पूर्णिया : एक दौर था जब ‘बचपन मत मुरझाने दो, बच्चों को मुस्कुराने दो’ जैसे नारे खूब फिजा में गूंजते थे, लेकिन स्याह सच यह है कि जिला मुख्यालय में ढाबे और गैराजों में बचपन सिसक रहा है और मासूमों के सपने टूट रहे हैं. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन नन्हे हाथों में कलम होनी चाहिए वहां झूठे बरतन और छेनी तथा हथौड़ी मौजूद हैं.
बुद्धिजीवी, अधिकारी और धनाढ्यों के घरों में झाड़ू-पोछा लगाते बाल मजदूर समाज के नैतिक पतन की कहानी को बयां करता है. बाल श्रम निषेध के लिए अधिनियम बनाये गये हैं लेकिन खुद अधिनियम भी हालात और धनाढयों की दासी बन कर रह गयी है. जाहिर है प्रावधान से भी बढ़ कर इस कलंक मुक्ति के लिए सामाजिक संकल्प की जरूरत है.
क्या है बाल श्रम की परिभाषा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब बच्चे अपने और परिवार की जीविका के लिए काम करने के लिए मजबूर होता है, जिससे उन्हें शैक्षणिक और सामाजिक हानि होती है, बाल श्रम कहलाता है. इसके अलावा जब बच्चों को उनके परिवार से अलग कर दिया जाता है और समय पूर्व वयस्क जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है, बाल श्रम कहलाता है. वहीं मानव संसाधन विकास विभाग के अनुसार स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे बाल श्रमिक होते हैं.
क्योंकि स्कूल नहीं जाने का आशय होता है कि वह किसी न किसी तरह के काम में लगा होता है. गरीबी से अधिक जागरूकता की कमी है कारण नि:संदेह बाल श्रम का मुख्य कारण गरीबी, बढ़ती आबादी और अशिक्षा है. जब तक गरीबी रहेगी, तब तक इसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है. लेकिन यह कारण पूरा सच नहीं है. वास्तविकता यह है कि बाल श्रम से गरीबी बढ़ती भी है. बाल श्रमिक बाद में अकुशल व्ययस्क बन जाते हैं और पूरी जिंदगी कम आमदनी और गरीबी से घिरे रहते हैं.
बाल श्रम की वजह से वे अनपढ़ रह जाते हैं और अपने अधिकार से भी वाकिफ नहीं रह पाते हैं. इस प्रकार बाल श्रम पीढ़ी दर पीढ़ी भी स्थानांतरित होती है. ऐसे में जागरूकता ही ऐसा अचूक हथियार है, जिसके बल पर बाल श्रम में काफी हद तक कमी लायी जा सकती है. बाल श्रम निषेध से जुड़े प्रावधान वर्ष 1986 में बाल श्रम प्रतिषेध एवं विनियमन अधिनियम अस्तित्व में आया. इसके तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ढाबा, रेस्टोरेंट, होटल, चाय की दुकान, घरेलू कामगार, ईंट भट्ठा, गैराज, भवन निर्माण आदि स्थानों पर नियोजन प्रतिबंधित किया गया.
ऐसा किये जाने पर दोषी नियोजकों को 20 हजार रुपये के जुर्माने का प्रावधान किया गया. वहीं नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 के तहत 06 से 14 वर्ष के उम्र के बच्चों के लिए नि:शुल्क शुल्क की व्यवस्था की गयी. जबकि किशोर न्याय अधिनियम 2006 के तहत 18 साल तक के सभी बच्चों को शोषण से संरक्षण प्रदान करता है.
उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1996 में एमसी मेहता बनाम तमिलनाडु सरकार मामले की सुनवाई करते हुए निर्देश दिया था कि बाल श्रमिक रखने वाले नियोजकों से 20 हजार रुपये जुर्माने के रूप में वसूल कर बच्चों के पुनर्वास के लिए बाल कल्याण कोष में जमा करना होगा. संविधान का अनुच्छेद 24 भी 14 साल से कम उम्र के बच्चे को खतरनाक कार्यों में लगाना प्रतिबंधित करता है. जिले में 30 हजार से अधिक हैं बाल मजदूर देश में 05 से 14 आयु वर्ग के 40 लाख से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं.
इसमें से बिहार में 4.05 लाख बाल श्रमिक हैं, जबकि बिहार में 13 ऐसे जिले हैं, जहां 30 हजार से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं. इनमें से सीमांचल का पूर्णिया और अररिया भी शामिल है. विडंबना यह है कि यहां बाल श्रम चाइल्ड ट्रैफिकिंग से भी जुड़ा हुआ है. समय-समय पर ऐसे बच्चे बरामदगी हुए हैं.
लेकिन त्रासदी यह है कि बाल श्रमिकों की तादाद तमाम कवायद के बावजूद बढ़ती ही जा रही है. केवल 47 बाल श्रमिक हुए हैं मुक्त श्रम विभाग के आंकड़े के अनुसार वर्ष 2014-15 में 47 बाल श्रमिक जिले के विभिन्न स्थानों से मुक्त कराये गये हैं. बाल श्रम अधिनियम एवं न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के तहत 43 नियोजक से जुर्माना राशि की भी वसूली की गयी है.
लेकिन आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाके में बाल श्रमिकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. जिला मुख्यालय में ही सैकड़ों गैराज और सैकड़ों होटल और ढाबे हैं, जहां बाल श्रमिक कार्यरत हैं. ऐसे में महज 47 बाल श्रमिकों की मुक्ति आम लोगों के भी गले नहीं उतर रही है. जबकि बाल श्रमिकों की मुक्ति के लिए जिले में धावा दल गठित हैं, जिसके संयोजक जिले के श्रम अधीक्षक होते हैं. इस दल का कार्य बाल श्रमिकों की मुक्ति के लिए प्रतिष्ठानों एवं व्यक्तियों के घर छापा मारना होता है.
ठंडे बस्ते में है मुस्कान परियोजना वर्ष 2015 में राज्य सरकार द्वारा मुस्कान परियोजना चलायी गयी. जिसके तहत जिले की पुलिस को बाल श्रमिकों को मुक्त कराने की जिम्मेवारी सौंपी गयी. जिला मुख्यालय में भी अगस्त और सितंबर माह में जोर-शोर से यह अभियान चलाया गया.
तत्काल इसके परिणाम भी सामने आये और 56 बाल श्रमिकों को गैराजों और ढाबे से मुक्त कराया गया. इनके नियोजक के खिलाफ पुलिस ने एफआइआर भी दर्ज किया. लेकिन कतिपय कारणों से यह योजना भी ठंडे बस्ते में चली गयी और पूर्व की तरह जिला मुख्यालय स्थित होटल और गैराज में बाल श्रम धड़ल्ले से जारी है और इस कलंक श्रम के बीच हर दिन सपने टूट रहे हैं.
बाल श्रम सामाजिक समस्या है. धावा दल द्वारा बाल श्रमिकों को मुक्त कराया जाता है. बाल श्रम के खिलाफ समय-समय पर जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है. जावेद रहमत, श्रम अधीक्षक, पूर्णिया