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मुंबई से पठानकोट तक के सबक
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार पठानकोट पर हुए हमले के बाद भारत में लगभग वैसी ही नाराजगी है, जैसी 26 नवंबर, 2008 (मुंबई हमला) के बाद पैदा हुई थी. बाद में खबरें मिलीं कि तब भारत सरकार ने लश्कर-ए-तैयबा के मुख्यालय पर हमले की योजना बनायी थी. तब दोनों देशों के बीच किसी प्रकार सहमति बनी […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
पठानकोट पर हुए हमले के बाद भारत में लगभग वैसी ही नाराजगी है, जैसी 26 नवंबर, 2008 (मुंबई हमला) के बाद पैदा हुई थी. बाद में खबरें मिलीं कि तब भारत सरकार ने लश्कर-ए-तैयबा के मुख्यालय पर हमले की योजना बनायी थी.
तब दोनों देशों के बीच किसी प्रकार सहमति बनी कि पाकिस्तान हमलावरों की खोज और उन्हें सजा देने के काम में सहयोग करेगा. इसमें अमेरिका की भूमिका भी थी. इस बार भी खबर है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने मंगलवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और एयरफोर्स बेस पर हुए हमले की जांच में हरसंभव मदद का आश्वासन दिया.
उसके पहले पाकिस्तान सरकार ने औपचारिक रूप से इस हमले की भर्त्सना भी की. बहरहाल, टेलीफोन पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच हुई बातचीत में नरेंद्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि हमले के जिम्मेवार लोगों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की जाये. इससे पहले पाकिस्तानी विदेश विभाग ने सोमवार की रात एक बयान में कहा था कि भारत द्वारा उपलब्ध कराये गये ‘सुरागों¹’ पर पाकिस्तान काम कर रहा है.
एक खबर यह भी है कि पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित करीब दर्जनभर आतंकवादी संगठनों के गंठबंधन यूनाइटेड जिहाद काउंसिल (यूजेसी) ने हमले की जिम्मेवारी ली है. यूजेसी में जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी, जैसे हिज्बुल मुजाहिदीन वगैरह, शामिल हैं. लगता यह है कि किसी ने जैश-ए-मुहम्मद की तरफ से ध्यान हटाने के लिए यह बात कही है. भारत सरकार के सूत्र जैश की ओर इशारा कर रहे हैं. मुंबई हमले का आरोप लश्कर-ए-तैयबा पर था.
देखना यह भी होगा कि लश्कर और जैश में किसी किस्म का फर्क है या नहीं. कहा जा रहा है कि जैश का रिश्ता तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ भी अच्छा है, जो संगठन इन दिनों पाकिस्तान में आतंकी गतिविधियां चला रहा है.
सवाल यह भी है कि क्या यह हमला पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के अंतर्विरोधों की ओर इशारा कर रहा है?क्या इसमें सेना या आइएसआइ की भूमिका नहीं है? भूमिका है, तो क्या सेना ने नवाज शरीफ की पीठ में फिर छुरा भोंका है? क्या नवाज का वादा फिर से झूठ का पुलिंदा है? क्या पाकिस्तान की बात पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए? क्या हम फौजी कार्रवाई से समस्या का समाधान कर पायेंगे? फिलहाल बड़ा सवाल है कि अब 15 जनवरी को प्रस्तावित सचिव स्तर की वार्ता होगी या नहीं!
पठानकोट हमले के कई पहलू हैं. पहला भारत-पाक रिश्तों से जुड़ा है. दूसरा पहलू है आतंकवाद के खिलाफ हमारी रणनीति का. तीसरा पहलू है इस हमले को लेकर आंतरिक राजनीति का. भारत के सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुनें, तो लगता है कि देश की जनता हमले का जवाब हमले से देना चाहती है, यह सोचे-समझे बगैर कि यह लड़ाई कहां तक जायेगी.
मुंबई हमले के मुकाबले इस वक्त हालात बदले हुए हैं. पाकिस्तान सरकार ने इस बार काफी तेजी से प्रतिक्रिया व्यक्त की है और कार्रवाई का आश्वासन दिया है. मुंबई हमले के समय काफी अरसे तक पाकिस्तान में संशय रहा. फरवरी 2008 के चुनाव के बाद बनी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार एक लंबे राजनीतिक ऊहापोह के बाद बनी थी. हालांकि, जनरल परवेज मुशर्रफ का प्रभाव पूरी तरह खत्म हो चुका था, पर सेना और नागरिक सरकार के रिश्तों में दरार कायम थी.
