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बदलती दुनिया के कुछ दृश्य !

-सोल से लौट कर हरिवंश- सुबह के पांच बजे हैं. नींद खुल जाती है. अपनी घड़ी पर नजर जाती है. भारत में रात के डेढ़ बज रहे होंगे. उठ कर खिड़की से बाहर नजर डालता हूं. आसमान में चांद चमक रहा है. लंदन के विश्व हिंदी सम्मेलन (1999) में वेबली के शानदार भव्य हाल में […]

-सोल से लौट कर हरिवंश-

सुबह के पांच बजे हैं. नींद खुल जाती है. अपनी घड़ी पर नजर जाती है. भारत में रात के डेढ़ बज रहे होंगे. उठ कर खिड़की से बाहर नजर डालता हूं. आसमान में चांद चमक रहा है. लंदन के विश्व हिंदी सम्मेलन (1999) में वेबली के शानदार भव्य हाल में जगजीत सिंह को गाते सुना था ‘मेरे देश में निकला होगा चांद.’ सुदूर इस अनजान जगह में गांव की याद आती है, जहां खुले आसमान में, चांद और तारों को देखा. हर मौसम में आसमान के अलग-अलग रूप. बिजली की अनुपस्थिति में प्रकृति का सान्निध्य. जहां आधुनिक ‘रोशनी’ (बिजली) है, वहां प्रकृति नहीं.

पहाड़ों, जंगलों, नदियों और समुद्र के किनारे का आकाश, चांद, सितारे, बिल्कुल अलग छाप छोड़ते हैं. वहीं चांद कोरिया में देख रहा हूं. यही प्रकृति का विराट स्वरूप है. ब्रह्मांड है. सोल, तड़के सुबह देख रहा हूं. दूर चारों तरफ पहाड़ हैं. पहाड़ के बीचोंबीच बड़ी-बड़ी भव्य बिल्डिगें. हांगकांग-न्यूयार्क की तरह. होटल की 11वीं मंजिल पर हूं. होटल से ठीक लगे, एक पहाड़ी है. पेड़ों से आच्छादित. बीचोंबीच शहर में. पिछले दिन शाम में वहां गया. पाया कोई ऐतिहासिक भवन है. बहुत पुराना निर्माण है. अत्यंत संजो कर रखा है. सुंदर पेड़ों के बीच. रख रखाव सुंदर है. ऐतिहासिक स्थलों और अतीत के धरोहरों के प्रति पश्चिम में भी सजगता है.

पूरब के जो देश संपन्न हो रहे हैं, उनमें भी. खिड़की खोलता हूं. समुद्र की लहरों जैसी आवाजें आती हैं. तीन वर्षों पहले गोवा किनारे समुद्र के पास होटल में था. खिड़की खोलें, समुद्र की लहरों का गर्जन, सुनें-देखें. यहां आवाजें लहरों की नहीं, भव्य सड़कों पर तेज भागती गाड़ियों की आ रही हैं. पश्चिम विकास-संस्कृति का दर्शन दुनिया में पसर गया है. ओरिएंटल ईस्ट में भी. इसलिए इस आधुनिक विकास के साथ ही भाग-दौड़, शोर जुड़ा है. भारत के बड़े नगरों मुंबई वगैरह में भी ऐसा ही है. जीने के लिए दौड़ना है, सुबह चाकरी के लिए भागना है, रहने के लिए भी, लौटने के लिए भी.

यह कैसी दुनिया है. जहां शांति से जीने के लिए भी दौड़ना है.दो दिनों से नितांत अकेले हूं. परदेस में. हजारों-हजार किमी दूर. नितांत अजनबी परिवेश. याद नहीं, ऐसा अकेलापन पीछे कब मिला था. आत्मीय दूर. बंधु-बांधव दूर. परिचित भी नहीं. इससे पहले जब भी विदेश जाना हुआ. कोई-न-कोई परिचित साथ था. 1995 में अमेरिका गया. फ्रैंकफर्ट होकर. हम पांच लोग साथ थे. लौटा ब्रिटेन होकर, अकेले. पर ब्रिटेन में अनेक परिचित थे. दूसरी बार ब्रिटेन गया. बेल्जियम-फ्रांस हो कर. फिर ब्रिटेन लौटा. एम्सटर्डम हो कर. आना-जाना अकेले हुआ, पर ब्रिटेन से लेकर बेल्जियम तक आत्मीय मिले. फिर सिंगापुर-हांगकांग-चीन घूमा. मित्रों के साथ. साथ में अनुराग चतुर्वेदी थे. 1978 के पुराने मित्र. ‘धर्मयुग’, ‘रविवार’ में साथ-साथ रहे. उनकी जीवंतता का कायल हूं. एशिया के देशों को उनके साथ देखने में आनंद आया. अगली यात्रा में भी वह सहयात्री थे.

