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हमारे पाखंड तले उफनता आक्रोश

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा राज्यसभा में शोर-शराबे के बीच आज एक ऐसा विषय उठाने का मौका मिला, जो न केवल बेहद दर्दनाक है, बल्कि समता और समरसता के हमारे पाखंड को भी उजागर करता है. हुआ यह कि तमिलनाडु से वहां के सफाई कर्मचारियों के सबसे बड़े संगठन ‘डॉ आंबेडकर आदि आंध्रा स्केवेंजर्स लिबरेशन […]

तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
राज्यसभा में शोर-शराबे के बीच आज एक ऐसा विषय उठाने का मौका मिला, जो न केवल बेहद दर्दनाक है, बल्कि समता और समरसता के हमारे पाखंड को भी उजागर करता है. हुआ यह कि तमिलनाडु से वहां के सफाई कर्मचारियों के सबसे बड़े संगठन ‘डॉ आंबेडकर आदि आंध्रा स्केवेंजर्स लिबरेशन फोरम’ के अध्यक्ष एम पुगलेंदी मुझसे मिलने आये और कहने लगे कि उनके यहां ग्रामीण क्षेत्रों में घरों में मैला सफाई तथा झाड़ू लगाने का काम करनेवालों को 1200-1500 रुपये से लेकर 2000 रुपये मासिक तक वेतन मिलता है.
कृपया संसद में यह मांग उठाएं कि उन्हें 4000 रुपये वेतन मिले. मैं यह सुन कर हैरान रह गया. स्वच्छता अभियान का सबसे कारगर और महान शिल्पी यदि कोई है, तो वह सफाई कर्मचारी है. जाति के बोझ से दबे इस वर्ग ने सदियों से मैला ढोने और सफाई करने का काम किया है. वास्तव में यदि किसी को सफाई के लिए देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न देना हो, तो सफाई कर्मचारियों के समाज को यह सम्मान मिलना चाहिए.
पुगलेंदी का समाज इतना दबा और कुचला है कि वे अपने लिए कुछ बेहतर चाहने की मांग करते हुए भी सिकुड़े ही रहते हैं. दो हजार का वेतन चार हजार हो जाये, तो इतने में ही उनको जिंदगी का सुख मिल जायेगा. वे यह भी नहीं समझ सकते कि अगर दो हजार में जीवन यापन करना कठिन है, तो चार हजार में भी उतना ही कठिन है. आज सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक शाला के अध्यापक बीस-पच्चीस हजार रुपये लेकर चालीस हजार रुपये तक कमा रहे हैं.
सरकारी कार्यालयों में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी बीस हजार रुपये प्रतिमाह से अधिक कमा रहे हैं. लेकिन जो पीढ़ियों से देश को स्वच्छ रखने में अपना जीवन खपाते आ रहे हैं, उनके लिए पांच-दस हजार रुपया बढ़ाना भी हमें मुश्किल लगता है.
ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमारे मानस में भारतीय नागरिकों के प्रति सम्मान तथा मनुष्यता की गरिमा का भाव कमजोर है. वरना इन सफाई कर्मचारियों को अपना वेतन बढ़ाने के लिए मांग करने की आवश्यकता ही क्यों होनी चाहिए थी? वे जो बड़े-बड़े नेता हैं, अफसर हैं, तथा समाज सुधारक हैं, क्यों उन्हें नहीं मालूम कि उनके घर में जो सफाई कार्य करने आता है, वह कितनी गरीबी में रह रहा है? जिसको जितना अधिक वेतन मिलता है, वह उसे उतना ही अधिक बढ़ाने की कोशिश करता है. अगर वास्तव में हमारी आध्यात्मिकता की बोध में सच्चाई होती, तो मनुष्यता के स्तर से भी नीचे वेतनमान में गुजारा कर रहे लोगों के प्रति हमारी संवेदना जाग्रत न होती?