हालांकि, मुंबई हमले के एक साल पहले 13 ग्रुपों ने मिल कर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का गठन कर लिया था, पर वह पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए बड़ा खतरा बन कर नहीं उभरा था. पाकिस्तानी सिविल सोसायटी का प्रभाव आज भी गहरा नहीं है, पर दिसंबर 2014 में आर्मी पब्लिक स्कूल, पेशावर के हत्याकांड ने नागरिकों के मन में खून-खराबे को लेकर आंशिक वितृष्णा पैदा की है. पिछले साल 46 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान कॉरीडोर के निर्माण की योजना को लेकर पाकिस्तान काफी उत्साहित है.
वहां आर्थिक विकास के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है. भारत से व्यापार बढ़ाने की कोशिशें वहां का व्यापारी समुदाय एक अरसे से कर रहा है. साल 2011 से दोनों देशों ने व्यापारिक रिश्तों को बेहतर बनाने की योजना पर काम शुरू कर दिया था. लेकिन, सीमा पर अचानक गतिविधियां बढ़ने से और भारत में सत्ता परिवर्तन से सारे काम रुक गये.
भारत-पाकिस्तान संबंध उस अंधेरे रास्ते की तरह हैं. इसमें कई बार समतल जमीन मिलती है और कई बार ठोकरें. फिलहाल हमें न तो आक्रामक उन्मादी होकर सोचना चाहिए और न खामोश रह कर. नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच बना संपर्क वक्त की जरूरत है. यह संपर्क होना ही चाहिए.
यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले दो महीने से सीमा पर एक बार भी गोलीबारी की घटना नहीं हुई है. सच यह है कि दोनों देशों के रिश्तों में जो थोड़ा-सा भी सुधार नजर आता है, वह व्यापारी समुदाय के आपसी रिश्तों और दोनों देशों के बीच ट्रैक टू के संपर्कों के कारण है. आप कल्पना करें कि ये संपर्क न होते, तो इस वक्त क्या होता. यह सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद करगिल कांड हुआ, पर करगिल के बाद ही आगरा शिखर सम्मेलन हुआ और साल 2003 का सीमा पर शांति बनाये रखने का समझौता हुआ.
मुंबई हमले के फौरन बाद 28 नवंबर, 2008 को एक फर्जी फोन करनेवाले ने खुद को भारतीय विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधि बताते हुए पाकिस्तानी राष्ट्रपति जरदारी को फोन करके युद्ध की धमकी दे डाली थी. संपर्क और बातचीत को जारी रखना दोनों देशों के हित में है.
साथ ही हमें जेहादी तत्वों के या तो कमजोर होने या उन पर पाकिस्तान सरकार का नियंत्रण साबित होने का इंतजार करना होगा. पाकिस्तान लंबे अरसे तक जेहादियों को छुट्टा छोड़ने की स्थिति में अब नहीं है.उसके सामने भी दाएश या आइएस का खतरा है. चीन के साथ रिश्ते बेहतर बनाये रखने के लिए भी उसे जेहादियों को काबू में रखना होगा.
पठानकोट प्रकरण का एक पहलू हमारी सामर्थ्य से जुड़ा है. हमें अपनी कमजोरियों की ओर भी ध्यान देना चाहिए. हमलावरों को हवाई अड्डे तक पहुंचने के काफी पहले उनकी स्थिति का पता लग चुका था. यह भी पता लग चुका था कि वे कहां हैं, फिर भी वे भीतर घुसने में कामयाब हुए.
बीएसएफ की थर्मल इमेजिंग प्रणाली क्यों नहीं काम कर रही थी? इस प्रकरण का एक और पहलू परेशान कर रहा है. वह है- तस्करों और आतंकवादियों के सहयोग का. अब यह तो तफ्तीश से ही पता लगेगा कि कहीं आतंकियों को स्थानीय अपराधियों या बब्बर खालसा जैसे संगठनों से तो मदद नहीं मिली थी!
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