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राजनय पर बोझ न बने बाहरी हस्तक्षेप
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की पाकिस्तान यात्रा की अचानक घोषणा से राजनयिक अटकलबाजी का एक नया दौर शुरू हो गया. लगता है निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा की जमीन तैयार की जा रही है. कांग्रेस का यह सवाल उठाना नाजायज नहीं लगता कि ऐसा क्या बदल […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की पाकिस्तान यात्रा की अचानक घोषणा से राजनयिक अटकलबाजी का एक नया दौर शुरू हो गया. लगता है निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा की जमीन तैयार की जा रही है. कांग्रेस का यह सवाल उठाना नाजायज नहीं लगता कि ऐसा क्या बदल गया है कि महीनों से अटका-भटका संवाद एक बार फिर से पटरी पर लाने की कोशिश जोर पकड़ रही है.
मोदी अौर भाजपा के कट्टर समर्थक भी यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि अभी हाल तक जो सरकार पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की बात करती थी, उसका रुख एकाएक नरम कैसे पड़ गया? क्या यह पहल अमेरिकी दबाव में हो रही है? क्या इसके बाद यह कल्पना की जा सकती है कि अब पाकिस्तान संतुष्ट होकर दहशतगर्दों पर लगाम लगाने को तत्पर होगा? कुछ ज्यादा दूर की कौड़ी लानेवाले मानते हैं कि अमेरिका का दबाव पाकिस्तान पर भी कम नहीं है. खासकर पेरिस घटना के बाद वह अकेला पड़ गया है. भारत के साथ सुलह की मुद्रा अपना कर वह अपने को आतंकवादी इसलामी राज्य का मददगार नहीं, बल्कि संयत आधुनिक मिजाज का राज्य दर्शा सकता है.
इधर, पत्रकार समझा रहे हैं कि रिश्तों में जमी बर्फ पिघलाने का जिम्मा सुषमा स्वराज को सौंपा गया है, क्योंकि वह पाकिस्तान में बेहद लोकप्रिय हैं. भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है. अतः वह पाकिस्तानी अवाम को रिझा सकती हैं. हमारी समझ में ये तमाम बातें बेकार हैं.
वास्तव में बिहार चुनावों के नतीजों ने जगजाहिर कर दिया है कि देश का अल्पसंख्यक मतदाता आंख मूंद कर सिर्फ मोदी के करिश्मे के असर में एनडीए को समर्थन देते रहने को तैयार नहीं है. चुनाव अभियान के दौरान अौर उसके बाद भी देश में बढ़ते ‘असहिष्णुता’ के माहौल को लेकर चिंता मुखर रही है.
यानी पाकिस्तान को अस्पृश्य करार देते रहना इस सरकार पर लगे संकीर्ण सांप्रदायिक मानसिकता के आरोप को अौर पुख्ता बना सकता है. इससे पहले भी कई सरकारें यह गलती कर चुकी हैं. यह गलतफहमी घातक है कि देश का मुसलमान पाकिस्तान के साथ हर कीमत पर बेहतर रिश्तों की हिमायत करता है. हकीकत यह है कि क्रिकेट का भ्रष्टाचारी व्यापार ही (अकेला काफी) ऐसा न्यस्त स्वार्थ है, जिससे जुड़ी तमाम हस्तियां दलगत राजनीतिक भेदभाव भुला कर भारत-पाक संबंधों में गतिरोध तोड़ने की जबर्दस्त हिमायत करते नहीं थकतीं.
यही एक विषय है, जिसमें कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला अौर भाजपा के अरुण जेटली या अब अनुराग ठाकुर एकराय हैं! यह कुतर्क पचाना कठिन है कि खेल को राजनीति से अलग रखना चाहिए. इन सबका मानना है कि यदि जनता के आपसी रिश्ते सामान्य रहते हैं, तो राजनीतिक विवादों का समाधान तलाशना सहज हो जाता है.
कड़वा सच यह है कि पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार संप्रभु या स्वाधीन नहीं समझी जा सकती. वहां के फौजी हुक्मरान अौर गुप्तचर संगठन ही यह तय करते हैं कि भारत के प्रति रवैया नर्म हो या सख्त. अब तक का इतिहास है कि जब कभी भारत ने एकतरफा पहल की है, पाकिस्तान ने उसे ठुकराया है.