दिल्ली से एम्सटर्डम, फिर सूरीनाम. सूरीनाम से लौट कर एम्सटर्डम में पड़ाव. हालैंड देखा. वहां से रेल से जर्मनी-आस्ट्रिया (वियना) की यात्रा. फिर लौट कर एम्सटर्डम. वहां से ब्रिटेन. ब्रिटेन में पड़ाव के बाद मुंबई. बर्मा और पाकिस्तान भी जाता हुआ. हर यात्रा में परिचित-अपरिचित (जो यात्रा में मित्र बन गये) साथ रहे. दक्षिण कोरिया में पिछले तीन दिनों से नितांत अकेला हूं. आज शाम 58वें वर्ल्ड न्यूजपेपर्स कांग्रेस की भव्य शुरुआत है. भारतीय परिचित वहां मिलेंगे.

पर यह अकेलापन अच्छा लगता है. भागती जिंदगी में यह ठहराव-पड़ाव है. मशीन बनती जिंदगी पर नजर डालने के क्षण. हमारे मनीषियों ने एकांत-मौन पर कितना बल दिया था. अब आध्यात्म के व्यवसायी ‘एकांत’ व ‘मौन’ की पैकेजिंग करके तरह-तरह से बेच रहे हैं. पर जीवन में ‘एकांत‘ के ये पड़ाव जरूरी हैं.
इस अपरिचित शहर सोल में दो दिनों से घूम रहा हूं. शाम में भी. पैदल. कहीं कोई भय नहीं. अपरिचय जैसा नहीं. क्या यह कानून-व्यवस्था का चमत्कार है? भारत में, बिहार-झारखंड में दूर-दराज की बात छोड़िए, शहरों में देर रात कोई अजनबी-विदेशी सड़कों पर पैदल घूम सकता है? लोग बरजते हैं. रांची में रात 9-10 बजे लूटने के लिए गोली मारते हैं. पर अपरिचित सोल में घूमते हुए आप उभरती नयी दुनिया की झलक पाते हैं.
अनुशासन, कानून-व्यवस्था, पद्धति-नियमानुसार काम क्या ‘जींस’ में होते हैं? कम से कम भारत का अनुभव यही कहता है. नियमानुसार न चलना, मौलिक अधिकार है. ट्रैफिक देखें, कब कौन-किधर से निकल जाये. धक्का मार दे, लालबत्ती की परवाह न करे, यह क्षण-क्षण की घटनाएं हैं. रेल टिकट हो या हवाई टिकट या हर सार्वजनिक स्थल पर नियम तोड़ना-वीआइपी बनना रोजमर्रा के दृश्य हैं. शायद ऐसी बेतरतीबी. बेढंगा शऊर के पीछे सरकारी-सार्वजनिक कार्यालयों में ‘इफीशियंसी’ (सक्षमता) का अभाव है. घूसखोरी है.

क्या कानून, स्वस्थ परंपरा और सामाजिक अनुशासन के बगैर हम ‘भारत’ को बड़ा और महान बना पायेंगे? सोल एयरपोर्ट पर उतरते ही सार्वजनिक अनुशासन की झलक स्वत: मिलने लगती है. लोग स्वत: पंक्तिबद्ध खड़े हो जाते हैं. इमिग्रेशन हो या बोर्डिंग पास लेना हो या पूछताछ करनी हो, चुपचाप पंक्तिबद्ध लोग खड़े हो जाते हैं. लक्ष्मण रेखा है. वहां से एक आदमी ही संबंधित कर्मचारी अफसर के पास काम के लिए जाता है. सब कुछ लयबद्ध. तुरंत काम होते हैं. सरकारी या सार्वजनिक या होटलों के कर्मचारी इतने विनम्र, शालीन कि आपकी मदद के लिए अपना काम छोड़ कर साथ रहते हैं. भारत के सरकारी कामगारों के अहंकार, दर्प, ऐंठ और कठोरता के ठीक विपरीत.

