सुबह अखबार पर नजर पड़ते ही एक खबर देखी. राजद उम्मीदवारों को हराऊंगा : उमाशंकर. उमाशंकर सिंह जी, महाराजगंज से राजद सांसद हैं. वह यह कह कर ही नहीं रुके. फरमाया कि लालू जी में हिम्मत है, तो वे मुझे दल से बाहर निकाल कर दिखाएं, उनकी एक सूत्री मांग है कि बिहार चुनाव में मेरे समर्थकों को टिकट दिया जाये.
यह खबर पढ़ते ही सुभाष यादव जी के आप्त कथन या अमृत वचन याद आये. टीवी में बोले या अखबारों में पढ़े सुभाषित सलाह. वह दो-तीन दिन पहले ही कह चुके हैं. जीजा जी बूढ़ा गये हैं. आप सजग पाठकों को याद कराने की जरूरत नहीं कि जीजा जी से सुभाष जी का आशय लालू जी से ही है. सुभाष जी यह भी बोल गये हैं कि वह (यानी लालू जी) रिटायर हो जाएं. एक टीवी चैनल पर सुभाष जी ने यह भी बोला कि नीतीश जी के कार्यकाल में अफसरों ने अच्छा काम किया है. कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधरी है.
इसी क्रम में याद आये माननीय अखिलेश सिंह जी. पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री. पहली बार विधायक बनने पर बिहार में मंत्री बने थे. पहली बार सांसद बने, तो केंद्र में मंत्री बन गये. लालू जी के ही सौजन्य से. ऐसे अनेक लोग याद आये, जो आजकल क्षण-क्षण पाला बदल रहे हैं. पार्टी बदलने की प्रतिस्पर्धा चल रही है.
यह सब याद आते ही रहीम की पंक्ति याद आयी
रहिमन चुप हो बैठिए, देखि दिनन को फेर
यह सब ‘दिनों’ (काल) का ही फेर है, जो लोग राजनीति में लालू प्रसाद के तेज, प्रताप या आभा के कारण टिमटिमाये, आज वे ही लालू प्रसाद से अपनी रोशनी की बात कर रहे हैं. यह समय का प्रताप है, इनसान का नहीं. जिन्हें खाक से उठा कर लालू जी ने आसमान पर पहुंचाया, आज वे ही लालू जी को आसमान का फैलाव और क्षितिज बता रहे हैं. राजनीति के पाठ पढ़ा रहे हैं. गुर सीखा-बता रहे हैं. जो जीवन में अपनी प्रतिभा, क्षमता, समझ या ताकत से सार्वजनिक जीवन में रहनुमा नहीं बन सकते थे, जीवन में कोई महत्वपूर्ण ठौर या सम्मान नहीं पा सकते थे. ऐसे असंख्य लोग लालू प्रसाद के कंधे पर समाज-देश के भाग्य विधाता बनने की श्रेणी में पहुंच गये, आज वही लालू प्रसाद को उपदेश दे रहे हैं. जिनके कारण ‘जग में हुए बदनाम’ अब वे ही शोर मचा रहे हैं.
यह सब राजनीति में हो रहा है?
राजनीति की भूमिका क्या है ? आज के बिहार में ?
महाभारत का वाक्य है. शाश्वत सच. महाजनो येन गता: सो पंथा:
समाज के अगुआ या श्रेष्ठ लोग जिस रास्ते जाते हैं, वही पाथेय है. रास्ता है. उसी रास्ते पर शेष लोग चलते हैं. उसे आदर्श मान कर अपनाते हैं. इन्हीं महाजनों की भूमिका में आज की राजनीति है. राजनेताओं की भूमिका-रास्ता से ही समाज प्रेरित होता है. उस पर चलता है.
