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ब्रिटेन यात्रा से आगे के सवाल

मोदी की ब्रिटेन यात्रा की पड़ताल के पहले स्वदेश में उनके डेढ़ साल के समग्र कार्यकाल का लेखा-परीक्षण जरूरी है. विदेश यात्राएं चाहे जितनी भी रंगारंग हों, उम्र जलवों में बसर नहीं हो सकती. भारत के प्रधानमंत्री जब भी विदेश यात्रा करते हैं, तो स्वदेश में अजीब-सी हलचल मच जाती है. यह सवाल उठाये जाने […]

मोदी की ब्रिटेन यात्रा की पड़ताल के पहले स्वदेश में उनके डेढ़ साल के समग्र कार्यकाल का लेखा-परीक्षण जरूरी है. विदेश यात्राएं चाहे जितनी भी रंगारंग हों, उम्र जलवों में बसर नहीं हो सकती.

भारत के प्रधानमंत्री जब भी विदेश यात्रा करते हैं, तो स्वदेश में अजीब-सी हलचल मच जाती है. यह सवाल उठाये जाने लगते हैं कि इस बार कौन सी अभूतपूर्व उपलब्धि उनके खाते में दर्ज होनेवाली है? उनकी मेहमाननवाजी हर जगह गर्जजोशी से होती रही है और जिस देश का दौरा वह कर रहे होते हैं, वहां रहनेवाले भारतवंशी जश्न का माहौल बना देते हैं. इसीलिए ब्रिटेन यात्रा के पहले भी अटकलबाजी शुरू हो गयी थी. बुरा हो बिहार चुनाव के नतीजे का, जिसने रंग में भंग डाल दिया. मोदी और एनडीए के अालोचकों को यह लांछन लगाने का मौका मिल गया कि घर-आंगन की चुनौतियों से मुंह चुरा कर प्रधानमंत्री कब तक भटकते रहेंगे? ब्रिटेन में भले ही महारानी एलिजाबेथ उनके सम्मान में एक भोज का आयोजन कर चुकी हैं, पर क्या इतने भर से हमारा राष्ट्रहित सुरक्षित समझा जा सकता है?

सबसे पहली बात जो याद रखने लायक है, वह यह है कि इस तरह के उच्चस्तरीय राजकीय दौरे बहुत पहले से तय होते हैं और दौरे की राजनयिक कार्यसूची भी. इन्हेें किसी एक सूबे के चुनावी नतीजों के आधार पर स्थगित या खारिज नहीं किया जा सकता. जो दूसरी बात रेखांकित करना बेहद जरूरी है, वह यह कि मोदी ब्रिटेन की एक दशक के अंतराल के यात्रा करनेवाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री है. इस पहल का चाहे जितनी भी जोर-शोर से विज्ञापन किया जाये, हकीकत यह है कि ब्रिटेन की यात्रा का नंबर पूरे 18 महीने बाद ही आ सका है, जब तक मोदी दर्जनों छोटे-बड़े देशों के दौरे कर चुके हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उभरती चुनौतियां हों या भारतीय विदेशनीति के बुनियादी सरोकार ब्रिटेन का महत्व अमेरिका, चीन, रूस तो छोड़िए जर्मनी या जापान सरीखा भी नहीं. अतः इस दौरे को अनावश्यक तूल देना तर्कसंगत नहीं लगता. जहां तक प्रधानमंत्री कैमरून का प्रश्न है वह भारत के प्रति दोस्ताना रवैया रखते हैं पर उनकी हस्ती मार्गरेट थैचर या टोनी ब्लेयर जैसी नहीं.

इन सब के बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ब्रिटेन के साथ रिश्ते बहुत खास हैं. और जिनके बारे में हमें बचपन से ही यह समझाया जाता रहा है कि इनकी तुलना किसी और देश के साथ उभयपक्षीय रिश्तों से नहीं की जा सकती. इस गलतफहमी को जड़ें जमाने और शाखाएं फैलाने में सहुलियत इसलिए होती रही है कि हम हिंदुस्तानी मानसिक गुलामी का शिकार हैं- अंगरेजों और अंगरेजियत का भूत आज भी हमारे सिर पर सवार है. दो सौ साल तक अंगरेजों की गुलामी कबूल करने के बाद यह अचरज की बात नहीं कि हमने अपने गोरे शासकों की राजनीतिक प्रणाली और न्यायपालिका को ही आदर्श समझ कर अपनाया है और हर क्षेत्र में हमारी यही अभिलाषा रहती है कि ब्रिटेनवाले हमारी पीठ थपथपाएं. राजनेता और नौकरशाह ही नहीं अिधकतर लेखक-कलाकार भी इसके लिए तरसते हैं.

