12.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आलोचना का ‘आलूचना’ भाव

प्रभात रंजन कथाकार हाल में ही मुजफ्फरपुर गया, तो एक बुजुर्ग लेखक से बातचीत होने लगी. कहने लगे, अच्छे-बुरे का फर्क मिटता जा रहा है. अब समझना मुश्किल है कि कौन-सी किताब अच्छी है, कौन खराब, किसको पढ़ना चाहिए, किसको नहीं? कुछो नहीं बुझाता है आजकल. ‘यह साहित्य के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हाल में ही मुजफ्फरपुर गया, तो एक बुजुर्ग लेखक से बातचीत होने लगी. कहने लगे, अच्छे-बुरे का फर्क मिटता जा रहा है. अब समझना मुश्किल है कि कौन-सी किताब अच्छी है, कौन खराब, किसको पढ़ना चाहिए, किसको नहीं? कुछो नहीं बुझाता है आजकल.

‘यह साहित्य के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है’- अपनी बात को कुछ दार्शनिक अंदाज में लपेटते हुए वे बोले.आम तौर पर उनकी बातों से मैं कभी सहमत नहीं हुआ था. लेकिन, उस दिन लगा कि उन्होंने बात-बात में एक बात कह दी है, हिंदी के सबसे बड़े समकालीन संकट की तरफ इशारा कर दिया है. हिंदी में जबकि यह गद्य की नयी-नयी विधाओं को आजमाये जाने का दौर है.

कहानी, उपन्यास विधाओं के रूपों के बदलते जाने का दौर है. लेकिन यही वह दौर भी है, जब आलोचना की विधा में किसी तरह का नयापन नहीं दिखाई दे रहा है. नयी-नयी शैली रचनाओं के मूल्यांकन को लेकर किसी तरह का आलोचना-विवेक विकसित नहीं हो रहा है.

नये-नये आलोचक पुरानी रचनाओं के नये पाठों में अधिक मुब्तिला दिखाई देते हैं. वे लीक से नहीं हट पा रहे, जबकि रचनात्मक साहित्य कब का लीक छोड़ चुका है, जिसके कारण आलोचक से अधिक पाठकों की राय केंद्र में आ रही है. आलोचना की सत्ता कमजोर पड़ती जा रही है. मुझे ऐसा लगा कि वह लेखक महोदय यही कहना चाहते रहे हों शायद.

यह सचमुच में साहित्य का जनतांत्रिक युग है. यह हिंदी साहित्य का पहला ऐसा काल है, जिसमें तथाकथित ‘जनवाद’ का वैसा आतंक नहीं है, न ही किसी अलां-फलां आलोचक की सम्मति का कोई खास महत्व रह गया है. यह वह दौर भी है, जिसमें किसी पत्रिका या संपादक का वह जलवा भी नहीं है, जो लेखकों को मांजने-गढ़ने का काम करते थे. आज लेखक अपनी रचना की ताकत के बल पर और अपनी रचनात्मक सूझ के बल पर पहचाना जा रहा है.

यह एक तरह से अच्छा भी है और बुरा भी. अच्छा इसलिए कि आज जो पाठक हैं, वे अच्छे-बुरे का निर्णय खुद कर पाने में सक्षम हो गये हैं. उनको इसके लिए किसी माध्यम की जरूरत महसूस नहीं होती है. बुरा इसलिए, क्योंकि समकालीन पाठकों को किसी रचना के बैकग्राउंड से भी कई बार परिचित करवाने की जरूरत होती है, यह बताने की कि किसी रचना का महत्व किस संदर्भ में है.

दुख होता है, लेकिन यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में आलोचना की ऐसी कोई पुस्तक नहीं आयी है, जिसको भविष्य की आलोचना का संकेतक माना जा सके. हिंदी में रचनात्मक विधाएं भविष्योन्मुख हैं, लेकिन आलोचना आज भी अतीतजीवी बनी हुई है. मुझे याद आता है, मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में खलीक भाई नामक पात्र आलोचना का मजाक उड़ाते हुए उसे ‘आलूचना’ की संज्ञा देते हैं.

सच में आज आलोचना विधा हिंदी विभागों के अध्यापकों के लिए ‘आलूचना’ बन कर ही रह गयी है, जो उनके प्रमोशन के लिए अंक जुटाने के काम आती है. आलोचना के भविष्य के लिए उसका ‘आलूचना’ भाव से मुक्त होना बहुत जरूरी है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें