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नेपाल सीमा में प्रवेश के लिए नक्सलबाड़ी से पानीटंकी तक ट्रकों की कतार,फंसे ट्रक ड्राइवरों के समक्ष खाने-पीने के पड़े लाले

प्रभात खबर टोली सिलीगुड़ी शहर से पश्चिम की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31सी के दोनों किनारों पर सड़क चौड़ीकरण का काम चल रहा है. दो-लेन सड़क को चार-लेन किया जा रहा है. यह सड़क भारत-नेपाल सीमा तक जाती है जहां दोनों देश मेची नदी से विभाजित हैं. नदी के उस पार नेपाल का कांकड़भिट्टा (जिला […]

प्रभात खबर टोली
सिलीगुड़ी शहर से पश्चिम की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31सी के दोनों किनारों पर सड़क चौड़ीकरण का काम चल रहा है. दो-लेन सड़क को चार-लेन किया जा रहा है. यह सड़क भारत-नेपाल सीमा तक जाती है जहां दोनों देश मेची नदी से विभाजित हैं. नदी के उस पार नेपाल का कांकड़भिट्टा (जिला झापा) है और इस पार भारत का पानीटंकी (जिला दार्जिलिंग). ऐसे तो भारत-नेपाल के बीच अनेक प्रवेश द्वार हैं, लेकिन जिस सीमाई द्वार की बात हम यहां कर रहे हैं उसकी एक अलग खासियत है. काकड़भिट्टा से भारत-बांग्लादेश सीमा (फूलबाड़ी, जो सिलीगुड़ी से 11 किलोमीटर दूर दक्षिण में जलपाईगुड़ी जिले में है) की दूरी महज 42 किलोमीटर है. शायद यही वो जगह है जहां से नेपाल और बांग्लादेश सबसे नजदीक हैं.

नेपाल और बांग्लादेश के बीच सड़क मार्ग से संपर्क बेहतर हो सके, उनके बीच व्यापार फले-फूले, इसी के लिए भारत सरकार एनएच 31सी को फोर-लेन कर रही है. इसे विडंबना ही कहेंगे कि भारत एक तरफ नेपाल और बांग्लादेश के बीच दूरियों को कम करने में लगा है, लेकिन उसकी खुद की दूरी नेपाल के साथ बढ़ रही है. हरे-भरे चाय बागानों और दूर पहाड़ों के नजारों के बीच से, एनएच 31सी पर आगे बढ़ते हुए जैसे ही हमने नक्सलबाड़ी को बाइपास के जरिये पार किया, ट्रकों की कतार कहीं सड़क के एक किनारे, तो कहीं दोनों किनारों पर नजर आने लगी. यह वही नक्सलबाड़ी है जो भारतीय वाम आंदोलन में एक आइकॉन की तरह है. इसे संयोग समझिए या फिर भारत-नेपाल के बहुआयामी रिश्तों का नतीजा, उस पार का झापा भी नेपाली माओवादी आंदोलन में नक्सलबाड़ी की हैसियत रखता है.

ट्रकों की यह कतार हमारे साथ पानीटंकी पहुंचने तक चलती रही. लगभग 6 किलोमीटर दूर तक. रानीगंज पानीशाला ग्राम पंचायत का एक बाजार है पानीटंकी. किसी आम ग्रामीण बाजार की तरह. बाजार में घुसते ही एक चीज ने ध्यान खींचा. यहां जरीकेन, पीपे, ड्रम, गैलन वगैरह का इतनी बड़ी तादाद में दुकानों में सजा होना गैरमामूली लग रहा था. आखिर इनकी इतनी बिक्री क्यों? लेकिन कुछ ही देर में इस सवाल का जवाब खुद-ब-खुद मिल गया. पैदल, साइकिल, मोटरसाइकिल, रिक्शा से नेपाल जा रहे हर तीसरे या चौथे आदमी के पास झोलों में दो से चार जरीकेन जरूर थे. इसमें वे डीजल-पेट्रोल ले जा रहे थे. बहुत से लोग मैदा, दालें व किराना का सामान भी ले जा रहे थे.

पुल पार करके हम भी नेपाल पहुंचे. कांकड़भिट्टा की एक छोटी सी दुकान पर खाना खाते व चाय पीते हुए हमने वहां मौजूद लोगों से बातचीत करना चाहा. लेकिन हमारे बीच एक संदेह की दीवार खड़ी दिखी. ऐसा हमारे भारतीय होने की वजह से था या फिर किसी अन्य कारण से, मालूम नहीं. हम सवाल करते रहे और वे बेहद संक्षिप्त व टालू जवाब देते रहे. हमने पूछा- भारत की तरफ से ट्रक क्यों नहीं आ रहे? उन्होंने जवाब दिया- मालूम नहीं. हमने कहा- सुनने में आ रहा है कि मधेशी लोग ट्रकों को घुसने नहीं दे रहे हैं. उन्होंने कहा- यहां तो कोई मधेशी आंदोलन नहीं चल रहा है. काफी पहले कुछ ट्रकों पर पत्थर चलाये जाने की घटनाएं हुई थीं, लेकिन अब तो ऐसा कुछ नहीं है. बल्कि लोग ट्रकों का इंतजार कर रहे हैं.

