साहित्यकारों वैज्ञानिकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों के नाम एक खुली चिट्ठीप्रिय फलां, फलां, फलां जीं, ”…. यदि असहिष्णुता नहीं होती तो (1947 में राष्ट्र न बंटता) हम आज भारत और पाकिस्तान नहीं, एक विशाल देश होते, जो चीन से भी मुकाबिल हो सकता था ” कहते हुए कमल हासन ने यह सही कहा है कि असहिष्णुता पर हर पांच साल पर बहस होनी चाहिए. (चाहे विधानसभा के हों या लोकसभा के) राजनेताओं को यह मुद्दा लेकर जनता में अवश्य जाना चाहिए. बिहार विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनाव के समय नेताओं ने और 24 घंटे के न्यूज चैनलों ने कमल हासन की भावना के अनुरूप ही काम किया है. अरूण जेटली जी ने भी बड़ी ईमानदारी से आश्चर्य जताते हुए कहा है कहां है असहिष्णुता ? उनकी बात में तो कोई छुपाव नहीं है. सदियों से सहिष्णुता की वजह से ही भारत वर्ष ‘जगद्गुुरू’ रहा है, सदियों तक रहेगा. तभी तो अलम्मा इकबाल ने कहा है कि ” कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.” महिलाओं ने सहा है, सह रही हैं, सहती रहेंगी. अस्पृश्यों-अनुसूचितों ने सहा है, नि:शक्तों, ट्रांसजेंडर या किसी भी प्रकार के वंचितों और संख्या में अधिक होते हुए भी श्रमजीवी वर्ग ने (‘सहना’ अपना परम कर्तव्य मानते हुए) बुद्धिपंडितों के आदेश निर्देश व संहिताबद्ध प्रावधानों के मुताबिक बिना किसी शिकायत के सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बने हुए हैं, तब जबकि उन्हें स्वर्ग में जाने की कल्पना भी नहीं करनी है. … और इससे राष्ट्र निरंतर प्रगति कर रहा है. जेटली आदि ने कहा है कि मोदी और आरएसएस वैचारिक कट्टरबाद के शिकार हुए हैं और कुछ मुट्ठी भर बुद्धिजीवी जिनकी बुद्धि ही शक के दायरे में है (जांचने पर कथित पुरस्कार लौटानेवाले की खोपड़ी में संभवत: मस्तिष्क का अस्तित्व भी न हो) बढ़ते शक्तिशाली राष्ट्र की प्रगति में बाधक बने हुए हैं, राष्ट्र का अपमान कर रहे हैं. राष्ट्र नेता को विकास की चिंता है इसलिए ऐसे फालतू सवालों पर समय जाया नहीं करना है. राज प्रवक्ताओं और उनसे सुर मिला कर डांटने वाले एंकरों ने ठीक-ठीक भूमिका निभाते हुए बार-बार बताया है कि ऐसे लेखकों को लिखना चाहिए, जरूरी लगे तो लिखना भी बंद करना चाहिए क्योंकि उसकी अब कोई जरूरत भी नहीं है, राष्ट्र काफी आगे बढ़ चुका है. राजनीति नहीं करनी चाहिए. अब राजनीति साध्वी, साधुओं, योगियों, योगिनों, और उनके ज्ञानी जजमानों ने संभाल ली है. सो अज्ञानियों के टर्राने का क्या मतलब? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, विचार फैलाना है, फैलाइए ना. कौन मना करता है लिखिए-मरिये? और क्या हो जायेगा? कौन पढ़ेगा? पढ़ कर भी क्या समझेगा जब सोशल और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर सब कुछ समझाया ही जा रहा है. जुकरबर्ग को खास तौर पर लगाया गया है तो आपकी पोथी कौन बांचेगा? कुछ पढ़ेगा तो क्या सिंहासन पलट देगा? वोट से बनने चलने वाला राज ही राष्ट्र है और उसे चलाना आपका काम नहीं. कुछ वजीफे इनाम जरूरी हों तो बायोडाटा भेज दीजियेगा. सही बात है अपनी संवदेना लिखने, पुरस्कार लौटाने, मीडिया बहसों में मिमियाने पर भी पूरे राष्ट्र में सहिष्णुता का प्रबल राज कायम है. कालिख पोतना, हत्या करना जैसी छोटी-मोटी अपराधिक घटनाओं से निबटने के लिए पुलिस-कानून पूरी सक्षमता से काम कर रहा है. युवा लोग विकास की इच्छा लिए पूरी तन्मयता से धनतेरस की खरीदारी के लिए योजनाओं में लगे हैं, बाजार अपनी चमक दिखाने को बेकार है. स्मार्टफाेन, लैपटॉप और टेलीविजन के जरिये वैश्विक विजन के साथ चलने वाला युवा भारत दो चार ‘चुके’ पुरस्कार प्राप्त लेखकों, वैज्ञानिकों, फिल्मकारों की कृतियों व योगदानों को जानने की जरूरत भी नहीं समझता. पूरी सहनशीलता के साथ इस बात को स्वीकार कर उन सहिष्णुता को लेकर गला फाड़ने वाले ‘हत और आहत’ आत्माओं की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें. आमीन! सवा सौ करोड़ का सहनशील भारत पूरे धैर्य से खड़ा है राष्ट्रनायक के पीछे और इस बल से हमारा नायक अमेरिका, यूरोप, अरब, इजराइल, जापान, चीन सबको धता बता रहा है. और यह पहली बार हुआ है. सवाल यह है आजादी के 69 साल क्यों बरबाद किये हमने? सहिष्णु भारत के कर्णधार युवाओं को जिंदाबाद! कहते हुए मैं अपना पत्र समाप्त करता हूं. मंगलकामनाओं सहितआपका ललनपरिधि, संस्कृतिकर्मी
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साहत्यिकारों वैज्ञानिकों, फल्मिकारों, इतिहासकारों के नाम एक खुली चट्ठिी
साहित्यकारों वैज्ञानिकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों के नाम एक खुली चिट्ठीप्रिय फलां, फलां, फलां जीं, ”…. यदि असहिष्णुता नहीं होती तो (1947 में राष्ट्र न बंटता) हम आज भारत और पाकिस्तान नहीं, एक विशाल देश होते, जो चीन से भी मुकाबिल हो सकता था ” कहते हुए कमल हासन ने यह सही कहा है कि असहिष्णुता पर […]
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