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नव वर्ष विशेष : आपकी पहली प्रतिबद्धता देश के प्रति होनी चाहिए

सद्गुरु जग्गी वासुदेव एक योगी, युगद्रष्टा एवं मानवतावादी आधुनिक गुरु हैं, जो 250 शहरों में स्थित ईशा फाउंडेशन के केंद्रों के जरिये विश्व शांति और खुशहाली की दिशा में काम कर रहे हैं. उनका मानना है कि योग के जरिये हर व्यक्ति अपने भाग्य का स्वामी खुद बन सकता है. नये साल में हमारा देश-समाज […]

सद्गुरु जग्गी वासुदेव एक योगी, युगद्रष्टा एवं मानवतावादी आधुनिक गुरु हैं, जो 250 शहरों में स्थित ईशा फाउंडेशन के केंद्रों के जरिये विश्व शांति और खुशहाली की दिशा में काम कर रहे हैं. उनका मानना है कि योग के जरिये हर व्यक्ति अपने भाग्य का स्वामी खुद बन सकता है. नये साल में हमारा देश-समाज कैसे आगे बढ़े, तरक्की के लिए सही सोच क्या हो, मानव कल्याण में धर्म और गुरुओं की भूमिका कैसी है और मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए देश-समाज को किन बुनियादी मुद्दों पर काम करने की जरूरत है, ऐसे ही जरूरी मसलों पर सद्गुरु से इमेल के जरिये खास बातचीत की हमारे समाचार संपादक रंजन राजन ने. पेश हैं मुख्य अंश.
एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रक्रिया वक्त की मांग
– सद्गुरु, आजादी के बाद से अब तक की भारत की आर्थिक तरक्की को आप कैसे देखते हैं? क्या भारत को दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने के बारे में सोचना चाहिए? यदि हां, तो कैसे?
मैं नहीं चाहता कि भारत सुपर-पावर बने. मैं चाहता हूं कि भारत एक खुशहाल देश बने, जहां खुशहाली के मानदंड सिर्फ दौलत और जीत के अश्लील मायनों से तय न हों. दुर्भाग्य से भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी कुपोषण का शिकार है. एक ऐसे देश का निर्माण करना, जहां लोगों के लिए पर्याप्त भोजन हो, लोग बुद्धिमान हों, और अध्यात्म के प्रति जागरूक हों- यह मेरा सफलता का दृष्टिकोण है. हजारों सालों से भारत दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी रहा है. जो कोई भी आंतरिक खुशहाली चाहता था, वह हमेशा यहां आया, क्योंकि किसी दूसरी संस्कृति ने आंतरिक विज्ञान को इतनी गहराई से नहीं देखा है.
लेकिन, दुर्भाग्य से, जो आध्यात्मिक संस्कृति हम आज देख रहे हैं, वह कई तरह से बाहरी आक्रमणों से टूटी हुई और लंबे दौर की गरीबी से विकृत हो गयी है. फिर भी, आध्यात्मिक प्रक्रिया की बुनियादी प्रकृति नष्ट नहीं हुई है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है. अब समय आ गया है कि हम इस गहन परंपरा से लाभ उठाएं और इसे दुनिया को पेश करें. एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रक्रिया वक्त की मांग है. यह इस शताब्दी की मांग है, इस सहस्राब्दी की मांग है, और शाश्वत मांग है.
लोगों की चेतना को सर्व-समावेशी चेतना में रूपांतरित करना होगा
– कहने को तो भारत विकास के पथ पर लगातार अग्रसर है, लेकिन गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को दूर करने में हम सफल नहीं हो सके हैं. आखिर क्यों है यह स्थिति और क्या है रास्ता?
हम आधी मानवता को दयनीय गरीबी में रखे हुए हैं, जिन्हें जीवन की बुनियादी चीजें भी उपलब्ध नहीं हैं, और दस प्रतिशत जनसंख्या ठाठ-बाट से मौज कर रही है. हमें उन लोगों को नीचे नहीं खींचना है, जो अच्छी जिंदगी गुजार रहे हैं; हमें उन लोगों को ऊपर उठाना है, जिनकी जिंदगी अच्छी नहीं है. यह बिल्कुल संभव है, कोई सपना नहीं है. इतिहास में पहली बार, हमारे पास जरूरी टेक्नालाॅजी है, संसाधन हैं, और इस धरती पर लगभग हर मानव समस्या को हल करने की क्षमता है. लेकिन, हम बस हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, क्योंकि मानव चेतना का अभाव है. जो सबसे महत्वपूर्ण है और जिसे किये जाने की जरूरत है, वह है लोगों की, खासकर युवाओं की, चेतना को जागृत करके एक सर्व-समावेशी चेतना में रूपांतरित करना. यह एक दृष्टिकोण नहीं है, यह एक बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है, इसे एक जीता-जागता अनुभव बनना चाहिए. एक सक्रिय आध्यात्मिक प्रक्रिया ही यह बदलाव ला सकती है.