हमने पूछा- सुना है कि यहां तेल और गैस की बहुत किल्लत चल रही है, ब्लैक में कई गुना दाम पर खरीदना पड़ रहा है? गैस पर चाय बना रही महिला दुकानदार ने जवाब दिया- हम लोग ये सब तेल नहीं लेते. गैस जब नहीं मिलती, तो नहीं मिलती. लेकिन जब मिलती है, तो लगभग डेढ़ हजार नेपाली रुपये में मिलती है जो कि इसका सही दाम है. वहां से चंद कदमों की दूरी पर सड़क किनारे एक महिला दो जरीकेन में तेल लेकर बैठी थी. हमने उससे सीधा सवाल किया कि कितने में खरीदा है और कितने में बेच रही है. उसने भी बेहिचक जवाब दिया उधर से (भारत से) 52 रुपये लीटर लाये हैं और इधर 150 रुपये में बेच रहे हैं.


आधा किलोमीटर से ज्यादा लंबे मेची पुल पर आते-जाते हुए हमें मुश्किल से दो ट्रक गुजरते हुए नजर आये. एक पर नेपाली नंबर प्लेट थी, तो दूसरे पर नोटिस चिपका था कि यह ट्रक बांग्लादेश से नेपाल जा रहा है. जब हम वापस भारतीय क्षेत्र में आये, तो एक दृश्य ने हमें रोक लिया. पुल के मुहाने पर, एसएसबी का जवान हाथ में छड़ी लेकर उन महिलाओं को डांट-डपट कर रोकने की कोशिश कर रहा था, जो नेपाल की ओर तेल ले जाना चाह रही थीं.

ये महिलाएं पीठ पर तेल के जरीकेन को शॉल या चादर में लपेट कर उसी तरह बांधे हुई थीं जैसे आदिवासी औरतें पीठ पर बच्चों को बांधती हैं. एक तरफ चाय बागान में भुखमरी, तो दूसरी तरफ तेल से मोटी कमाई का लालच. इसने चाय बागान इलाके की महिलाओं को उस पार डीजल-पेट्रोल ले जाकर बेचने के लिए आकर्षित किया है. एसएसबी जवान धमकाता रहा और वे जाने की मनुहार करती रहीं. बगल से रास्ता है जिससे नीचे उतरकर छिछली मेची नदी को पैदल पार किया जा सकता है और बड़ी संख्या में लोग ऐसा करके तेल ले भी जा रहे हैं. लेकिन इसके लिए थोड़ा ज्यादा चलना पड़ता है.

नेपाल सीमा में प्रवेश के लिए इंतजार में खड़े ट्रकों के कुछ ड्राइवरों से हमने बातचीत की. इनमें से कई तो लगभग महीनेभर से यहीं अटके हुए हैं. कुछ इतना ऊब चुके हैं कि किसी से बातचीत तक नहीं करना चाहते. असम के नंबरवाले एक ट्रक के ड्राइवर ने बताया कि वह यहां बीते 22 दिनों से है. उसके ट्रक पर सीमेंट निर्माण में इस्तेमाल होनेवाला कच्चा माल लदा है. असम के ही एक अन्य ट्रक ड्राइवर ने बताया कि वह कोयला लेकर नेपाल जा रहा है. नेपाल में कब प्रवेश मिलेगा, इसे लेकर उम्मीद खो चुका है. उसने बताया कि खाने के पैसे तक खत्म हो गये थे, कुछ दिन पहले ट्रक मालिक ने आकर पैसा दिया तब जाकर कुछ राहत मिली. ट्रक नेपाल क्यों नहीं जा पा रहे रहे हैं, इस बारे में उसने कुछ ठोस जानकारी न होने की बात कही. उसने बस इतना बताया कि दिनभर में भारत की ओर से उधर कुछ ही ट्रक जा पा रहे हैं, जबकि इंतजार में सैकड़ों ट्रक खड़े हैं.
सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के एक अधिकारी से जब इस बारे में बात की गयी, तो उन्होंने नाम नहीं छापने की शर्त रखी. हमने इसे मान लिया, फिर उन्होंने गोलमोल जवाब ही दिया. उन्होंने कहा कि एसएसबी की नजर में तेल उस पर ले जाने की बात नहीं है, आपने बताया है, तो हम इस पर ध्यान देंगे. ट्रक के उस पर न जाने के सवाल पर भी उनका जवाब कूटनीतिक रहा. उन्होंने कहा कि परिस्थिति देखकर ट्रकों को रवाना किया जा रहा है.

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