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साहित्य अकादमी पुरस्कारों के नये आयाम
बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार इस बार न जाने कैसे मुझे मैथिली भाषा के पुरस्कार के लिए निर्णायक समिति का सदस्य बनाया गया था. यह अच्छी बात थी कि अकादमी की ओर तीन-सदस्यीय समिति के जूरी का नाम पूरी तरह गोपन रखा गया, जिससे तीनों में से किसी जूरी को अंतिम समय तक पता नहीं था […]
बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
इस बार न जाने कैसे मुझे मैथिली भाषा के पुरस्कार के लिए निर्णायक समिति का सदस्य बनाया गया था. यह अच्छी बात थी कि अकादमी की ओर तीन-सदस्यीय समिति के जूरी का नाम पूरी तरह गोपन रखा गया, जिससे तीनों में से किसी जूरी को अंतिम समय तक पता नहीं था कि अन्य दो कौन हैं.
सबसे बड़ी समस्या थी, उन आठ किताबों को पढ़ना, जिन्हें मैथिली भाषा की सलाहकार समिति ने अंतिम निर्णय हेतु प्रस्तुत करने के लिए चुना था. चूंकि समय पर्याप्त था, इसलिए अपनी यात्राओं के दौरान मैंने उन्हें पढ़ने का लक्ष्य बनाया, जिससे यथासंभव सही निर्णय हो सके. इसमें मैं सफल भी हुआ. मैथिली में साहित्य अकादमी के कई पुरस्कार दिये जाते हैं, जो इस भाषा में लिखने के लिए नयी प्रतिभाओं को प्रेरित करते हैं.
हालांकि, थोड़े में गुजारा कर लेने के मैथिल साहित्यकारों के वैशिष्ट्य ने उन्हें अकादमी के पुरस्कारों से आगे उड़ान भरने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया, जिससे मैथिली लेखन को न तो ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और न ही सरस्वती सम्मान, जबकि उन सभी संस्थाओं में मैथिली की कार्य-समिति गठित है, जो अन्य भाषाओं के समक्ष चुनौती देने के लिए उपयुक्त मैथिली ग्रंथ के आने की प्रतीक्षा भी कर रही है. निश्चय ही वह दिन ऐतिहासिक होगा, जब किसी मैथिली कृति को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलेगा.
जिस होटल में हमारे ठहरने की व्यवस्था अकादमी की ओर से की गयी थी, उसमें अन्य भाषाओं के जूरी और संयोजक भी ठहरे थे. हिंदी के तो सभी परिचित थे ही, कश्मीरी, बांग्ला, संस्कृत आदि के भी कई परिचित मित्र निकल आये. खूब बातें हुईं.
कहां क्या लिखा जा रहा है, इसे जानने के लिए साहित्य अकादमी से ज्यादा उपयुक्त साझा मंच और कोई है भी नहीं. मैथिली की संयोजक डॉ वीणा ठाकुर को भी जानने-समझने का मौका मिला. सहज वत्सलता के साथ तटस्थता उनका सहज स्वभाव है. बाकी दो जूरी में डॉ इंद्रकांत झा से मैं तब से परिचित हूं, जब बनारस में काली मंदिर में रहा करता था. उनकी दी हुई ‘लिखनावली’ से मुझे विद्यापति के वैदुष्य के एक और पक्ष का परिचय मिला था. बैठक में वे लगभग आधा घंटा देर से आये, जबकि दिल्ली वे दो दिन पहले ही पहुंच चुके थे.
दरअसल, उस दिन गुरु तेग बहादुर का शहादत दिवस था, जिससे दिल्ली का कनाट प्लेस जुलूसों से पटा पड़ा था. दिल्ली के दो प्रमुख गुरुद्वारे उसी इलाके में हैं. ट्रैफिक का हाल यह था कि शाम को हमें अकादमी कार्यालय से करोलबाग स्थित होटल कार से जाना था, लेकिन जब कार एक घंटे तक राजीव चौक में चक्कर काटती रही, तब कार वाले ने हाथ खड़े किये और अंततः मुझे, डॉ सूर्यप्रसाद दीक्षित और डॉ रामजी तिवारी को दिल्ली मेट्रो से जाना पड़ा.
तीसरी जूरी सहरसा की डॉ माधुरी झा थीं, जिनसे मैं पहली बार रूबरू हुआ था. वे बैठक में और देर से आयीं. उनका पुत्र मनोज झा राजनीति में काफी सक्रिय है. माधुरी जी भी प्रत्येक पुस्तक पर अपनी टिप्पणी ले आयी थीं, जिसके आधार पर हम तीनों ने प्रारंभिक चर्चा शुरू की.
