राजेंद्र तिवारी
मुफ्ती मोहम्मद सईद का न रहना मौजूदा कठिन समय में कश्मीर के लिए और देश के लिए भी अपूरणीय क्षति है. वह दिल से हिंदुस्तानी थे और गंगा-जमुनी संस्कृति में यकीन रखते थे. वह इस समय देश के उन गिने-चुने राजनीतिज्ञों में थे, जिनका चुनावी कैरियर नेहरू के समय शुरू हुआ.
वह जीवन भर शेख अब्दुल्ला और उनके परिवार के खिलाफ रहे. 50 के दशक में अपना राजनीतिक कैरियर शुरू करनेवाले मुफ्ती मोहम्मद सईद वर्ष 2002 में पहली बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, जब वहां आतंकवाद चरम था. अपनी राजनीतिक परिपक्वता व प्रतिबद्धता से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद-अलगाववाद की धारा कमजोर करने और सरकार का इकबाल कायम किया.
इसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. हालांकि, कुछ राजनीतिक दलों ने उनको पूरे देश में आतंकी और अलगाववादी समर्थक नेता के तौर पर प्रचारित किया.
यह सही है कि कश्मीर में पहली बार पांच जुलाई, 1990 को मुफ्ती ने आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट लागू किया, लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि जब आतंकवाद चरम पर था, राज्य सरकार व राज्य की संस्थाओं के प्रति कश्मीरियों का पूरा विश्वास लगभग खत्म हो चुका था, ऐसे कठिन समय में मुफ्ती और उनकी राजनीति ने माहौल को बदलना शुरू किया.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ मिल कर उन्होंने सरकार बनायी. उस समय जम्मू-कश्मीर के बाहर यह प्रचारित किया जा रहा था कि वहां (जम्मू-कश्मीर में) तो आतंकियों की सरकार बन गयी है. लेकिन, मैं यहां कुछ वाकये शेयर कर रहा हूं, जिनमें मुफ्ती की एक लीडर के तौर पर अलहदा तसवीर सामने आती है.
मुफ्ती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद सबसे पहला एलान किया कि शहरों व कस्बों में अतिक्रमण के खिलाफ कठोर अभियान चलेगा. जम्मू में लोग डरे हुए थे, क्योंकि उनको लग रहा था कि पहले की सरकारों की तरह कश्मीर में तो कुछ किया नहीं जायेगा, जम्मू संभाग ही सरकार के अतिक्रमण हटाओ अभियान का शिकार बनेगा. कुछ धरने-प्रदर्शन भी शुरू हो गये. लेकिन यह क्या, मुफ्ती ने कहा कि सबसे पहले यह अभियान कश्मीर में चलेगा और फिर जम्मू में.
श्रीनगर से अभियान शुरू हुआ और जिस श्रीनगर में वर्षों से सरकार का कोई हुकुम नहीं चल पा रहा था, उसी श्रीनगर में अतिक्रमित जमीन पर बने मकान व दुकान ढाहे जाने लगे. सबसे पहले बुलडोजर चला श्रीनगर नगर निगम के कमिश्नर के भाई के मकान पर. उसके बाद किसी की चूं करने की हिम्मत तक न हुई. एक संकरी सड़क, जहां हम ऊनी सामान खरीदने जाते थे, का अतिक्रमण हटाया गया, तो डिवाइडरवाली सड़क नीचे से निकली. एक दुकान गिरायी गयी, तो उसमें एक पहाड़ी टीला निकला. वहां के अखबारों ने हेडिंग लगायी : दुकां खा गयी पहाड़ कैसे-कैसे.
इसके बाद मुफ्ती का दूसरा बड़ा कदम हाउसबोट मालिकों से पिछले 15 साल का बिजली बिल का बकाया वसूलने का रहा. डल झील के हाउसबोट बरसों तक आतंकियों के अड्डे रहे थे.
जब सरकार ने आदेश जारी किया कि फलां तारीख तक बिल जमा करो, नहीं तो बिजली कट जायेगी, किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. जब बिजलीवाले कनेक्शन काटने पहुंचे, तो प्रदर्शन शुरू हो गये. प्रदर्शनों में शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी तक शामिल हुए. लग रहा था कि बिजली बिल वसूली संभव नहीं है, इससे माहौल बिगड़ जायेगा. लेकिन, मुफ्ती ने कहा कि बिजली जलायी है, तो पैसा देना होगा. हाउसबोटवाले अब तर्क देने लगे कि सालों से टूरिस्ट बंद हैं, कमाई है नहीं, बिल कैसे भर पायेंगे. यह सब चल रहा था, उसी बीच मैं मुफ्ती साहब से मिला.
