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वह मानव संकल्प और पौरुष, जो भारत में नहीं है

दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों को घूमने-देखने के बाद उभरे तथ्य हरिवंश विफलता नहीं, सपनों और संकल्पों का न होना अपराध है : एक कहावत काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए विद्यार्थी आंदोलनों में हम सब नारे लगाते थे, खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदवीर से पहले, खुद खुदा बंदे से पूछे […]

दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों को घूमने-देखने के बाद उभरे तथ्य
हरिवंश
विफलता नहीं, सपनों और संकल्पों का न होना अपराध है : एक कहावत काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए विद्यार्थी आंदोलनों में हम सब नारे लगाते थे, खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदवीर से पहले, खुद खुदा बंदे से पूछे बता तेरी रजा क्या है? पर ये नारे हमने लगाये, घेराव, प्रदर्शन, तोड़-फोड़ के लिए. उकसाने, उग्र होने यानी कुल मिला कर एक नकारात्मक मानस बनाने के लिए. यही काम पूरे देश में हुआ. न सृजन के सपने जगे और न संकल्प का मानस. इस नारे का मर्म समझ में आया, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को देखने के बाद. मनुष्य का इरादा, संकल्प, सृजन क्षमता क्या है? 15 अगस्त 1947 को (आधी रात) पंडित नेहरू द्वारा कही नयी उक्ति निर्यात से मुठभेड़ की सार्थकता समझ में आयी. बहुत कम समय में कुछ देशों ने अपनी तकदीर बदल ली. भाग्य की कोरी किताब पर कर्म, श्रम, संकल्प और बुलंद इरादे से नयी इबारत लिखी.
देर रात सिंगापुर एयरलाइंस से हांगकांग जाते हुए, मुझे याद आया एक सिंगापुरी इंजीनियर. वह जुरांग टाउन कॉरपोरेशन के संबंध में बता रहा था, उसने ताजा प्रसंग सुनाया. केमिकल उद्योग के लिए जुरांग आइसलैंड का निर्माण. सपना यह था कि 2030 तक समुद्र की खाड़ी से 3000 एकड़ जमीन निकाल कर इसे आबाद किया जाये. ताकि यहां दुनिया की सभी मशहूर केमिकल कंपनियों का बसेरा हो. 1990-91 से इस पर चर्चा शुरू हुई. 30-40 वर्ष आगे की योजना बनी. एक तरह से तब यह असंभव लगा. समुद्र से 3000 एकड़ जमीन निकाल कर डेवलप करना! एक बार यह सपना राष्ट्रीय संकल्प बन गया, तो तय हुआ कि इतना समय क्यों? पेट्रोलियम, पेट्रोकेमिकल्स और केमिकल्स की दुनिया की सबसे बड़ी और सर्वश्रेष्ठ 60 कंपनियां आयीं. उन्होंने इच्छा प्रकट की, यह काम जल्द हो. दिन-रात सिंगापुरी लग गये. भूख-प्यास और चिंता से मुक्त होकर. 24 घंटे काम होने लगा. जैसे अपना काम हो. देश और निजी देह (अपना) का फर्क मिट गया, जो काम 35-40 वर्षों में होना था, उसे चार-पांच वर्षों में पूरा कर लिया. समुद्र के बीच केमिकल कंपनियों का दुनिया का सबसे बड़ा इंडस्ट्रियल स्टेट (21 विलियन डॉलर निवेश हुआ) 14 अक्तूबर 2000 को इसे देश को समर्पित किया गया. दुनिया के स्तर पर यह एक असाधारण उपलब्धि है. यह सुनाते हुए उस सिंगापुरी इंजीनियर के चेहरे पर जो गौरव, उपलब्धि बोध, इतिहास की धारा पलट देने जैसी आभा थी वह मेरी स्मृति में टंक गया है. और ऐसी अनेक गौरवमय उपलब्धियां हैं. सिंगापुर से देर रात उड़ते हुए, जब साथी सो रहे थे, खिड़की से विराट आसमान के तारों को निहारते हुए अनेक सवाल मुझे कुरेद रहे थे. हमारे यहां पहली पंचवर्षीय योजना की कई चीजें आज भी अधूरी हैं. हमारे लाखों करोड़ रुपये ऐसी योजनाओं में शुरू हुई, पर अधूरी रहीं. एक अर्थशास्त्री के अनुसार ऐसे डेड एसेट (बेकार परिसंपत्ति) का मूल्यांकन हो, तो पता चलेगा कि एक पंचवर्षीय योजना की पूरी राशि फंसी हुई है. एक साहूकार-बैंकर से जब कोई उधार पूंजी लाता है, तो जल्द से जल्द उस निवेश से कमाना चाहता है. कर्ज लौटाने, ब्याज चुकाने और लाभ कमाने के लिए. हमने कर्ज लेकर अनेक परियोजनाएं शुरू कीं. पर वे पूरी ही नहीं हुई. झारखंड में ही अनेक परियोजनाएं हैं. स्वर्णरेखा नहर से लेकर विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं तक में एक की जगह दस लग गये. पर रिटर्न कुछ नहीं. अफसर, नेता, ठेकेदार लूट ले गये. देश और जनता कर्जदार हो गयी. एक-एक आदमी पर छह-छह हजार का विदेशी कर्ज है. भला इस आपराधिक रास्ते से कोई मुल्क चलता है? वह भी गरीब मुल्क और आश्चर्य कि देश में इन सवालों पर सब खामोश हैं.