पुगलेंदी ने केवल चार हजार रुपये मासिक वेतन की मांग की. मैंने अपने राज्यसभा के विशेष उल्लेख में सफाई कर्मचारियों के न्यूनतम वेतन को बारह हजार रुपये करने की मांग की, लेकिन यह कहते हुए भी मुझे बेहद संकोच और आत्मग्लानि का बोध हुआ. क्या यह देश कभी अपने गरीब और पिछड़ों के प्रति बराबरी का हक देने की मानसिकता सच में जमीनी हकीकत में तब्दील कर पायेगा?
वास्तविकता यह है कि हमारे मन में दलितों के प्रति एक अजीब सा दुराव और दोहरापन छाया रहता है. हम उनके प्रति केवल शाब्दिक समर्थन का पाखंड करते हैं. संगठनों और राजनीतिक दलों में उनके प्रतिनिधित्व सिर्फ सजावटी ही रहते हैं. कहीं भी निर्णायक भूमिका में कहां देखा जाता है?
अनुसूचित जातियां और जनजातियां मिला कर 28 प्रतिशत जनसंख्या हो जाती है. लेकिन, मीिडया में आपने इस वर्ग से चैनल मालिकों की बात छोड़ दीजिए, संपादक, मुख्य समाचार संपादक और ब्यूरो चीफ या सामान्य संवाददाता स्तर के लोगों का कितना प्रतिनिधित्व देखा है? यदि आरक्षण न होता, तो सरकारी अधिकारियों में दलितों का जो प्रतिनिधित्व आज देखने को भी मिलता है, वह भी नहीं दिखता.
वास्तव में सामाजिक समरसता और असंतुलन को ठीक करने की दिशा में यदि सबसे बड़ा योगदान किसी एक अधिकार का रहा है, तो वह है दलितों को मिला आरक्षण का अधिकार. इस अधिकार के बिना हमारे समाज में व्याप्त पाखंड दलितों को इस स्तर तक भी उठने न देता.
उत्तराखंड में जौनसार बावर के क्षेत्र में दलितों की स्थिति आज भी बंधुआ मजदूरों जैसी है. पिछले महीने नवंबर में कालसी ब्लॉक के एक मंदिर में एक दलित परिवार को प्रवेश नहीं करने दिया गया. वे मंदिर में अपने होनेवाले बच्चे के लिए मन्नत मांगने गये थे. उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया. इतना ही नहीं, पुजारियों ने कहा कि उन्हें पांच हजार रुपये दंड देना होगा.
बड़ी मुश्किल से वे पांच सौ रुपये दंड देकर घर लौटे. जब मैं उनको लेकर उत्तराखंड के राज्यपाल से मिला, तो वे भी अचंभित रह गये. मैंने मांग की कि ऐसे पुजारियों को मंदिर में पूजा करने के अधिकार से वंचित कर देना चाहिए तथा उन्हीं पुजारियों से इस दलित परिवार को उनसे वसूले गये दंड की दस गुना राशि वापस दिलवानी चाहिए. देखें इस विषय में क्या होता है, लेकिन दलितों के साथ न्याय होगा, ऐसी बहुत कम लोगों को आशा होती है.
कर्नाटक के कोलार जिले में सरकारी विद्यालय में मध्याह्न भोजन के लिए जब राधम्मा की नियुक्ति हुई, तो वहां पर पढ़नेवाले 118 बच्चों में से 100 ने स्कूल छोड़ दिया. कारण क्या था? कारण सिर्फ यह था कि राधम्मा दलित परिवार से थी और उसके हाथ के स्पर्श से जो भोजन दिया जाता, वह बाकी लोगों को स्वीकार्य नहीं था. क्या इससे बढ़ कर ईश्वर के प्रति अपराध कुछ और हो सकता है?
देवताओं की पूजा करना और मनुष्य देह में बसे देवता का अपमान करना यह हमारे समाज पर सबसे बड़ा कलंक नहीं तो और क्या है? संयोग था जिस दिन भैय्या दूज का पर्व मनाया जा रहा था, उस दिन मैं राधम्मा के घर पहुंचा और जब मैंने उससे टीका कराने की इच्छा व्यक्त की, तो उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े. उसके भी कोई भाई नहीं था. मेरा सौभाग्य है कि मुझे राधम्मा जैसी बहन मिली, लेकिन अपने समाज के दलितों के प्रति भयानक बर्ताव पर मन में आक्रोश भी पैदा हुआ.इस पाखंड तले देश के बहुत बड़े वर्ग के मन में उफन रहे आक्रोश को यदि नहीं पहचाना गया, तो भयानक विद्रोह हो सकता है.

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