बातचीत में कहा कि मुफ्ती साहब, आपके खिलाफ माहौल बन रहा है. मुफ्ती साहब बोले कि कुछ भी हो, मैं यह संदेश देना चाहता हूं कि सरकार ताकतवर है और उसे डराया-धमकाया नहीं जा सकता. बाद में एकमुश्त स्कीम के तहत यह मामला सेटल हुआ. सबने तय दर से बिल भरा और सबके यहां नये मीटर लगे.
एक और वाकया, गर्मी के दिन थे. राजधानी जम्मू से श्रीनगर जा चुकी थी. मैं सड़क मार्ग से श्रीनगर जा रहा था. अनंतनाग से आगे एक छोटे से गांव के पास भीड़ सड़क जाम कर प्रदर्शन कर रही थी. जाम की वजह से गाड़ियों की लंबी कतार लग गयी थी. सोचा कि किसी आतंकवादी की मौत के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा होगा, क्योंकि कश्मीर में यह आम बात थी.
पता किया, जानकारी मिली कि लोग पानी को लेकर मुफ्ती के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. मुझे लगा कि मुफ्ती के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं. एक दिन मुफ्ती से मिलना हुआ, तो उनसे अनंतनागवाले प्रदर्शन की चर्चा की. मुफ्ती साहब बोले, मैं चाहता हूं कि ऐसे प्रदर्शन बढ़ते जायें. मैंने पूछा, क्यों? जवाब मिला, ये प्रदर्शन सरकार के प्रति लोगों के भरोसे का प्रमाण हैं.
लोग यह मानने लगे हैं कि सरकार कुछ कर सकती है और इसलिए वे पानी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. मुफ्ती बोले कि मुझे तो याद पड़ता नहीं कि पिछले 10 साल में आम कश्मीरी ने सरकार से किसी ऐसी मांग को लेकर प्रदर्शन किया हो. प्रदर्शन व बंद सिर्फ आतंकियों के मरने, केंद्र के खिलाफ, अलगाववाद के समर्थन आदि के ही होते रहे हैं.
मेरा मानना है कि पानी के लिए प्रदर्शन जैसी घटनाएं डेमोक्रेसी और डेमोक्रेटिक सरकार में भरोसा वापसी का ही नतीजा हैं. जितने ज्यादा ऐसे प्रदर्शन होंगे, अलगाववाद व आतंकवाद की जगह कम होती जायेगी. हमने पूछा कि डिलीवरी नहीं हुई, तो समस्या बढ़ भी सकती है. मुफ्ती का जवाब था, सरकार फिर किसलिए है?
एक बार ऊधमपुर में एक काॅलेज की स्थापना के कार्यक्रम में मुफ्ती साहब मुख्य अतिथि के तौर पर और तत्कालीन उप मुख्यमंत्री व कांग्रेस नेता पंडित मंगतराम शर्मा अध्यक्ष के तौर थे.
मैं भी उस कार्यक्रम में मंच पर ही था. पंडित मंगतराम शर्मा ने अपने भाषण में मेरे अखबार को अपना अखबार (उस समय मैं जम्मू-कश्मीर में अमर उजाला का संपादकीय प्रभारी था) बताया और तारीफ की. साथ में यह भी कहा कि मुफ्ती साहब भी इस अखबार को अपना अखबार मानते हैं. मुझे लगा कि पंडित जी ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए अखबार को सरकारपरस्त बताया है. मुझे अच्छा नहीं लगा. जब मुझे बोलने का मौका मिला, तो मैंने स्पष्ट कहा कि यह अखबार किसी मुफ्ती साहब या किसी मंगतराम शर्मा का नहीं है.
यह अखबार अपने पाठकों का है. कोई मुगालते में न रहे. बाद में मुफ्ती साहब ने अपने भाषण में मेरी इस बात का जिक्र किया और कहा कि अखबारों को ऐसा ही होना चाहिए. मैं आज सोचता हूं कि मौजूदा समय के कितने मुख्यमंत्री या बड़े राजनेता इस तरह की बात को सहृदयता से ले सकेंगे? शायद कोई नहीं.
