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16 दिसंबर विजय दिवस पर विशेष
1971 में भारत- पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में भारतीय सेना में झारखंड के कई वीर सपूत अपनी सेवा दे रहे थे़ झारखंड के इन वीरों में कई ने अपने प्राण की आहूति दे दी़ परमवीर चक्र विजेता शहीद अलबर्ट एक्का इनमें से एक थे़ उस युद्ध में अपने साहस और पराक्रम का परिचय देनेवाले […]
1971 में भारत- पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में भारतीय सेना में झारखंड के कई वीर सपूत अपनी सेवा दे रहे थे़ झारखंड के इन वीरों में कई ने अपने प्राण की आहूति दे दी़ परमवीर चक्र विजेता शहीद अलबर्ट एक्का इनमें से एक थे़ उस युद्ध में अपने साहस और पराक्रम का परिचय देनेवाले झारखंड के वीर नायकों से हमारे संवाददाता अजय दयाल ने बात की़ प्रस्तुत है उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी़
लाहौर को घेरने का रास्ता बनाया था
बिग्रेडियर
रवि कुमार
वीर चक्र विजेता
1971 की लड़ाई आज भी रोमांचित करती है़ लड़ाई को हमलोग वैटल ऑफ फतेहपुर (फतेहपुर की लड़ाई ) के नाम से याद करते है़ं उस समय मुझे इच्चुगिल कैनाल,अमृतसर लाहौर सेक्टर में 8 सिख लाइट इनफेंट्री की एक कंपनी के नेतृत्व का जिम्मा सौंपा गया था़ हमारे आर्म्ड बटालियन को रावी नदी की खास जगह को कब्जा कर इनफेंट्री और आरमर कालम के लिए रास्ता तैयार करने का टास्क दिया गया था, ताकि लाहौर सिटी को घेरा जा सके़ कदम-कदम पर बारूदी सुरंग बिछी थी, गोलियां और तोप के गोले चल रहे
थे़ लेकिन हमलोग नहीं
रुके़ घमसान लड़ाई हुई ,बटालियन को काफी नुकसान हुआ़ हमने अपना टास्क पूरा
किया़
इनफेंट्री और आरमर कालम रावी नदी से रास्ता बना कर गुजरने ही वाली थी कि दोनों देशों ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी़ इंडियन आर्मी व मुक्ति वाहनी सेना ने मिल कर पाकिस्तान को ध्वस्त किया था़ पूर्वी पाकिस्तान की सेना ने बिना लड़ाई लड़े भारतीय सेना के सामने सरेंडर कर दिया़ दुनिया के इतिहास में किसी भी लड़ाई में यह पहला मौका था, जब 92 हजार सेना जो लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के नेतृत्व में तैनात थी, बिना लड़े भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दी़ युद्ध विराम के बाद मुझे वीर चक्र देने की घोषणा हुई़
मेरी पूरी बटालियन गौरवान्वित महसूस कर रही थी, लेकिन हमने कई साथी खो दिये थे़ तीन दिसंबर से 15 दिसंबर तक चली इस लड़ाई में बटालियन के 171 जवानों में से मात्र 31 जवान ही बचे थे़ 140 जवान भारत माता की रक्षा करते हुए शहीद हो गये़ बचे हुए जवान जश्न भी नहीं मना पा रहे थे, क्योंकि उन्होंने अपने कई प्रिय साथी खो दिये थे़
वंजल पहाड़ी पर किया था कब्जा
कर्नल
एसके सिन्हा
थर्ड बिहार रेजिमेंट
युद्ध के दौरान हमारा रेजिमेंट जम्मू कश्मीर की लिपा घाटी, तंगधार सेक्टर में था़ वहां वंजल पहाड़ी पर बहुत बड़ा पिकेट बना हुआ था, हमें उस पर कब्जा करने का टास्क दिया गया था़