कहीं लंबी कतार या देर तक इंतजार नहीं. सफाई, दूसरा उल्लेखनीय पहलू है. पार्क, सड़क, चौक-चौराहे पर उल्लेखनीय सफाई. हर जगह फूल-पत्ते. उम्दा-तेज और समयबद्ध पब्लिक ट्रांसपोर्ट. इंचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट से दूर ‘सोल सिटी सेंटर’ के लिए बस मिलती है, टैक्सी से अत्यंत कम दर पर. लगातार हर 15 मिनट के इंटरवल पर. हर चीज व्यवस्थित है. क्या यह ‘व्यवस्था’ भारत में लागू नहीं हो सकती? अंतत: यह व्यवस्था लागू करने की जिम्मेवारी किसकी है? सरकार-प्रशासन की. या इन दोनों का हित इस लुंजपुंज अव्यवस्था में है, इसलिए भारत में चुस्त व्यवस्था नहीं है.

पिछले कुछेक वर्षों से अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से यह धारणा बन गयी है कि ग्लोबल दुनिया की एकमात्र भाषा अंग्रेजी ही है. आधुनिकता= विकास = अंग्रेजी. चीन में जो कुछ यात्रा करते हुए देखा, बाद में चीन से लगातार ऐसी खबरें भी आयीं, जिनसे पुष्ट हुआ कि आधुनिक चीन, बदलते चीन की भाषा नीति बदल गयी है. अंग्रेजी का व्यापक असर हो रहा है. पर दक्षिण कोरिया में आ कर लगा कि विकास, आधुनिकता का पर्याय अंग्रेजी नहीं है. लगभग शत-प्रतिशत (0.5 फीसदी अपवाद छोड़ कर) बोर्ड-सूचनाएं दक्षिण कोरिया की अपनी भाषा में हैं.

होटलों में, दुकानों में, सार्वजनिक स्थलों पर भाषा की गंभीर समस्या है. अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या कम है. फिर भी दक्षिण कोरिया के ब्रांड-प्रगति की पहुंच दुनिया में दूर-दूर तक है. कोरिया की युवा पीढ़ी को कोरियाई अखबार अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चला रहे हैं. न्यूयार्क टाइम्स द्वारा प्रकाशित ‘इंटरनेशनल हेरल्ड टिब्यून’ यहां बिकता है. साथ में आठ पेज का ‘जूंग’ कोरियाई प्रकाशन. इसके साथ रोजाना आठ पेज टेबलायड आकार में ‘थिंक इंगलिश’ (अंग्रेजी में सोचो) बंटता है. इसमें शुरू से अंत तक कोरियाई भाषा में सामग्री रहती है, साथ में उसका अंग्रेजी अनुवाद. यह अंग्रेजी सीखने का अभियान है. चीन से आये पत्रकार बताते हैं, चीन में अंग्रेजी पढ़ने-बोलने की स्पर्द्धा है. शंघाई से खबर है कि आजकल सबसे अधिक जो पुस्तक चीन में बिक रही है, वह ‘अॅाक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी’ है. चीनी से अंग्रेजी जानने की किताबें और अंग्रेजी बोलने के पाठ्यक्रम धड़ल्ले से बिक रहे हैं. चीन में ‘अंग्रेजी में वार्तालाप’ सीखने के जहां पाठ्यक्रम चल रहे हैं, वहां 3-4 महीनों की प्रतीक्षा के बाद एडमिशन होता है. 4000 युआन (लगभग 21000) फी देकर बच्चे अंग्रेजी बोलना-पढ़ना सीख रहे हैं. अंग्रेजी का जोर एशिया-पूर्व एशिया में फैल रहा है. नयी ग्लोबल दुनिया की बनती एकमात्र भाषा.

न्यूजपेपर कॉन्फ्रेंस में कोरिया के हाईटेक होने का अनुभव हुआ. मेज पर छोटे टेप के आकार की एक मशीन थी. चौकोर. उसके साथ कान में जोड़ कर सुनने का इयर फोन. इस यंत्र का कहीं और से कोई संबंध नहीं. पता चला अनुवाद की मशीन है. चीन या स्पेन से आये लोग अपनी भाषाओं में बोल रहे थे, तो कान में लगाया. तत्काल अंग्रेजी अनुवाद. इसी तरह कोई अंग्रेजी में बोल रहा होता, तो उसे चीनी, फ्रेंच, जर्मन वगैरह सात भाषाओं में सुना जा सकता था. वक्ता के भाषण के साथ-साथ अनुवाद. विज्ञान, मनुष्य के लिए इस अर्थ में वरदान है, यह हाईटेक की दुनिया की छोटी झलक है. भविष्य में ऐसे चमत्कार बढ़ेंगे ही.

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