हमारी आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, पर जिसका केंद्र किसी शरीर में है. मृत्यु इस केंद्र का स्थानांतर मात्र है. परमात्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है और जिसका केंद्र सर्वत्र है.
जब हम शरीर के इस समीप केंद्र से बाहर निकलने में समर्थ हो सकेंगे, तभी हम परमात्मा की- अपने वास्तविक स्वरूप की उपलब्धि कर सकेंगे. आत्मा न कभी आती है, न जाती है, यह न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है. प्रकृति ही आत्मा के सम्मुख गतिशील है और इस गति की छाया आत्मा पर पड़ती रहती है.
भ्रमवश आत्मा सोचती रहती है कि प्रकृति नहीं, बल्कि वही गतिशील है. जब तक आत्मा ऐसा सोचती रहती है, तब तक वह एक प्रकार के बंधन में रहती है, किंतु जब उसे यह पता चल जाता है कि वह सर्वव्यापक है, तो वह मुक्ति का अनुभव करती है.
जब तक आत्मा बंधन में रहती है, तब तक उसे जीव कहते हैं. इस तरह तुमने देखा कि समझने की सुविधा के लिए ही हम ऐसा कहते हैं कि आत्मा आती है और जाती है. तो जीवन, अर्थात् आत्मा, ऊंचे या नीचे स्तर पर आता-जाता रहता है. यही सुप्रसिद्ध पुनर्जन्मवाद का नियम है, सृष्टि इसी से बद्ध है.
– स्वामी विवेकानंद