ऐसा नहीं है कि उनमें नौकरशाही से कोई गहरा भावनात्मक लगाव है और उसे बचाने के लिए वे हमेशा किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहेंगे. राजेंद्र कुमार वाली घटना के कुछ ही दिनों पहले सीबीआइ ने दिल्ली सरकार के एक अन्य नौकरशाह के विरुद्ध छापे मारे थे और उसे बचाने के बजाय केजरीवाल ने तुरंत ही उसका श्रेय लेने की कोशिश की थी. तो फिर राजेंद्र कुमार की रक्षा के लिए वे क्यों इतना बड़ा राजनीतिक दांव लगा रहे हैं?
अपने एक व्यक्तिगत नौकरशाह के कार्यालय पर सीबीआइ के छापे के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा केंद्र सरकार के खिलाफ की गयी तीखी प्रतिक्रिया को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है- कुंठित, कौतूहलभरी और कुछ खुलासा-सी करती हुई. इन तीनों में भी कुंठा को समझ पाना सबसे आसान है, क्योंकि जब तथ्य आपके विरुद्ध जा रहे हों, तो ऐसे में उन्हें एक विकृत रूप दे देना ही एकमात्र विकल्प होता है.
राजेंद्र कुमार नामक जिस नौकरशाह के विरुद्ध यह कार्रवाई हुई है, उनके आरोपित अतीत के बावजूद केजरीवाल ने उन्हें एक शक्तिशाली पद पर नियुक्त किया. ऐसे तथ्य सामने आये हैं कि उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर कुछ कंपनियों को ठेके दिलवाये थे. उनके विरुद्ध ये आरोप सार्वजनिक जानकारी में हैं, अतः उनकी तफसील में जाने की जरूरत नहीं है. इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि भ्रष्टाचार की खोजबीन करनेवाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ ने भी राजेंद्र कुमार के बारे में केजरीवाल को औपचारिक रूप से चेतावनी दी थी, जिस पर गौर करने के बजाय केजरीवाल ने उन्हें इस अहम पद पर ला बिठाया.
उपर्युक्त तथ्य के विषय में बगैर कुछ भी कहे केजरीवाल ने निराधार आरोपों की बौछार का सहारा लेकर अपने कृत्य पर परदा डालने की वही पुरानी रणनीति अपनायी. उनके आक्रमणों ने दो रूप लिए-उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध असंयत भाषा का इस्तेमाल किया और इसके बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली पर कभी लगे खोखले आरोपों को फिर से जिंदा करने की कोशिशें भी शुरू की. अरुण जेटली पर लगे ये आरोप दो वर्षों से भी पहले एक ठोस वजह से खोखले साबित हो चुके थे. उन्हें और किसी ने नहीं, बल्कि श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी की संप्रग सरकार ने ही दोषमुक्त करार दिया था. ऐसा करके उन्होंने उन पर कोई दया नहीं की थी. संप्रग सरकार उन्हें अदालत तक पहुंचा कर प्रसन्न ही हुई होती और उसने गंभीर धोखाधड़ी अन्वेषण कार्यालय को इस मामले की तह तक पहुंचने के आदेश भी दिये थे. वे इन आरोपों पर तेजी से किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते थे, और शीघ्र ही वे वहां तक पहुंच भी गये. मगर यह नतीजा उनकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं था.
संप्रग के सत्तासीन होने के बावजूद, तहकीकात करनेवालों ने 21 मार्च, 2013 को अपने इस निष्कर्ष से सरकार को अवगत करा दिया कि इस मामले में कोई भी धोखाधड़ी नहीं हुई और इस तरह यह कहानी अपनी मौत आप ही मर गयी. चुनाव निकट आ चुके थे, जिस कारण जेटली क्रिकेट प्रशासन से अलग हो गये. इस तथ्य पर भी गौर करना अहम होगा कि भ्रष्टाचार के मामले उठा-उठा कर अपनी राजनीतिक बुलंदियां हासिल करते हुए भी केजरीवाल ने कभी जेटली पर लगे इन आरोपों को मुद्दा नहीं बनाया था. अब कौतूहल वाले पहलू की परीक्षा करें. एक नौकरशाह को बचाने के लिए क्यों केजरीवाल ने आरोपों की निराधार झड़ी का सहारा लिया? ऐसा नहीं है कि उनमें नौकरशाही से कोई गहरा भावनात्मक लगाव है और उसे बचाने के लिए वे हमेशा किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहेंगे. राजेंद्र कुमार वाली घटना के कुछ ही दिनों पहले सीबीआइ ने दिल्ली सरकार के एक अन्य नौकरशाह के विरुद्ध छापे मारे थे और उसे बचाने के बजाय केजरीवाल ने तुरंत ही उसका श्रेय लेने की कोशिश की थी. तो फिर राजेंद्र कुमार की रक्षा के लिए वे क्यों इतना बड़ा राजनीतिक दांव लगा रहे हैं? इसका कोई स्पष्ट उत्तर तो सामने नहीं है, पर यह सवाल शंकाएं तो खड़ी करता ही है, जिसे लेकर कई अनुमान भी लगाये जा रहे हैं. मसलन, दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनावों के ठीक पहले ‘आप’ के खाते में पहुंचे दो करोड़ रुपयों के चेक की याद फिर से ताजा हो गयी है. इस तथ्य पर भी गौर करना प्रासंगिक होगा कि शांति भूषण, प्रशांत भूषण तथा योगेंद्र यादव सरीखे केजरीवाल के वे सभी निकटतम साथी, जिन्होंने ‘आप’ की स्थापना में उनका साथ दिया था और जो ‘आप’ को जन्म देनेवाले आंदोलन के नैतिक नेतृत्व का दावा करते थे, उनसे इसलिए किनारा कर चुके कि उन्हें उनकी सत्यनिष्ठा कठघरे में खड़ी नजर आयी.
