगा. क्या अनेक संकटों से घिरा यूपीए, दिल्ली में कोई नया संकट उधार लेने की स्थिति में है? वह भी झारखंड और कोड़ा जी के लिए?

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