चरित्र िनर्माण की जरूरत
– मनुष्य की धन की भूख शांत नहीं हो पाती, मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार के लगातार बढ़ने का मूल कारण यही है. भ्रष्टाचार अपने साथ कई अन्य समस्याओं को भी जन्म देता है. आखिर इसका निदान कैसे हो सकता है?
कुछ साल पहले मैं तमिलनाडु में त्रिची के एक स्कूल में गया था. मैं नवीं और दसवीं कक्षा के छात्रों से बात कर रहा था. मैंने उनसे पूछा, ‘आप अपने जीवन में क्या करना चाहते हैं?’ एक छात्र ने कहा, ‘मैं आरटीओ बनना चाहता हूं.’ मैंने उससे पूछा, क्यों, क्या आप मोटरगाड़ियों में सुधार लाना चाहते हैं? तो उसने कहा, ‘नहीं, वहां मैं बहुत सारा पैसा कमा सकता हूं.’ आज के 14-15 साल के लड़के उन विभागों में नौकरी पाना चाहते हैं, जिन्हें वे सबसे ज्यादा भ्रष्ट मानते हैं. वे यह नहीं सोचते कि यह गलत है; वे सोचते हैं कि अपनी जिंदगी संवारने का यही तरीका है! चरित्र में इस भयानक गिरावट को दूर करने के लिए काम करने की जरूरत है. भ्रष्टाचार के तेजी से फैलने की एक वजह यह है कि देश के क्या मायने होते हैं, यह बात लोगों के दिमाग में पूरी गहराई से नहीं बैठी है. देश में हर जिम्मेदार इनसान को, खासकर मीडिया को, इस बात को युवाओं और आम लोगों के दिमाग में बिठाने की कोशिश करनी चाहिए, कि अगर हम अच्छे से जीना चाहते हैं, तो हमें अपने देश को अच्छे से रखना होगा.
आप जो जानते हैं, उसी में विश्वास करें
– हाल के समय में हमारा देश-समाज अक्सर जिस तरह के विवादों में फंसता रहता है, उसे देख कर कई बार लगता है कि धर्म लोगों को राह दिखाने की बजाय फसादों की जड़ बन रहा है?
सारे धर्म आध्यात्मिक प्रक्रिया की तरह शुरू हुए थे, लेकिन समय के साथ वे विश्वास-प्रणाली में बदल गये. इस कारण वे अपने शुरुआती इरादे से भटक गये और मानवता को विभाजित करने के साधन बन गये. अगर मैं विश्वास करता हूं कि यह नारियल का पेड़ भगवान है और आप विश्वास करते हैं कि वह पत्थर भगवान है, तो हो सकता है कि आज हम दोनों को एक-दूसरे से दिक्कत न हो, लेकिन कल जब आप किसी वजह से नारियल का पेड़ काटना चाहेंगे, तो हम और आप लड़ने लगेंगे.
एक बार जब आप किसी ऐसी चीज में विश्वास करने लगते हैं, जो आपके अनुभव में नहीं है, जिसे आप जानते नहीं, तो लड़ना तय है. मेरी कोशिश लोगों को एक ऐसी स्थिति में लाना है, जहां लोग ईमानदारी से यह स्वीकार करें, ‘जो मैं जानता हूं, वह जानता हूं. जो मैं नहीं जानता, वह मैं नहीं जानता.’ जब आप नहीं जानते, तब आप लड़ कैसे सकते हैं? यही खोजी होने का आधार है और यही जानने का भी आधार है. इस देश में लोग हमेशा से सत्य और मुक्ति की खोज करनेवाले रहे हैं. इस या उस चीज में विश्वास करना एक नयी चीज है.