कभी-कभी किसी घटना के अनपेक्षित नतीजे किसी व्यक्ति की चिंतनधारा के दिलचस्प पहलू उजागर कर दिया करते हैं. सत्ता के संघर्ष में शत्रुता की कोई कमी नहीं होती और यह भी उतना ही सच है कि इस शत्रुता में व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं होता. संसद के सभाकक्ष में दोनों पक्षों के सांसद एक-दूसरे पर छींटाकशी करने में चाहे जितनी भी ताकत लगा दें, पर संसद के ही केंद्रीय कक्ष में वे फिर साथ-साथ बैठ कर एक-दूसरे के साथ हास-परिहास के भी खूब मजे लेते हैं. लोकतांत्रिक बहसों को हमेशा संयत होना चाहिए. झूठी निंदा कभी भी अपने लक्ष्य को हानि नहीं पहुंचाती, वह केवल अभियोग लगानेवाले का ही कद घटाती है. प्रधानमंत्री के विरुद्ध विषवमन करने में केजरीवाल ने सारी सीमाएं ताक पर रख दीं. जब उन्होंने समझ लिया कि जनता की प्रतिक्रिया नकारात्मक हो रही है, तो फिर उसी शाम प्रेस से बातें करते हुए अपना सुर कुछ हद तक सुधारने की कोशिश भी की. उन्होंने अपने प्रति सहानुभूति सी जगाते हुए भोलेपन के साथ स्वीकार किया कि संभव है मैंने कुछेक शब्दों का अनुचित इस्तेमाल कर दिया हो. आगे उसकी वजह बताते हुए यह भी कहा कि आखिर मैं हरियाणा के एक गांव में पैदा हुआ इंसान हूं. लापरवाही से की गयी इस टिप्पणी में भी गांवों के लिए निहित एक कटाक्ष तो देखा ही जा सकता है, मानो एक ग्रामीण से सिर्फ गाली-गलौज की ही उम्मीद की जा सकती हो. यह एक हैरत में डालने वाली बात है. एक ऐसी पूर्वाग्रही मानसिकता प्रदर्शित करती हुई, जो अवचेतन होते हुए भी शक्तिशाली है.
भारतीय लोकतंत्र के बारे में आप चाहे और जो कुछ भी कह लें, मगर यह नीरस तो कभी भी नहीं होता. सत्ता तथा चुनौती का नाटक इस राष्ट्रीय परिदृश्य का एक आवश्यक-सा अंग है, मगर इसी दौरान इसके किरदारों की बुनियादी प्रकृति भी उजागर हो जाती है, जिससे बहुत सारे लोग चकित रह जाते हैं. बदलाव के इस दौर में एक पूरी पीढ़ी जब-तब भड़क उठनेवाले संघर्षों में संलग्न है. हमेशा ही केंद्रीय फलक पर होनेवाली दुर्घटनाओं अथवा गलतियों का फायदा उठाने की ताक में लगे रह कर भी महत्वाकांक्षाएं किसी न किसी भांति सार्वजनिक निगाहों की जद में आ ही जाती हैं. इसे उजागर करने की जरूरत नहीं पड़ती, यह हमेशा खुद ही सामने आ जाया करती है. महत्वाकांक्षा केवल एक त्रासदी के नायक में ही पाया जानेवाला घातक दोष नहीं है, यह एक आदर्शवादी को भी नहीं बख्शती. (अनुवाद : विजय नंदन)
एमजे अकबर
राज्यसभा सांसद, भाजपा
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