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आंदोलनकारी झगडू पंडित को जानिए

अनुज कुमार सिन्हा झारखंड आंदोलनकारियों को सम्मान देने का झारखंड को एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आये 15 वर्ष बीत गये. राज्य निर्माण के आंदोलन में असंख्य लोगों की भागीदारी रही है. झारखंड सरकार ने आंदोलनकारियों के सम्मान के लिए आयोग भी बनाया है, फिर भी सरकार की सूची में कई ऐसे […]

अनुज कुमार सिन्हा
झारखंड आंदोलनकारियों को सम्मान देने का
झारखंड को एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आये 15 वर्ष बीत गये. राज्य निर्माण के आंदोलन में असंख्य लोगों की भागीदारी रही है. झारखंड सरकार ने आंदोलनकारियों के सम्मान के लिए आयोग भी बनाया है, फिर भी सरकार की सूची में कई ऐसे नाम नहीं दिख रहे हैं, जो होने चाहिए थे. अब भी समय है. यह काम जितना तेजी से हो और समय रहते हो जाये, यही प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि झारखंड के लिए लड़नेवालों को संतोष हो और राज्य में एक नयी ऊर्जा का संचार हो.
हम में से अधिक लोग झगड़ू पंडित को नहीं जानते होंगे. नयी पीढ़ी ने इस नाम को सुना भी नहीं होगा. हां, पुरानी पीढ़ी (झारखंड आंदोलनकारी) के लिए परिचित नाम. एक बड़ा आंदोलनकारी. कृषि पंडित के नाम से विख्यात. अभी अपने पैतृक गांव करमाटांड के हथबंध में रहते हैं.
शोर-शराबे से दूर. आंदोलन के दौरान शिबू सोरेन के सबसे करीबियों में से एक. उन दिनों के साथी, जब शिबू सोरेन पारसनाथ की पहाड़ियों में रहते थे और वहीं से महाजनों के खिलाफ ‘धान काटो अभियान’ चलाते थे. टुंडी में जब शिबू सोरेन ने वर्ष 1972-74 के बीच जो आजाद क्षेत्र की घोषणा की थी (जहां बिहार सरकार की नहीं चलती थी, जहां पुलिस नहीं जा सकती थी, वहां शिबू सोरेन और उनके आंदोलनकारी साथियों का राज था), समानांतर सरकार बनायी थी, उस सरकार में कृषि मंत्री यही झगड़ू पंडित थे.
सिर्फ कहने को नहीं, एक बढ़िया-जानकार किसान रहे हैं झगड़ू पंडित, एक ताकतवर आंदोलनकारी, जिसने संताल में शिबू सोरेन को ले जाने में बड़ी भूमिका निभायी थी. दर्जनों केस उन पर थे. आपातकाल में जब शिबू सोरेन को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर समर्पण कराया गया तो उस समय उनके साथ जेल जानेवाले एक मात्र आंदोलनकारी झगड़ू पंडित ही थे.
डीसी-एसपी से बहस कर जबरन जेल गये थे, पुलिस उन्हें जेल ले जाने को तैयार नहीं थी. झारखंड सरकार ने झारखंड और वनांचल के आंदोलनकारियों की पहचान के लिए आयोग बनाया. आयोग ने सम्मान के लिए अनेक आंदोलनकारियों के नाम की अनुशंसा की है, लेकिन इसमें झगड़ू पंडित या उनके जैसे आंदोलनकारियों के लिए जगह नहीं है.
झगड़ू पंडित, एके राय, एनइ होरो (दिवंगत), शिबू सोरेन, विनोद बिहारी महतो (दिवंगत), निर्मल महतो (दिवंगत), डॉ रामदयाल मुंडा (िदवंगत), बीपी केसरी, शैलेंद्र महतो, स्टीफन मरांडी, हेमलाल मुर्मू, साइमन मरांडी, सूरज सिंह बेसरा, बागुन सुंब्रुई जैसे सैकड़ों ऐसे बड़े नाम हैं, जो खुद या उनके परिजन सम्मान के लिए सरकार/आयोग के पास आवेदन देनेवाले नहीं हैं. तो क्या ये सम्मान के योग्य नहीं हैं. आयोग ने सुविख्यात/विख्यात आंदोलनकारी का भी प्रावधान रखा है. इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आंदोलनकारियों को सम्मानित करने में काफी विलंब हो चुका है. राज्य बने 15 साल हो गये हैं. इस अवधि में अनेक आंदोलनकारियों की मौत भी हो गयी है.
अब भी समय है. यह काम जितना तेजी से हो और समय रहते आंदोलनकारियों का सम्मान हो जाये, यही प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि झारखंड के लिए लड़नेवालों को संतोष हो. यह सही है कि रघुवर दास के कार्यकाल में यह काम तेजी से बढ़ा है, कई जिलों में सम्मान आरंभ भी हो चुका है, लेकिन बड़े और बुजुर्गों (विख्यात) का सम्मान अभी बाकी हैं. शिबू सोरेन भी इसी सूची में आते हैं. भले ही वह मुख्यमंत्री बन चुके हों, लेकिन सबसे बड़े आंदोलनकारी के रूप में सम्मान अलग सम्मान होगा. उनके लिए यह कभी संभव नहीं होगा कि वे आवेदन देंगे. यह दायित्व सरकार का है.
झारखंड के लिए लंबी लड़ाई लड़नेवाले एनई होरो अब नहीं रहे. राज्य बनने के पहले विनोद बिहारी महतो का निधन हो चुका था. एके राय धनबाद में बीमार हैं. बागुन चाईबासा में हैं और अस्वस्थ रहने की खबर आती रहती है. झगड़ू पंडित जामताड़ा में रहते हैं. राजनीति के जानकार कहते हैं-बेहतर तो यह होता कि चार-पांच बड़े-बुजुर्ग आंदोलनकारियों के घर पर जा कर खुद मुख्यमंत्री या उनके द्वारा नामित कोई वरिष्ठ व्यक्ति उन्हें यह सम्मान देते तो इसका अच्छा संदेश जाता.

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