देश बदलने का मानस अलग होता है? यह समझने का मौका मिला, चीन की धरती पर पांव रखते ही. सेनजेंन का मशहूर साम्रीलां होटल. लॉबी में मिला, 18-20 वर्षों का युवा बिल्कुल गौरवर्ण का चीनी युव़क टूटी-फूटी अंगरेजी में पूछा, हाय फ्राम इंडो (यानी इंडिया से आये हो). एक साथी ने जिज्ञासा की, यू नो इंडिया (तुम भारत को जानते हो). उसका जवाब था येस नंबर वन इन आइटी )हां, जो सूचना तकनीक में दुनिया में नंबर एक है). फिर बिना रुके उसने बताया बट वी विल अलसो वी नंबर वन इन आइटी बेरी सून (पर हम चीनी भी बहुत जल्द आइटी में नंबर एक हो जायेंगे). हम सब हतप्रभ थे, जिस मुल्क के एक होटल में काम करनेवाले युवा का यह मानस हो, उसे आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?
एक साथी ने दक्षिण कोरिया का प्रसंग सुनाया. 1968 में कोरिया में स्टील कारखाना बैठाने की योजना बनी. विश्व बैंक से ऋण मांगा गया. विश्व बैंक के अफसर ने उस प्रस्ताव को अनबायवुल (अव्यवावहारिक) कह कर खारिज कर दिया. पर कोरियाई हार नहीं माने. उन्होंने इधर-उधर से ऋण का जुगाड़ किया. कोरिया के छोटे शहर, जो मछलियों के कारोबार के लिए मशहूर था, वहां यह लगा. रेतीला जमीन पर पोहांग आयरन एंड स्टील कंपनी (पोसको) बनी. 20 वर्षों में ही यह दुनिया की तीसरी बड़ी स्टील उत्पादक कंपनी बन गयी. पोसको स्टील मिल की दूसरी इकाई जनवरी 1991 में चालू हो रही थी, तो प्रबंधन ने विश्व बैंक के उसी अफसर को इस समारोह में न्योता, जो 20 वर्षों पहले इस कारखाने-परियोजना को अनवायबल व अनइकोनामिकल मान चुका था. तब तक विश्व बैंक के वह अफसर, उसी बैंक में बड़े पद पर पहुंच गये थे. वह आये, पोस्को स्टील प्लांट को देखा. लौट कर अपना अनुभव लिखा. 1992 में हावर्ड बिजनेस स्कूल पत्रिका में यह छपा. 1968 में विश्व बैंक के इसी बड़े अफसर ने इस कारखाने को ऋण देने से मना किया था. 1992 में उस व्यक्ति की राय थी.
संक्षेप में, मैं स्तब्ध हूं. पोस्को (स्टील प्लांट) की सफलता विश्व स्टील उद्योग को सीखने के लिए की पाठ प्रस्तुत करता है. मैं नहीं मानता कि 1968 का मेरा फैसला (ऋण न देने का) गलत था, बल्कि कोरिया ने करिश्मा-चमत्कार किया. तब कोरियाई अर्थव्यवस्था कि हालत इतनी खराब थी कि उस गरीबी हालत में पोस्को जैसा स्टील प्लांट बनाना असंभव था. इसी कारण तब मैंने अपनी फाइनल रिपोर्ट में कहा था कि स्टील मिल खोलना गलत निवेश होगा.
मैं आज भी मानता हूं कि तब मेरा अंतिम अनुमोदन (नामंजूरी) सही था. मैं सिर्फ एक बड़ी बात नजरंदाज कर गया कि चेयरमैन पार्क और उनके कर्मचारी असंभव को संभव बना सकते हैं?
सचमुच असंभव को संभव बनाना यह कौम जानती है. 1994 का एक प्रसंग याद आया. कोरियाई अर्थव्यवस्था उफान पर थी. अमेरिकी बाजार, कोरियाई चीजों से आतंकित थे. तब विश्व प्रसिद्ध पत्रिका द इकानॉमिस्ट ने कोरिया की इस सफलता पर सर्वे कराया. द इकानॉमिस्ट का पत्रकार एक माह कोरिया में रहा, जिस दिन उसे लंदन लौटना था, वह सियोल के एक कारखाने में गया. कारखाने के मजदूरों के साथ बैठक में उसने अपनी यात्रा का मकसद बताया. कोरिया की सफलता का राज जानना.