जम्मू-कश्मीर में वास्तविक नियंत्रण रेखा के उल्लंघन, घुसपैठ या आतंकवादियों के हमलों में कोई कमी नहीं आयी है. हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठनों को प्रोत्साहित करने में कोई कसर पाकिस्तान नहीं छोड़ता. इसी का नतीजा है कि फारूक अब्दुल्ला जैसे लोग तक मायूस होकर अब यह सलाह देने लगे हैं कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को हम पाकिस्तान की ही मिल्कियत मान लें, यही यथार्थ है!
सुषमा स्वराज के दौरे के संदर्भ में जब यह पूछा गया कि क्या इस वार्ता में कश्मीर का मुद्दा भी शामिल किया जायेगा, तो भाजपा के प्रवक्ता अप्रस्तुत दिखे. इतना भर कह सके कि आतंकवाद के सिलसिले में ही कश्मीर का उल्लेख संभव है. जाहिर है, यह सोच पाकिस्तान का नहीं. भारत का सरदर्द सिर्फ कश्मीर विवाद नहीं, पाकिस्तान में चीन तथा अमेरिका के सामरिक हित यह कभी भी कबूल नहीं कर सकते कि भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते सुधरें. पिछले छह-सात दशक से भारत को असंतुलित रखने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल किया जाता रहा है.
बांग्लादेश के गठन अौर पाकिस्तान के विखंडन के लिए पाकिस्तान तो भारत को ही जिम्मेवार समझता है. जनरल जिया के शासनकाल से जिस तरह के इसलामी कट्टरपंथ ने पाकिस्तान में अपनी जड़ें फैलायी हैं, उससे वहां की नौजवान पीढ़ी का बड़ा तबका प्रभावित हुआ है. स्कूली पढ़ाई से ही भारत बैरी के रूप में पेश किया जाता है. सऊदी अरब पेट्रो डॉलरों के लालच ने वंचित अभावग्रस्त पाकिस्तािनयों को आधुनिक-वैज्ञानिक सोच से दूर रखा है. विभाजन अौर स्वाधीनता प्राप्ति के इतने बरस बाद भी पाकिस्तानी समाज सामंती मिजाजवाला अौर विषमता से ग्रस्त है.
इससे यह नतीजा न निकालें कि भारत हर हाल में उदार है या समता का पोषक है, पर जो अंतर बुनियादी है, वह जनतांत्रिक व्यवस्था अौर आकारजनित आत्मविश्वास का है. पिछले लोकसभा चुनावों में नाटकीय जीत के बाद भी मोदी सरकार का एकछत्र आधिपत्य देश के एक बड़े हिस्से पर नहीं है. तमिलनाडु, अोड़िशा, बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश और बिहार विपक्षियों द्वारा शासित राज्य हैं. देश में न केवल संघीय व्यवस्था ज्यादा कारगर है, बल्कि न्यायपालिका की सत्ता भी कार्यपालिका पर अंकुश लगाने में समर्थ है. विधायिका तक उसकी सक्रियता सेआशंकित रहती है! यानी, दो बिल्कुल विपरीत ध्रुवों का संगम सहज संभव नहीं लगता.
यह जोर देकर दोहराने की जरूरत है कि इसका अर्थ यह नहीं कि पाकिस्तान के साथ (सैनिक) मुठभेड़ ही एकमात्र विकल्प है. पर दूरदर्शी राजनय तभी सफल हो सकता है, जब वह किसी नाटकीय चमत्कारी उपलब्धि की मरीचिका में न फंसे.
यही भूल अटल बिहारी वाजपेयी से हुई थी. दशकों का गतिरोध तोड़ने में वह सफल तो हुए, पर इसकी बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ी. राष्ट्रहित का तकाजा है कि पाकिस्तान के विषय में भाव विह्वलता त्यागें, भयादोहन के आगे घुटने न टेकें, किसी भी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप को, चाहे वह कितना भी मैत्रीपूर्ण, सूक्ष्म या अप्रत्यक्ष क्यों न हो, अपने राजनय पर बोझ न बनने दें.यह न सोचें कि बिना पाकिस्तान से संबंधों को सामान्य किये भारत अपनी उदीयमान शक्ति प्रमाणित ही नहीं कर सकता.
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