अोके…फिर आया चुनाव, फिर शुरू हुआ आश्वासन व वादों का सिलसिला, परसुखाड़ के बावजूद पंचायत चुनाव में खूब खर्च हो रहे हैं पैसे. राज्य गठन के 15 साल बाद भी गढ़वा जिले के कई प्रखंडों के जनजाति परिवार अब भी नहीं जुटा पा रहे दो जून की रोटी. गांव की सरकार के लिए फिर हो रहा है चुनाव, पर वंचित परिवारों की स्थिति वैसी ही है, जैसी कल थी. 26जीडब्लूपीएच2-जंगल से कंदा गेठी लाकर खाने की व्यवस्था करता एक जनजाति परिवारहेडलाइन..अभाव का जख्म हरा ही रहा प्रतिनिधि, गढ़वा. झारखंड राज्य का निर्माण हुए 15 वर्ष गुजर गये. राज्य अलग होने के बाद लोगों ने खुशहाली का सपना देखा था. 15 साल बाद भी हासिल कुछ न हो सका. तीन प्रदेशों बिहार, छत्तीसगढ़ एवं उत्तर प्रदेश की सीमाओं से लगा गढ़वा जिला तब भी (एकीकृत बिहार के समय) उपेक्षित था और नये राज्य के गठन के 15 वर्ष बाद भी उपेक्षित है. न ही क्षेत्र की सूरत बदली, न ही लोगों की सीरत बदली. जिले के अल्पसंख्यक आदिवासी व आदिम जनजाति परिवार आज भी दाने-दाने का मोहताज है. दो जून की रोटी के लिए आज भी उन्हें कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. कंद-मूल व कंदा-गेठी खाकर जीवन बसर कर रहे हैं. सरकार द्वारा आदिम जनजातियों व अदिवासियों के लिए संचालित योजनाएं कागज पर ही दम तोड़ रही है. दूसरी ओर नेता व जनप्रतिनिधि अपनी राजनीति को चमकाने के लिए अकाल व सूखा का रोना रो रहे हैं. उधर पंचायत चुनाव में हर तबके के प्रत्याशी द्वारा काफी पैसे खर्च किये जा रहे हैं. राज्य बनने के बाद यह दूसरा पंचायत चुनाव है. वर्ष 2010 में जब 32 वर्षों के बाद पंचायत चुनाव हुआ था, तो लोगों को लगा था कि अब गांव का विकास होगा. लेकिन पंचायत प्रतिनिधियों को छोड़ कर किसी का विकास नहीं हुआ. पहले की अपेक्षा अब गांव में वाहनों की संख्या बढ़ गयी है. इनमें पावर का रोना रोनेवाले पंचायत प्रतिनिधियों का योगदान अधिक देखा जा सकता है. पंचायत चुनाव के इस महासमर में वर्षों से टकटकी लगाये वंचितों व जरूरतमंदों की आवाज दब कर रह गयी है. हर टोले व कस्बे पर प्रत्याशी पहुंच रहे हैं और बड़े नेताओं की तर्ज पर खूब आश्वासन दे रहे हैं. बहरहाल चुनाव तो समाप्त हो जायेगा, लेकिन जिनके लिए राज्य बना, उनके मन की टीस शायद समाप्त न हो.
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अोके…फिर आया चुनाव, फिर शुरू हुआ आश्वासन व वादों का सिलसिला, परसुखाड़ के बावजूद पंचायत चुनाव में खूब खर्च हो रहे हैं पैसे. राज्य गठन के 15 साल बाद भी गढ़वा जिले के कई प्रखंडों के जनजाति परिवार अब भी नहीं जुटा पा रहे दो जून की रोटी. गांव की सरकार के लिए फिर हो […]
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