कड़वा सच यह है कि आज का ब्रिटेन ग्रेट ब्रिटेन नहीं, बल्कि छोटा-सा इंग्लैंड सिमट चुका है. स्कॉटलैंड अलग होने को व्याकुल है और आयरलैंड का छोटा-सा उत्तरी हिस्सा ही यूनाइटेड किंगडम का हिस्सा रह गया है. ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य जो कभी अस्त नहीं होता था, आज ग्रहणग्रस्त है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भले ही यह दावा करते हों कि भारत में ब्रिटिश कंपनियां सात लाख लोगों को रोजगार देती हैं, विडंबना यह है कि आज भारतीय उद्यमी इससे कहीं अधिक बड़े पैमाने पर ब्रिटेन की खुशहाली बढ़ाने में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं. जैगुवार और लैंडरोवर जैसी मशहूर कंपनियां टाटा ने खरीद ली है और इस्पात का कारोबार विलायत में ही नहीं, दुनियाभर में लक्ष्मी मित्तल जैसे लोगों के इशारों पर व्यवस्थित होता है. कभी कहा जाता था कि विलायत दुकानदारों का देश है, इसमें कोई खास फर्क आज तक नहीं पड़ा है. आज भी ब्रिटेन की ललचाई निगाहें भारत के बड़े बाजार पर टकटकी बांधे हैं और कैमरून मानें या ना मानें आज तक उस सदमे से उबर नहीं पाये हैं कि भारत ने उनसे लड़ाकू विमान न खरीद फ्रांस के राफेल का सौदा किया है.

मोदी के इस दौरे के सिलसिले में कुछ और बचकाने सवाल पूछे जाते रहे हैं. क्या मोदी से बातचीत के बाद ब्रिटेन की सरकार दाऊद की ‘कमर तोड़ देगी’ या खालिस्तानियों का समूल नाश कर देगी? हमारी समझ में यह कौतूहल मतिमंद है. ब्रिटेन का समाज और जनतंत्र पारंपरिक रूप से अन्यत्र असंतुष्ट शरणार्थियों को स्वीकार करता रहा है और वहां की जमीन से अपना असंतोष प्रकट करने का अवसर देता रहा है. यह सोचना तर्कसंगत नहीं कि सिर्फ मोदी की मांग से यह स्थिति पलक झपकते बदल जायेगी. यह न भूलें कि ब्रिटेन के संबंध पाकिस्तान के साथ भी दोस्ताना हैं और पाकिस्तान भी उससे यह मांग करता रहा है कि जम्मू-कश्मीर पर उसके कब्जे का भारतीय इशारे पर प्रतिरोध करनेवाले कश्मीरियों पर रोक लगे. हां, आशा जरूर की जा सकती है कि शायद अब भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करनेवाले और षड्यंत्रकारियों को निरंकुश नहीं छोड़ा जायेगा.

हमारी समझ में आनेवाले दिनों में भारत और ब्रिटेन के रिश्ते इस बात से तय होंगे कि हम दो देशों के बीच आर्थिक रिश्ते कितने मजबूत और बेहतर होते हैं. ब्रिटेन में भारत का निवेश पूरे यूरोपीय समुदाय के तमाम दूसरे देशों से ज्यादा है और ब्रिटेन के साथ हमारी साझेदारी राष्ट्रकुल की सदस्यता के प्रारंभिक दौर से ही टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण और शिक्षा तथा शोध के क्षेत्र में घनिष्ठ रही है. लेकिन, इसके साथ ही यह भी जोड़ना जरूरी है कि किसी भी संवेदनशील क्षेत्र में वह परमाण्विक ऊर्जा हो या पाकिस्तान तथा चीन के संदर्भ में राजनयिक समर्थन, ब्रिटेन की कसौटी पर भारत अकसर खोटा ही साबित हुआ है.

दो टूक में, अब भारत को आजाद हुए लगभग सात दशक बीतने को हैं, पर गौरांग महाप्रभुओं ने हमारे ऊपर कितना उपकार किया, इस भजन-वंदना से उबरने की जरूरत है.

बदले समय में अपने राष्ट्रहित की पड़ताल करने के बाद ही हमें अन्य शक्तियों को मद्देनजर रख अपनी राजनयिक और आर्थिक प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए. इसीलिए टीपू की तलवार हो, लगान की वसूली हो, कोहिनूर की वापसी हो या फिर दो सौ साल के औपनिवेशिक उत्पीड़न का मुआवजा, ये मांगें बेकार हैं. मोदी की ब्रिटेन यात्रा के लाभ-लागत की पड़ताल के पहले स्वदेश में उनके डेढ़ साल के समग्र कार्यकाल का लेखा-परीक्षण जरूरी है. विदेश यात्राएं चाहे जितनी भी रंगारंग हों, उम्र जलवों में बसर नहीं हो सकती.

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

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