सच्चा धर्म तो अपने भीतर देखना है
– गृहस्थ जीवन जी रहे यानी जीविकोपार्जन के उपायों और पारिवारिक जिम्मेवारियों में व्यस्त किसी व्यक्ति का अपने धर्म के प्रति नजरिया और दैनिक व्यवहार किस तरह का होना चाहिए?
सच्चे अर्थों में धार्मिक होना और आज जिस तरह से धर्म को व्यवहार में लाया जा रहा है, इन दोनों में फर्क है. किसी एक गुट से नाता रखना या उसके लिए नारे लगाना किसी को धार्मिक नहीं बना देता. धार्मिक होना एक गुण है, जिसका संबंध अपने भीतर कदम बढ़ाने से है. आप यह कदम उठा सकते हैं, आपकी बाहरी परिस्थितियां चाहे जो भी हों. और अगर आप यह कदम नहीं उठाते हैं, तो आप चाहे मंदिर जाएं, मसजिद या चर्च जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. आप वहां सिर्फ सांत्वना के लिए, डर की वजह से, अपराध-बोध से, या लालच की वजह से जाते हैं. यह धर्म नहीं है. सच्चा धर्म अपने भीतर देखने के बारे में है. योग बस धर्म का विज्ञान है, यह एक विशुद्ध विज्ञान की तरह है और इसमें किसी विश्वास-प्रणाली की जरूरत नहीं होती. इसमें आपको सिर्फ अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करके अपने भीतर प्रयोग करना होता है.
देश को आगे ले जाने की राह
– भारत जैसे लोकतांत्रिक देश-समाज में धार्मिक कट्टरता कम करने और सभी धर्मों के लोगों के बीच भाईचारा बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं, सरकार की ओर से और समाज की ओर से?
हमें अपने देश में यह एक बात पक्का करनी होगी- आप चाहे जिस भी धर्म, जाति, संप्रदाय, या लिंग के हों, अगर आप इस देश के वासी हैं, तो आपकी पहली प्रतिबद्धता देश के प्रति होगी. यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर हमने ध्यान नहीं दिया है, जिसकी वजह से आज भी भारत में लगातार खून बहाया जा रहा है. किसी दूसरी चीज को जो भी इनसान देश हित से ऊपर रखता है, उससे आवश्यकता अनुसार सख्ती से निपटा जाना चाहिए. एक बार जब आप किसी देश के वासी हो जाते हैं, आप वहां के संविधान में स्थापित नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता का आदर करते हैं. एक इंसान के तौर पर सिर्फ एक ही पहचान को आप देश से ऊपर रख सकते हैं और वह है- ‘मैं पूरे विश्व का नागरिक हूं.’ भारत में भी हर इंसान को यह एक चीज स्पष्ट हो जानी चाहिए, वरना आप देश को आगे नहीं ले जा सकते, हर गुट अलग-अलग तरीकों से देश को पीछे खींचनेकी कोशिश करेगा.
असहिष्णुता की घटनाओं का राजनीतिक इस्तेमाल न करें
– सामाजिक मूल्य के रूप में भारतीय समाज में सहिष्णुता वक्त के साथ कम हो रही है या बढ़रही है?
हमारे देश में धर्मों, जातियों, नस्लों, वर्गों, और मतों की विविधता है. हम सबसे जटिल और अनूठा राष्ट्र हैं और हमारा राष्ट्र करीब दस हजार साल पुराना है. मूल रूप से जो सूत्र हम सभी को जोड़ता है, वह यह है कि यह देश खोजियों का है. हमारे देश कीआध्यात्मिकता में स्वीकृति और समझदारी का महत्‍वपूर्ण स्‍थान रहा है, ये दोनों सहनशीलता से कहीं ज्यादा समृद्ध हैं. आप सहनशील तब बनते हैं, जब आप लोगों को उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाते जैसे वे हैं. या फिर वे क्या खाते हैं, कैसे पूजा करते हैं या किसकी पूजा करते हैं- यह सब आप स्‍वीकार नहीं कर पाते. आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब है- सृष्टि की एकरूपता का अनुभव करना. जब कोई पूरी सृष्टि के साथ एक हो जाना चाहता हो, तो केवल सहनशीलता से काम नहीं बनता.