निश्चय ही यह प्रश्न भी उठा कि पिछली बार भी दरभंगा को ही यह पुरस्कार गया और इस बार भी दिया गया, तो गलत संदेश जायेगा. लेकिन हर जूरी की यह मजबूरी थी कि उसे ऐसी कृति चुननी थी, जिसे अन्य भारतीय भाषाओं के समक्ष पूरे आत्मविश्वास से रखा जा सके. दो-तीन कृतियां और थीं, जो इस दृष्टि से उपयुक्त थीं, लेकिन काफी विचार-विमर्श के बाद मनमोहन झा के कथा-संग्रह ‘खिस्सा’ को अंतिम रूप से चुन लिया गया.
प्रसंगवश पता चला कि मनमोहन जी मैथिली के किंवदंती पुरुष प्रो हरिमोहन झा के कनिष्ठ पुत्र हैं. उस परिवार के लिए यह गौरव की बात है कि पिता के साथ-साथ दोनों पुत्र साहित्य अकादमी से सम्मानित हुए. हरिमोहन बाबू को जिस साल पुरस्कार मिला, उसके लगभग दस साल बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र राजमोहन झा को और उसके लगभग 18 साल बाद कनिष्ठ पुत्र मनमोहन जी को (तीनों को कथा विधा में ही) यह सम्मान मिला है. राजमोहन जी का नाम आधुनिक मैथिली कथा विधा को परिपुष्ट करनेवालों में अग्रगण्य है. उसी तरह मनमोहन जी ने मैथिली कथा को एक खास नजरिया और तेवर दिया है.
मैथिल विद्वानों के त्यागमय जीवन में ऐसे गौरवपूर्ण क्षण बहुत कम आते हैं. ऐसा ही एक ऐतिहासिक अवसर तब आया था, जब इलाहाबाद विवि के वाइसचांसलर पद के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने निवर्तमान वीसी सर गंगानाथ झा के सुपुत्र प्रो अमरनाथ झा को चुना था और एक योग्य पिता ने अपनी वीसी की कुरसी पर अपने योग्य पुत्र को बैठाया था.
हिंदी में इस बार उस 95 वर्षीय महापुरुष को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है, जो दिल्ली में रह कर भी राजधानी की साहित्यिक राजनीति से सर्वथा पृथक रहे और निरंतर लेखन-रत रहे. डॉ रामदरश मिश्र जितने बड़े कथाकार हैं, उतने ही बड़े नवगीतकार और निबंधकार हैं.
1970 के दशक में लिखा उनका उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ उस दौर में पुरस्कृत किसी भी भाषा के उपन्यास से कमतर नहीं था, मगर दुर्भाग्यवश वह हिंदी में लिखा गया था, जिसमें गुटबाजी इतनी अधिक रही कि अपने शिविर के तृतीय कोटि की किताबों को भी पुरस्कृत करने में महारथियों ने कोई कोताही नहीं बरती, जिसके कारण हिंदी की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं और उनके रचनाकार प्रायः उपेक्षित रहे. हिंदी का यह भी दुर्भाग्य है कि भारतीय लोकतंत्र हाथी और चूहे को समान जीव मानते हुए समान खुराक मुहैया कराता है.
इतने बड़े विशाल हिंदी जगत में सृजनरत लाखों रचनाकारों के लिए भी एक पुरस्कार और कुछ हजार लोगों की भाषा के लिए भी एक पुरस्कार- यह ऐसा अन्याय है, जिससे हिंदी को उबारने के लिए उपाय करने होंगे. वरना, हिंदी में पुरस्कार किसी साहित्यकार को मिलना लॉटरी निकलना ही माना जायेगा.
अन्य भाषाओं के पुरस्कारों के लिए रचनाओं के चयन में इस बार काफी सतर्कता बरती गयी. प्रायः उन श्रेष्ठ रचनाकारों का चयन किया गया, जो एक खास पैमाने में न आने के कारण ‘मीडियॉकर साहित्यकार’ की तख्ती लगा कर डाल पर लटका दिये जाते थे. यह साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का नया आयाम है, जिसकी ओर सबका ध्यान गया है.
इस बार के पुरस्कृत अधिकतर साहित्यकारों का वही स्वर है, जो रामदरश मिश्र जी के उद्गार में व्यक्त हुआ है- काफी देर से यह सम्मान मिला, लेकिन अच्छा लग रहा है. जिन लोगों ने अकादमी पुरस्कार लौटाया, वे तो पुरस्कार पाने के बाद भी सुर्खियों में रहे और लौटाने के बाद भी.
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