उस पत्रकार ने लौट कर लिखा कि महीने भर वह कोरिया घूमा. अत्यंत अनुशासित, प्रतिबद्ध और राष्ट्रीयता में डूबी काम से संवाद भी हुआ. पर आमतौर से लोग खामोश व कर्मठ दिखे. लेकिन कोरिया की उस यात्रा के अंतिम दिन सियोल के उस कारखाने में एक मजदूर पूछ बैठा द इकानॉमिस्ट का पत्रकार थोड़ा स्तब्ध था कि आमतौर से मौन रह कर काम करनेवाली कौम प्रतिनिधि क्या पूछना चाहता है. उस मजदूर का सवाल था कि आप महीने भर से कोरिया की सफलता के कारण ढूंढ-पता कर रहे हैं. आपने अमेरिका, यूरोप व दुनिया देखी है. मुझे बताइए कि मेरा देश (कोरिया) अमेरिका को पछाड़ पायेगा या नहीं?
द इकानॉमिस्ट के पत्रकार ने क्या जवाब दिया, यह स्मरण नहीं, पर उसने लिखा कि कोरिया छोड़ने के अंतिम दिन इस सवाल ने मुझे कोरियाई सफलता का मंत्र समझा दिया. इस प्रसंगों को पढ़ते-जानते हुए अक्सर मुझे आत्मग्लानि होती है, जब हम अपढ़, गरीब और अविकसित थे, तब एक मामूलीकाया के इंसान ने धरती के उस साम्राज्य को झुका दिया, जिनके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था. आज हम इतने अकर्मण्य, कापुरुष, कमजोर, आत्मसम्मान विहीन और अनैतिक कैसे हो गये?
इस वर्ष के आरंभ में चीन के पीपुल्स कांग्रेस के चेयरमैन लीपेंग भारत आये थे. यह देखने कि भारत आइटी में कैसे इतना आगे निकल गया? भारत की शिक्षा पद्धति क्या है? ली पेंग बेंगलुरु भी गये, चीन लौट कर ली पेंग ने एक माह के अंदर चीन सरकार को एक रपट दी. भारतीय शिक्षा पद्धति के बारे में. भारतीयों के अंगरेजी ज्ञान के बारे में. एक माह के अंदर चीन की सरकार ने इस रिपोर्ट पर अमल किया. शिक्षा पद्धति को बदलने की शुरुआत व अंगरेजी की पढ़ाई तेज करने का अभियान, ताकि भारत से चीन आगे निकल सके.
समयबद्ध संकल्प यह दृढ़ता व प्रतिबद्धता, भारत में कहा है? मलयेशिया में भी यही चरित्र है. हरियाणा के बराबर आबादी. लगभग आठ फीसदी भारतीय मूल के लोग. वहां के प्रधानमंत्री महातीर मोहम्मद के दादा केरल से गये थे, पर अब वह अपनी भारतीय पहचान छुपाते-नकारते हैं. 1990 में प्रधानमंत्री बीपी सिंह कॉमनवेल्थ बैठक में क्वालाउंपुर गये. बैठक के बाद श्री सिंह ने अपनी टीम से कहा कि मलयेश्यिा की प्रगति से वह स्तब्ध हैं. 1974 में वाणिज्य उपमंत्री की हैसियत से वीपी सिंह पहली बार मलयेशिया गये थे. पहले मलयेशिया टीन, पाम ऑयल व रबड़ उत्पादक मुल्क था. अब वह इलेक्ट्रॉनिक चीजों का भारी निर्यात करता है. कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस का उत्पादक भी. इन क्षेत्रों में भारी विदेशी पूंजी यहां आयी. पर मलयेशिया की शत्तों पर. वीपी सिंह ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया से मलयेशिया की आर्थिक सफलता पर नोट तैयार करने को कहा. वीपी सिंह को मालूम नहीं था कि 70 के दशक में भारत के दो मशहूर अर्थशास्त्रियों मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सुरेश तेंदुलकर ने ही मलयेशिया को विकास के रास्ते बताये थे. विश्व बैंक की टीम के सदस्य के तौर पर. वीपी सिंह के कहने पर अहलूवालिया ने भारत के विकास के लिए भी नोट बनाये. प्रेस में इसे 1990 में एसम (मोंटेक) डाक्यूमेंट कहा गया. यह उदारीकरण का ब्लू प्रिंट था. कम लोग जानते हैं कि 1991 के आर्थिक उदारीकरण को इसी ब्लूप्रिंट से ऊर्जा-प्रेरणा मिली. दक्षिण पूर्व एशिया के आर्थिक संकट से निपटने के लिए देशज तरीके ढूंढे. बाद में पाल कुर्गमैन जैसे अर्थशास्त्री ने उनकी प्रशंसा की.
ऐसे असंख्य प्रसंग हैं. चीन की धरती पर पहली रात ऐसे अनेक तथ्य याद आये, जिस चीन के इतिहास, अतीत और संघर्ष ने हमेशा प्रेरित किया, उसी चीन की धरती पर पहली रात हमें भारत के वर्तमान स्मरण ने उदास बना दिया.

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