हर देश में कुछ मूर्ख होते हैं, और हमारी सवा सौ करोड़ की आबादी में भी कुछ हैं, जो लापरवाही से भरे बयान दे रहे हैं. लेकिन, हम इसे ऐसे बढ़ा-चढ़ा रहे हैं, जैसे कि ये बयान ही हमारे देश का दर्शन हो! कुछ नगण्य लोगों को छोड़ कर, हम एक शांतिपूर्ण देश रहे हैं, क्योंकि सामान्य रूप से हमारी प्रकृति शांति और स्वीकृति की है.
विविधता हमारी ताकत है. असहिष्णुता की कुछ घटनाओं का किसी के भी द्वारा राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. साथ ही, मीडिया एक सफल लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आधार की तरह है. मीडिया में सामाजिक अशांति की स्थितियों में, संतुलन कायम करने का गुण होना चाहिए.
भीतर की खोज को बढ़ावा देना होगा
– भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के लोगों को बेहतरी की राह दिखाने में धर्मगुरुओं की भूमिका कितनी बड़ी है और इस संदर्भ में मौजूदा धर्मगुरुओं की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
धर्म का मतलब है भीतर की तरफ कदम उठाना. जब आप अपनी आंतरिक प्रकृति की खोज करते हैं, तब आप धार्मिक होते हैं. लेकिन आज हम कुछ विश्वासों के आधार पर अपने धर्म को परिभाषित कर रहे हैं. जब लोग अलग-अलग विश्वासों के जरिये पहचाने जाते हैं, तब इसका अंत झगड़े में होना लाजिमी है.
यही कारण है कि धर्म सामंजस्य और सद्भाव बिगाड़ने का स्रोत बन गया है. अब समय आ गया है कि हम इस बुनियादी मुद्दे पर ध्यान दें. अगर हम किसी अन्य तरीके से सामंजस्य व सद्भाव पैदा करने की कोशिश करते हैं, तो यह कुछ दिन ही चलेगा और फिर लोग झगड़ने लगेंगे. स्थायी बाहरी सामंजस्य सिर्फ तभी आयेगा, जब इंसान अपने भीतर सामंजस्य पैदा करेगा. सच्चा धर्म निश्चय ही सामंजस्य लाता है. जब कोई अपने भीतर कदम उठाता है और आनंद के स्रोत को बाहर के बजाय भीतर खोजता है, तब वह स्वाभाविक रूप से सामंजस्य में होता है. भीतरी मार्ग पर आप किसी दूसरे के रास्ते में आड़े नहीं आते. धार्मिक नेताओं को इस आंतरिक खोज को बढ़ावा देना चाहिए.
हमारे देश में पर्याप्त गुरु नहीं हैं
– भारत में जब से टेलीविजन पर धार्मिक चैनल और प्रवचनों के प्रसारण शुरू हुए हैं, खुद को धर्मगुरु और भगवान का अवतार बतानेवालों की संख्या तेजी से बढ़ी है. इसे आप कैसे देखते हैं?
यह कुछ ऐसा पूछने जैसा है कि अमेरिका में इतने ज्यादा स्कूल टीचर क्यों हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे अपने बच्चों को एक खास तरह से पढ़ाना चाहते हैं. इसी तरह से हमारे यहां गुरु हैं. खुद को भगवान कहनेवालों के बारे में मैं बात नहीं करना चाहता, लेकिन मेरा मानना है कि दुर्भाग्य से सवा सौ करोड़ लोगों के लिए हमारे पास पर्याप्त गुरु नहीं हैं. गुरु यह पक्का करने के लिए होते हैं कि कोई भी इंसान आध्यात्मिक संभावना से अछूता न रह जाये. इसके लिए हमें निश्चय ही ज्यादा गुरुओं की जरूरत है. मैं आशा करता हूं कि हजारों असली गुरु आएंगे, जो इतनी बड़ी जनसंख्या की जरूरत का ध्यान रखेंगे. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहुत से आध्यात्मिक ठेकेदार भी पैदा हो गये हैं.
मंदिरों को पूजा करने की जगह के रूप में नहीं देखें
– एक अनुमान के मुताबिक हमारे देश में विद्यालय से ज्यादा पूजास्थल हैं. भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश-समाज के लिए यह स्थिति कितनी जायज है और लगातार बन रहे नये पूजास्थल कितने जरूरी हैं?
पूजास्थलों को बनाना संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है. लेकिन, अगर आप भारतीय मंदिरों की बात कर रहे हैं, तो आपको समझना होगा कि वे पूजा करने की जगहें नहीं हैं, बल्कि शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र हैं.
पारंपरिक तौर पर, आपको प्रार्थना करने के लिए या भगवान से कुछ मांगने के लिए मंदिर जाने के लिए नहीं कहा गया था; आपसे वहां पर थोड़ी देर बैठने के लिए कहा गया था, जिससे कि आप उस ऊर्जा को आत्मसात करके खुद को विभिन्न स्तरों पर चार्ज कर सकें. चूंकि हर इनसान तमाम तरह की ऊर्जाओं का जटिल मिश्रण है, इसलिए विभिन्न तरह की जरूरतों वाले इनसानों के लिए मंदिरों का एक जटिल मिश्रण बनाया गया था. प्राचीन मंदिरों ने लोगों को जीवन के एक बिल्कुल अलग आयाम में प्रवेश दिलाया.
दुर्भाग्य से, मंदिरों की सही तरीके से देखभाल करने की जानकारी के अभाव में आज हमने तमाम मंदिरों की ऊर्जा को नष्ट कर दिया है. आजकल तो लोग मंदिर ऐसे बना रहे हैं मानो मंदिर नहीं, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बना रहे हों. हमें इस विज्ञान को खोना नहीं चाहिए. यह बहुत महत्वपूर्ण है कि यह दुनिया को उपलब्ध हो.
हमारे युवा देश के लिए एक महान संभावना
– मौजूदा समय-समाज की वह कौन सी चीज है, जो आपको खुशी देती है और कौन सी चीज आपको निराश करती है?
हमारा देश में युवाओं की संख्या बहुत अधिक है, और यह एक महान संभावना है. लेकिन, भारत में राजनीति को परिपक्व होना होगा, ताकि हमारे युवा एक महान संभावना के रूप में उभर सकें.-
हर मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक प्रक्रिया की कम-से-कम एक बूंद अवश्य हो
– सद्गुरु, कुछ निजी प्रश्न पूछने की इजाजत चाहता हूं. अपनी दिनचर्या के बारे में कुछ बताएं. अपने जीवन में आप सबसे महत्वपूर्ण काम किसे मानते हैं?
मेरी आध्यात्मिक साधना सुबह लगभग बीस सेकंड की होती है. मैं बस बैठता हूं और फिर मैं पूरे दिन के लिए तैयार हो जाता हूं. मैं हर रोज टहला नहीं करता, मैं कोई व्यायाम भी नहीं करता, पर अगर आप मेरे साथ किसी पहाड़ की चढ़ाई करेंगे, तो मैं शायद आपसे काफी आगे निकल जाऊंगा. जब सृष्टि का स्रोत ही आपको उपलब्ध हो, तो आप दिन के लिए खुद को अच्छे से तैयार कर सकते हैं. लोगों ने इस पर जरूरी ध्यान नहीं दिया है, इसलिए यह काफी दूर नज़र आता हैं, आध्यात्मिक प्रक्रिया इतनी लंबी और अंतहीन लगती है.
लोग उम्र भर तरह-तरह के अभ्यास करते रहते हैं, क्योंकि वे बीच-बीच में अवकाश लेते रहते हैं, और खुद का यहां-वहां मनोरंजन करते रहते हैं. अगर वे अपना मनोरंजन करना बंद कर दें, तो बिना किसी विलंब के उन्हें लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा. आपके लिए सृष्टि और सृष्टिकर्ता दोनों ही उपलब्‍ध होंगे. मेरा लक्ष्य है कि हर मनुष्य, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, धर्म या लिंग का हो, के भीतर आध्यात्मिक प्रक्रिया की कम-से-कम एक बूंद अवश्य हो. हम पूरे विश्व को यह उपलब्ध कराना चाहते हैं.
-ईशा फाउंडेशन के गठन का विचार कब और कैसे आया? कितने देशों में मौजूद है और इसके प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
मनुष्य के सभी कार्यों में से, खुद के रूपांतरण पर काम करने को सबसे पवित्र माना गया है. यही वह काम है, जो मानव जीवन के उद्देश्य को पूरा करता है, और जीवन के सभी आयामों में खुशहाली भी लाता है.