पर इस महत्वपूर्ण राजनीति के कर्णधारों-रहनुमाओं के चरित्र-चाल क्या हैं? कभी इस टहनी, तो कभी उस टहनी. कभी इस दुआर (दरवाजा), तो कभी उस दुआर. ये समाज को कहां ले जायेंगे? बीसवीं सदी की राजनीति की दो धार थीं. एक मैकियावेली की. दूसरी गांधी की. मैकियावेली दर्शन मानता है कि सत्ता पाने के लिए हर धतकर्म-अपकर्म जायज है. गांधी मानते हैं कि नहीं, साधन और साध्य के सवाल अहम हैं. शुद्ध, पवित्र और सात्विक साधन से ही अच्छे साध्य प्राप्त हो सकते हैं. इस तरह गांधी की राजनीति का मापदंड है कि समाज, देश जहां खड़े हैं, उससे वह (समाज) और ऊपर जायें. परिष्कृत बने. नैतिक मूल्य ऊंचा उठे.
समाज की आभा फैले, कर्म-वचन-विश्वास का माहौल हो. जुबान का अर्थ हो. उपकार और ॠण बोध का भाव हो. यह सब मनुष्य होने की बुनियादी शर्तें हैं. आदमी का अपने वचन पर अटल रहना, किसी के उपकार को न भूलना, जैसी चीजें मानवीय गरिमा से जुड़ी हैं.पर इन दिनों बिहार की राजनीति में जो घट रहा है, वह मनुष्य बनने की गरिमा पर ही आघात है. न किसी का साथ छोड़ते या पकड़ते वक्त संकोच या शर्म. न आत्मग्लानि. बाजार का अर्थशास्त्र या राजनीतिशास्त्र है, जहां पावर या धन, वहीं गुलामी. जिन्हें लालू जी ने खड़ा किया, बनाया, वही बागी तेवर में. जिन्हें शून्य से शिखर तक पहुंचा दिया, वही बागी ? पांच वर्ष चुप रह कर, उस नेता (लालू प्रसाद) को मदद करने के लिए तैयार नहीं, जिसने धूल से आसमान तक पहुंचा दिया, जो फिलहाल सबसे चुनौतीपूर्ण संघर्ष में है. लेकिन सुख और सत्ता के साथी-साझीदार रहे लोग पाला पलट रहे हैं. पर इसके लिए दोषी कौन?
लालू प्रसाद जी जैसे सामर्थ्यवान लोग ही दोषी हैं.
इतिहास ने लालू प्रसाद को हालात बदलने, राजनीति के नियम-कानून पलटने और राजनीति का नया व्याकरण लिखने का, इतना बड़ा अवसर दिया, जितना शायद ही किसी को पिछले दो दशकों में मिला. प्रचंड बहुमत, अपार लोकप्रियता, राज्य चलाने का एकछत्र बागडोर. केंद्र में ताकत-गद्दी.पर क्या किया लालू जी ने ?
चारण, चाटुकारों और दरबारियों से पिंड नहीं छुड़ा सके. ऐसे ही लोग अब उन्हें दगा दे रहे हैं. तब लालू प्रसाद जी चाहते, तो राजनीति में नये प्रतिमान गढ़ सकते थे. नये आदर्श तय कर सकते थे. जब वह सत्ता के शिखर पर थे, उन दिनों अपने दल में वह नये प्रयोग करते, उसे नयी रीति-नीति से चलाते, तब उन्हें दल में कोई चुनौती देनेवाला नहीं था. प्रतिद्वंद्वीविहीन थे, तब वह
क्या कर सकते थे?
भारत की पुरानी मान्यता है. निंदक नियरे राखिए. अपनी कमियों को बताने वाले को पास रखें. वे सही तथ्य बताते हैं. जो लाभ-लोभ से परे हैं, वे खरी-खरी बातें करेंगे. दल और सत्ता में तब लालू जी की ताकत से ऐसे निंदक लोग बढ़ते-फैलते, तो राजनीति का स्तर उठता. जहां चापलूस होंगे, वहां स्वाभिमानी फटकेंगे नहीं, कांग्रेस का पतन शुरू हुआ, जब 70-80 के दशकों में चरणों-चापलूसों की वहां चलने लगी. उसके विकल्प में उसी संस्कृति को अपना कर कोई दल पतन के रास्ते पर ही चलेगा. नेहरू परिवारवाद के खिलाफ पनपी राजनीति से बढ़े लालू जी अपने दल को आदर्श बना सकते थे. परिवार और रिश्तेदारों से अलग रख कर. तब आज सुभाष जी या साधु जी की जगह कोई राजद का तपा-तपाया दूसरा नाम होता. ऐसे लोगों द्वारा दल छोड़ने की घटना शायद नहीं होती. इस तरह विचारों और सिद्धांतों की नींव पर राजद की परवरिश होती, तो आज हालात भिन्न होते.