मुफ्ती साहब की चर्चा हो और रुबैया कांड की बात न आये, तो चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी. रुबैया कांड को लेकर तमाम तरह की बातें लोगों के बीच हैं. मैंने सितंबर 2002 में पहलगाम में महबूबा मुफ्ती से इस बाबत सवाल पूछा था. महबूबा फूट-फूट कर रोने लगी थीं.
बाद में जब वह संभलीं, तो बताया कि कोई यह नहीं पूछता कि हिंदुस्तान के होम मिनिस्टर की बेटी सिटी बस से काॅलेज क्यों जा रही थी? मुफ्ती साहब ने रुबैया को छुड़वाने के लिए सरकार पर कतई दबाव नहीं डाला था. यह तो उस समय की राजनीति थी, जिसके शिकार मुफ्ती साहब हुए. कहा जाता है कि मुफ्ती साहब का कद न बढ़ने देने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने तमाम तरह के तर्क देकर कैबिनेट में दबाव बनाया था और बाद में वही आइके गुजराल के साथ श्रीनगर रुबैया को छुड़वाने के लिए गये.
मुफ्ती साहब देश के होम मिनिस्टर थे. यदि इस तरह का स्टैंड उनका सामने आता, तो देश में उस समय वीपी सिंह के बाद मुफ्ती सबसे ऊंचे कदवाले नेता बन जाते. लेकिन यह मौका उनको नहीं मिल पाया. हालांकि, इस कांड के कई वर्जन लोगों के बीच हैं. पिछले साल आइएएस दुल्लत की किताब में इस मामले को फारूक अब्दुल्ला के पक्ष में प्रस्तुत किया गया है.
वर्ष 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के दौरान मैंने श्रीनगर में मुफ्ती को लेकर अलगाववादी नेताओं से बात की. मेरा मानना था कि मुफ्ती के जीतने से अलगाववादियों को फायदा होगा.
लेकिन शब्बीर शाह, सैयद अली शाह गिलानी व अब्दुल गनी बट ने मुफ्ती को अपनी तहरीक का दुश्मन ही बताया. इनका कहना था कि कोई आदमी हिंदुस्तान का होम मिनिस्टर ऐसे ही नहीं बन जाता. तनिक भी शक होता, तो मुफ्ती को इंडियन एजेंसियां होम मिनिस्टर न बनने देतीं. इन नेताओं ने कहा कि सबसे मुफीद फारूक अब्दुल्ला ही हैं. मैंने पूछा क्यों, तो सबने अपने-अपने तरीके से एक ही जवाब दिया और वह जवाब था कि फारूक इज इंडियन बाइ एक्सीडेंट, उमर इज इंडियन बाइ कंपल्सन और मुफ्ती इज इंडियन बाइ कनविक्शन.
मुझे मुफ्ती का विशेष स्नेह मिला. पहली मुलाकात वर्ष 2000 के दौरान डोडा के डाक बंगले में रात एक बजे हुई थी. वह वहीं ठहरे थे और इसलिए जगते रहे कि देखें कौन है जो रात एक बजे डोडा जिले में ट्रैवल कर रहा है. इसके बाद तो जम्मू में उनके साथ मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. प्रेस कॉन्फ्रेंस में न पहुंचूं, तो रुके रहते थे कि तिवारी साहब आ जायें.
सीएम बनने से ठीक पहले थोड़ा नाराज हुए, क्योंकि मैंने 16 एमएलएवाली पार्टी को सीएम पद मिलने के खिलाफ लिखा था. जब वह दिल्ली से लौटे, तो श्रीनगर में उनके घर के बाहर मैं तीन घंटे खड़ा रहा, लेकिन मुफ्ती साहब ने संज्ञान ही न लिया. लौट आया अपने होटल ब्राॅडवे. वहीं, कांग्रेस नेता पंडित मंगतराम शर्मा ठहरे हुए थे.
पंडित जी मुझे जबरिया मुफ्ती के यहां ले गये और मुफ्ती से कहा कि आप तिवारी साहब से नाराज क्यों हो? मुफ्ती ने मेरी ओर देखा, मुस्कराये और बोले, मैं कहां नाराज हूं, नाराज तो तिवारी साहब हैं… और नाराजगी खत्म हो गयी. बहुत दिनों से मैं मुफ्ती साहब से मिलने के लिए कश्मीर जाने की सोच रहा था, ताकि तमाम बातों पर उनसे लंबी बात कर सकूं. लेकिन…