मेजर सूरज प्रकाश बक्सी के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट अाइएन झा, लेफ्टिनेंट एडी सिंह, नायक राजरूप भगत के साथ हमारी 150 की बटालियन वंजल पहाड़ी पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ी़ कदम-कदम पर बारूदी सुरंग बिछी थी़ दुश्मन लगातार गोलियां बरसा रहे थे़ फिर भी हमलोग आगे बढ़ते गये़ नायक राजरूप भगत दुश्मन के बंकर के पास पहुंच गये और जिस एलएमजी से गोलियों की
बौछार हो रही थी, उसे पकड़ लिया़ लेकिन गोलियां चलनी बंद नहीं हुई थी, उन्होंने अपने सीने पर गोलियां खायी और वहीं शहीद हो गये़
इस दौरान हमने बंकर को ध्वस्त कर दिया और सभी दुश्मन को मार गिराया़ तीन दिसंबर से यह लड़ाई शुरू हुई थी और 15 दिसंबर की रात हमने वंजल पहाड़ी पर कब्जा कर लिया़ पांच किलोमीटर के क्षेत्र में हमारा कब्जा हो गया़ बटालियन के 16 जवान
शहीद हो गये थे़
तीन अधिकारी गंभीर रूप से घायल हुए थे़ घायल अधिकारियों को कई गोलियां लगी थी़ उसी रात युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी थी़ लड़ाई में हमारे साथ 6,10 व 11 बिहार रेजिमेंट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी़ हमारे रेजिमेंट को बहुत से मैडल मिले थे़
लोग आरती उतार कर तिलक लगाते थे
मेजर महेंद्र प्रसाद
सेकेंड इन कमान
1965 में भारत-पाक युद्ध में सेना में था़ लेकिन 1971 के युद्ध के दौरान सीआरपीएफ की नयी 54 बटालियन का गठन हुआ था और उसमें मुझे ले लिया गया़ मुझे इसमें सेकेंड इन कमान बनाया गया था़ मेरे नेतृत्व में दो दिसंबर 1971 को बटालियन को श्रीनगर जाने का आदेश मिला़
एयर फोर्स के विशेष विमान से हमलोग तीन दिसंबर को जयपुर पहुंचे़ जयपुर एयरपोर्ट पर हमें रेडियो से सूचना मिली कि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोल दिया है़ एयरफाेर्स के सभी विमान व्यस्त हो गयी है़ं चार दिसंबर को 90 गाड़ियों का काफिला सड़क मार्ग से श्रीनगर के लिए रवाना हो गयी़ रास्ते में लोगों ने रोक-रोक कर सेना की आरती उतारी और तिलक लगा कर भारत माता की जय के नारा लगाये़
श्रीनगर में हमलोगों को सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया़ पाकिस्तानी बार्डर पर गोलियों व तोप के गोले की बौछार हो रही थी़ लेकिन हमलोग सीधे युद्ध में शामिल नहीं हुए़ इसी दौरान 15 दिसंबर को युद्ध विराम की घोषणा हो गयी़ इसके बाद हमलोग ग्वालियर चले गये़ वहां हमें पाकिस्तानी युद्ध बंदियों के कैंपों की निगरानी का जिम्मा सौंपा गया़ वहां छह हजार युद्ध बंदी थे, उसमें 300 अधिकारी थे़
उनलोगों ने बाल्टी व खुरपी से सुरंग बनाना शुरू कर दिया़ सुरक्षा के तीन लेयर को पार वे लोग सुरंग खोद रहे थे़ मिट्टी को क्यारी में डाल देते थे, ताकि पता नहीं चल सके़ हमलोगों ने उस सुरंग का पता लगा लिया और उसे नष्ट कर दिया़ इस कार्य के लिए हमारी बटालियन को पुरस्कृत किया गया़ पटना से सीआरपीएफ के आइजी के पद से सेवानिवृत हुए़ पुत्र सुमित प्रसाद भी इंडियन एयर फोर्स में विंग कमांडर हैं और दामाद टेरीटोरियल आर्मी में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर कार्यरत है़
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