पर जब उनकी तूती बोलती थी, तब लालू जी ने क्या प्रतिमान गढ़े?
1990-95 के दौर को याद करें. भाजपा को तोड़ा. शायद एक तिहाई का कोरम भी पूरा नहीं था. भाकपा को तोड़ा. माले में फूट कराया. बसपा पर हाथ डाला. कांग्रेस तो उनकी चेरी ही थी. यह तोड़-फोड़ या दलबदल, तात्कालिक रूप से उनकी सत्ता को मजबूत और स्थायी बना रहे थे. पर राजनीति में नये प्रतिमान नहीं बन रहे थे. उन दिनों इतिहास ने लालू जी को स्वस्थ प्रतिमान-मापदंड गढ़ने का मौका दिया था. राजनीति में अनुशासन, लोकलाज प्रतिबद्धता और जुबान को प्रतिष्ठित करने का ऐतिहासिक अवसर दिया था. सार्वजनिक जीवन में नया आपद धर्म गढ़ने का वक्त था, वह . पर लालू जी ने अपनाया, तोड़फोड़ कराने का चालू रास्ता. दलबदल कराने का चक्र. अब न्यूटन के सिद्धांत के तहत उनके फॉर्मूले, उन्हीं के दल-लोग अपना रहे हैं. उन्हें ही दगा दे रहे हैं. कहावत है – जो बोयेंगे, वही काटेंगे. यही स्थिति है.
दरअसल, लोग भूलते हैं. खासतौर से सत्ता मद में डूबे लोग. समय होत बलवान. इनसान बड़ा नहीं होता, समय या काल बड़ा होता है. जो आया है, वह जायेगा. जो जन्मा है, वह मरेगा. आज तक यह गणित कोई तोड़ नहीं सका. अगर राम, कृष्ण को अवतार मान लें, तो वे भी नहीं.
पर राजनीति में भ्रम हो जाता है. कम-से-कम लालू जी या अन्य ताकतवर लोग यह समझ लें, तो देश की राजनीति सुधर सकती है. बिहार, देश का शीर्ष राज्य बन सकता है. अयोग्य या चारण-चाटुकार लोगों को सत्ता में लाकर ये बड़े नेता क्या पाते हैं ? या पाते रहे हैं ?
आज दुनिया एक नये कगार पर है. भारत के अन्य राज्य तेजी से आगे बढ़ रहे है. कभी सोचिए, क्यों एक बिहारी को अपमानित होना पड़ता है, अन्य राज्यों में ? क्योंकि बिहार प्रगति की दौड़ में पिछड़ा रह गया. यहां भी प्रतिभावान, सक्षम और तेज लोग राजनीति में होते (चारण-चापलूता नहीं), तो आज बिहारियों को अन्य राज्यों में भटकना नहीं पड़ता. इस तरह इस राजनीति का संदेश या पाठ है कि हर दल सक्षम, योग्य और कुशल लोगों को प्रश्रय दे. चारण-चापलूसों को नहीं. ‘परहित हानि लाभ जिनकेरे’ दर्शनवालों से नहीं. रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखा था,…कृष्ण को कभी सिंहासन नहीं मिला. बुद्ध ने सिंहासन को ठुकरा दिया. बिना सिंहासन के भी गांधी, भारतीयों का एकछत्र नेता था. राजनीति क्षणिक चीज है. यह ऐसी करवटें लिया करती है कि यह कहना कठिन है, जो आज सिंहासन पर है, वह कल कहां रहेगा?. हम क्षणिकता के पीछे नहीं दौड़ें. शाश्वतता हमारा ध्येय होना चाहिए. शाश्वतता की उपासना ही हमें अमरता प्रदान करेगी ?