तीन दशक पहले स्थापित ईशा फाउंडेशन का मुख्य लक्ष्य इस भीतरी खोज को प्रेरित और प्रोत्‍साहित करना और इसका पोषण करना है, जिससे लोग अपने भीतर की परम संभावना को अपने जीवन में साकार कर सकें. ईशा फाउंडेशन को 30 लाख स्वयंसेवियों द्वारा दुनिया के 250 शहरों में स्थापित केंद्रों से चलाया जाता है. इसका मुख्यालय दक्षिण भारत के वेल्लिंगिरी पर्वतों की तलहटी में स्थित ईशा योग केंद्र है, और ईशा इंस्टीट्यूट ऑफ इनर साइंसेज टेनेसी (यूएसए) में है. इस बारे में आप isha.sadhguru.org से और जानकारी ले सकते हैं.
अनुभव की जिन सीमाओं में आप बंधे हैं, बस वहीं तक सीमित होकर न िजएं
– आपके उपदेश की अनेक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. आपके संपूर्ण उपदेश का सार क्या है?
मेरी कोई शिक्षा नहीं है, मेरी कोई फिलोसोफी नहीं है. मेरे पास बस तरीके हैं, और तकनीकें हैं, जिससे हम एक मनुष्य को उसके भीतर बोध और अनुभव के एक नये आयाम में पहुंचा सकते हैं
अगर मुझे अपनी सारी शिक्षा एक वाक्य में कहनी हो तो- ‘अनुभव की जिन सीमाओं में आप बंधे हैं, बस वहीं तक सीमित होकर न िजएं.’ अगर कोई सीमा है, तो उसे तोड़ने की संभावना भी होती है. आप अपने वर्तमान अनुभव से अनुभव के अगले स्तर पर जा सकते हैं. एक बार आप ऐसा करने लग जाएंगे, तो आपको बोध होगा, कि आपके अंदर और बाहर वास्तविकता के कई सारे स्तर हैं. अगर आप अवरोधों को धकेल देंगे, तो कुछ नया प्रकट हो जायेगा. अगर आप अपने भीतर के सारे बंधनों तोड़ दें, तो आप ‘जीवन-मुक्त’ हो जायेंगे.
जीवन में सफलता और असफलता
दोनों बस कल्पना हैं
– जीवन में सफलता का क्या अर्थ है? अकसर कहा जाता है कि लोग असफलता से जूझ कर ही सफलता के शिखर पर पहुंचते हैं. आप अपने अनुभव के आधार पर इस बारे में क्या कहेंगे?
जो इनसान इस जीवन की साधारण घटनाओं को ही जीवन का लक्ष्य मान कर चलता है, उसके लिए सफलता और असफलता है. लेकिन, जो इस जीवन को एक भव्‍य संभावना के लिए एक सीढ़ी की तरह मानता है, उसके लिए कोई असफलता नहीं होती. आपके सामने जो भी परिस्थिति हो, आप उसका इस्तेमाल अपनी खुशहाली के लिए कर सकते हैं. सफलता और असफलता दोनों बस कल्पना हैं. आपने अपनी हर कल्पना, विचार, भावना और मूल्य को कहीं से बटोरा है, और वे आपके भीतर शासन करते हैं.
अगर आप सड़क के भिखारी होते, और आप रेस्तरां जाकर मसाला दोसा खा पाते, तो यह आपके लिए बड़ी सफलता होती. जैसे ही आप सामाजिक परिस्थितियों में उलझ जाते हैं, सफलता की आपकी कल्पना आपकी खुद की नहीं होती, किसी और की होती है. सबसे पहली और सबसे बड़ी सफलता यह है कि आप किसी और की कल्पनाओं के गुलाम न बनें. सफलता या असफलता इससे नहीं तय होती कि आपने जीवन में कितना धन कमाया है या फिर आपको दुनिया में कितना सम्मान मिला है.
आप सचमुच सफल तब होते हैं, जब आप बुरे-से-बुरे समय में भी आनंद के साथ रह सकें. जीवन हमारे सामने अलग-अलग तरह की परिस्थितियां लाता है, और उनमें से कई ऐसी होती हैं जिन्हें हम नहीं चाहते, पर हम उन परिस्थितियों को क्या रूप देते हैं, यह हम पर निर्भर करता है. हमारी राह में जो भी परिस्थिति आती है, उसे हम क्या रूप देते हैं, यह शत प्रतिशत हम पर निर्भर करता है.
तकनीक के साथ जीने का तरीका बहुत भयानक है!
– घर-घर में मोबाइल और शहर ही नहीं, गांव-गांव में इंटरनेट पहुंचने से भारतीय समाज में किस तरह का बदलाव आ रहा है? क्या इससे लोगों में ज्ञान और जागरूकता का स्तर बढ़ रहा है?
हर इनसान स्वाभाविक रूप से जीवन के प्रति विस्मय भाव से भरा होता है, और इसके बारे में जानने और सीखने को उत्सुक होता है. पहले बच्चों को सबकुछ रोमांचक लगता था, पर आज आधुनिक तकनीक की वजह से आप देखेंगे कि 8-10 साल के बच्चे बोर हो रहे हैं.
उन्होंने इंटरनेट के माध्यम से पूरा विश्व देख लिया है, और पूरे ब्रह्माण्ड को वे अपने फोन स्क्रीन पर जान चुके हैं. ये जीने का बहुत भयानक तरीका है. अगर आप नहीं जानते और आपको पता है कि आप नहीं जानते, तब तो जानने की संभावना हमेशा बनी रहती है, लेकिन अगर आप नहीं जानते, और सोचते हैं कि आप जानते हैं, तो आपका कोई इलाज नहीं है.
तकनीक एक बहुत बड़ा वरदान है, पर यह संभव है कि लोग इसका इस्तेमाल दुनिया को खूबसूरत बनाने की बजाय दुनिया के विनाश के लिए करें. तकनीक से लाभ होगा या हानि, यह इस पर निर्भर करता है कि यह किसके हाथों में है. यही कारण है कि पहले मानव कल्याण की तरफ ध्यान देना होगा, क्योंकि आपको दी गयी कोई चीज आप कैसे चलाएंगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि आपके हाथ कैसे हैं.
जिसने मानवीय व्यवहार नहीं सीखा, वह मानव कैसा!
– कहने को तो सोशल मीडिया दुनिया के किसी भी कोने में बैठे लोगों को जोड़ने में मददगार साबित हो रहा है, लेकिन सामाजिक-पारिवारिक रिश्तों में तनाव कम होने की बजाय बढ़ ही रहे हैं. क्यों?
कुछ साल पहले मैंने अपने बेटी से पूछा- ‘मुझे ये फेसबुक दिखाओ. मैंने इसे कभी देखा नहीं है.’ वह बोली- ‘अरे यह आपके लिए नहीं है. आप तो बस यूं ही लाखों लोगों से जुड़े हुए हैं. आपको फेसबुक की क्या जरूरत है?’ मैं कहा- ‘पर मैं देखना चाहता हूं कि यह है क्या.’ वह बोली- ‘नहीं, यह बिल्कुल फालतू है.’ तो मैंने कहा, ‘अगर फालतू है तो तुम क्यों इस्तेमाल करती हो?’ वह बोली- ‘मेरे पास जुड़ने का कोई और तरीका नहीं है, इसलिए मैं इसे इस्तेमाल करती हूं.’
अगर आप अपने साथ बैठे लोगों से घुलमिल नहीं पा रहे, तो आप बहुत दूर बैठे किसी व्यक्ति से जुड़ना चाहेंगे. मैं यह नहीं कह रहा है कि यह सब गलत है, पर इससे लोग दूर के द्वीपों की तरह हो जाएंगे. उनको लगता है कि अपने रूम मैं बैठ कर, बिना किसी मानवीय व्यवहार के, वे पूरे विश्व के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं. अगर आप मानवीय व्यवहार नहीं सीखते, तो आप एक मानव नहीं बन पाएंगे.
आप बस एक मानसिक प्राणी बन जाएंगे, एक ऐसा प्राणी जो अपने मानसिक बकवास को ही सब कुछ समझता है. सीमाएं सिर्फ तब लांघी जाती हैं, जब आपसी लेन-देन होता है. जब आपको कोई परेशान करता है, तब आप अपनी सीमाओं और अपने भीतर के संघर्ष को समझ पाते हैं. मानव के विकास के लिए यह जरूरी है. तकनीक का अपने-आप में कोई गुण नहीं होता, यह बस हमें सक्षम बनाती हैं. इससे फायदा होगा या नुकसान, यह इस पर निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं.
पश्चिम की नकल के लिए अभी तैयार नहीं है हमारा समाज
– आज महिलाएं हर क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रही हैं और नये मुकाम हासिल कर रही हैं. लेकिन, महिलाओं के खिलाफ अपराध भी हर साल उसी तेजी से बढ़ रहे हैं. इसमें समाज और सरकार को क्या करना चाहिए?
अगर हम इसका समाधान ढूंढना चाहते हैं, तो हमें खुलेपन और विवेक के साथ इसे समझना होगा. महिलाओं का देर रात सड़कों पर घूमना और जवान लोगों का साथ रहना भारत देश के लिए नया है. भारत इसे संभालने में अब तक सक्षम नहीं है, इसलिए क्रूरतापूर्ण अपराध हो रहे हैं. हम कानूनों को अपनी जनता पर कारगर रूप से लागू नहीं कर पाये हैं. बहुत से दूसरे देशों में अगर कुछ होता है, और आप पुलिस बुलाएं, तो कुछ मिनटों में पुलिस वाहन पहुंच जाती है. हमारे यहां कुछ घंटे लगते हैं. जब तक ऐसे हाल हैं, यह बहुत जरूरी है कि एक समाज के तौर पर हम चीजों को समझदारी से संभालें, और खुद को ऐसी परिस्थितियों में डाल कर पुलिस से बचाने की अपेक्षा न रखें.
अगर आप महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के कारण को गहराई से समझना चाहते हैं, तो एक मनुष्य की प्रकृति को समझना होगा. पारंपरिक रूप से भारत में, पुरुष की शादी 18 साल की उम्र में और महिला की 15 साल की उम्र में हो जाती थी. आज वे 25 से 35 की उम्र में शादी कर रहे हैं. इसका मतलब है जब उनके शरीर में हॉर्मोन की गतिविधि सबसे ज्यादा होती है, उस समय उनसे शारीरिक संबंध न रखने की उम्मीद की जाती है. पश्चिम के समाजों में शारीरिक संबंधों और शादी से पहले के संबंधों के मामले में थोड़ी छूट है. लेकिन भारतीय समाज अभी ऐसी स्थिति में नहीं है, कि हम अपनी बेटियों को शादी से पहले लड़कों के साथ घुलने-मिलने की खुली छूट दें. पश्चिम की तरह, हमारे युवा भी देर से शादी कर रहे हैं. सामान्यतः आप देखेंगे कि बलात्कारी 15 से 25 की उम्र के होते हैं. इस दौरान हॉर्मोन की गतिविधि सबसे ज्यादा होती है. अगर वे शादीशुदा होते और उनके घर पर पत्नी होती, तो वे सड़क पर किसी अन्य महिला के साथ ऐसा करने से हिचकते. हां, कुछ ऐसे लोग भी हमारे समाज में हैं, जिनमें हिंसा और छेड़छाड़ की भावना होती हैं और वे शादी के बाद भी ऐसा करेंगे, पर उनकी संख्या बहुत कम है.
लोगों को यह सिखाना जरूरी है कि वे कैसे स्वस्थ रहें
– चिकित्सा विज्ञान में नित नये-नये अनुसंधान हो रहे हैं. असाध्य रोगों को दूर करने के नये-नये तरीके खोजे जा रहे हैं. लेकिन, बीमारियों से मरनेवालों की संख्या कम नहीं हो रही है. इसका कारण और निदान क्या है?
बीमारियों को दो बुनियादी श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पहली श्रेणी की बीमारियां बाहर से प्राप्त संक्रमण से होती हैं. इनकी दवाएं और इलाज मुहैया कराने में चिकित्सा विज्ञान बहुत कारगर रहा है. दूसरी तरह की बीमारियों, जो सारी बीमारियों का 70 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं, को आपका शरीर खुद पैदा करता है.
ये लंबी चलनेवाली बीमारियां हैं. शरीर में खुद के संरक्षण की गहरी प्रवृत्ति होने के बावजूद, यह खुद ही बीमारी पैदा कर रहा है, क्योंकि मानव-तंत्र कैसे काम करता है, इसकी कुछ बुनियादी चीजें हम नहीं समझे हैं. अनुचित जीवनशैली, रवैया, मानसिक व भावनात्मक स्थितियां और भोजन- इन चीजों ने लंबी बीमारियों में वृद्धि में योगदान दिया है. लोगों को यह सिखाने के बजाय कि कैसे स्वस्थ रहें, हम चिकित्सा उद्योग को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं. सही तरीके से योगाभ्यास करने से आप अपने अंदर स्वास्थ्य और संतुलन ला सकते हैं.

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