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भारत-नेपाल संबंधों में धैर्य की दरकार

भारत और नेपाल के लिए यह समय उत्तेजित होने का नहीं है, बल्कि दोनों देशों से धैर्य बनाये रखने की अपेक्षा है. लेकिन चिंता का विषय यह है कि फिलहाल इसकी संभावना बहुत कम नजर आ रही है. कोई एक साल पहले नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा ने किसी चक्रवर्ती के ‘दिग्विजयी’ अभियान का समां […]

भारत और नेपाल के लिए यह समय उत्तेजित होने का नहीं है, बल्कि दोनों देशों से धैर्य बनाये रखने की अपेक्षा है. लेकिन चिंता का विषय यह है कि फिलहाल इसकी संभावना बहुत कम नजर आ रही है.

कोई एक साल पहले नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा ने किसी चक्रवर्ती के ‘दिग्विजयी’ अभियान का समां बांध दिया था. किसी महाशक्ति या बड़ी ताकत का दौरा करने की बनिस्बत भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ने नन्हें पड़ोसी को पहला राजनयिक गंतव्य चुना अौर यह संकेत दिया कि क्षेत्रीय जड़ें मजबूत करने के बाद ही वह दूर के क्षितिज तलाशेंगे. उनकी नेपाल यात्रा का नेपाल की जनता ने ही नहीं आपस में निरंतर संघर्षरत विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी गर्मजोशी से स्वागत किया था. यह अाशा जगी थी कि निकट भविष्य में नेपाल के साथ लंबे समय से चले आ रहे विवादों का निबटारा सहज होगा अौर विचारधारा अथवा सामरिक नजरिये में मतभेद किसी संकट को जन्म नहीं देंगे. अब लग रहा है कि वह सब मरीचिका थी- करिश्माई व्यक्तित्व के चमत्कृत मीडिया द्वारा महिमामंडन ने जो माहौल तैयार किया था, वह नहीं टिका.

आज हालत यह है कि नेपाल की सरकार ने यह ऐलान किया है कि भारत द्वारा नाकाबंदी के कारण उसे घनघोर तेल संकट का सामना करना पड़ रहा है. भारत का रवैया ‘सहानुभूतिपूर्ण’ न होने के कारण मजबूर होकर उसे तेल की आपूर्ति के लिए चीन के साथ समझौता करना पड़ा है. इसका लाभ चीन ने उठा कर यह पेशकश की है कि वह एक खरब डॉलर कीमत का तेल निःशुल्क सुलभ करायेगा अौर भविष्य में नेपाल की तेल-गैस की जरूरतें पूरा करने के लिए सहायता करता रहेगा. अब तक भारत के जरिये ही नेपाल तेल खरीदता रहा है. निश्चय ही चीन का इस क्षेत्र में प्रवेश भारत के हित में नहीं समझा जा सकता. इसे भारतीय राजनय की असफलता ही समझा जाना चाहिए.

यह बात ठीक है कि नेपाल के संकट के लिए भारत नहीं खुदगर्ज अदूरदर्शी नेपाली राजनेता अौर दल ही जिम्मेवार हैं, पर निरंतर बिगड़ती स्थिति के संकेत लंबे समय से मिल रहे थे. संविधान निर्मात्री सभा से नेपाल के तराई वाले इलाके के निवासियों को जो आशा थी, उसके धूल-धूसरित होने से ही यह संकट उपजा है. जिस बंध के कारण राजधानी काठमांडो में ‘ऊर्जा संकट’ विस्फोटक बना है, उसका आयोजन-संचालन मधेसी नेपाली ही कर रहे हैं. दिक्कत यह है कि भारत ने इन आंदोलनकारियों के प्रति अपनी सहानुभूति मुखर करने में उतावली दिखलायी, जिससे नेपाल में भारत विरोधियों को यह कहने का मौका मिला कि भारत संविधान निर्माण के बारे में नेपाल को राय देनेवाला कौन होता है? नेपाल के वर्तमान प्रधानमंत्री ने यहां तक कह डाला कि भले ही नेपाल छोटा देश हो, उसकी प्रभुसत्ता छोटी नहीं! मेरा यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून कुछ भी भ्रामक मिथक गढ़ता रहा हो, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सभी ‘संप्रभु’ देशों की हैसियत समान नहीं होती. आंतरिक राजनीति में संप्रभुता का सुख निरापद भोगने के लिए वैदेशिक नीति में संप्रभुता का संकुचन अनिवार्यतः स्वीकारना पड़ सकता है. यह बात भारत पर भी उतना ही लागू होती है, जितना नेपाल या भूटान अथवा मालदीव पर! यह बात भी नजरंदाज नहीं की जा सकती कि आकार, आबादी अौर भूराजनीतिक स्थिति में जमीन आसमान का फर्क होने की वजह से भारत को उसके अन्य पड़ोसियों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता.

नेपाल के शासक वर्ग ने चीनी तुरुप का पत्ता खेलने की कोशिश एकाधिक बार की है. महाराज महेंद्र के कार्यकाल से भारत के प्रभाव को संतुलित करनेवाला राजनय कारगर समझा जाता रहा है. कड़ुवा सच यह है कि एक बार इस तुरुप चाल के बाद फिर कुछ बचा नहीं रह जाता. यह जगजाहिर है कि चीन उस तरह नेपाल की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता जैसे भारत. तेल को ही लें, यह कल्पना करना कठिन है, हजारों किमी फैले दुर्गम तिब्बती पठार को पार कर सड़क मार्ग से लाखों मीट्रिक टन तेल नेपाल तक नियमित रूप से पहुंचाया जा सकता है. इस बार नेपाल के सत्तारूढ़ तबके ने भी अदूरदर्शिता अौर खुदगर्जी दिखलायी है. सिर्फ भारतीय राजनय के कर्णधारों के सिर पर इस घातक चूक का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता.

यदि मधेस का गतिरोध समाप्त करने की पेशकश भारत करता है, तो उसे नेपाल की आंतरिक राजनीति में नाजायज दखलंदाजी का अभियुक्त बनाया जायेगा. यदि तटस्थ रहता है, तो इसे मधेस के प्रति पक्षपात का प्रमाण बताया जायेगा. जाहिर है इस शिकंजे में भारत सरकार स्वयं फंसी है.

अब तक हमारा विदेश मंत्रालय काठमांडो को ही सत्ता का केंद्र मान कर राजनय संपादित करता रहा है. कुछ समय पहले तक महल अौर फौज को संतुष्ट कर ही नेपाल वाली चुनौती का समाधान ढूंढ़ा जाता रहा है. तमाम नेपाल विशेषज्ञ नेपाली माअोवादियों के प्रति आशंकित रहे हैं अौर इन्हें भारत में बागी माअोवादी तत्वों का मददगार समझने की नादानी करते रहे हैं. हकीकत यह है कि नेपाल की भौगोलिक विविधता तथा सामाजिक बहुलता भारत से कम नहीं. आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन ने वर्ग संघर्ष के हिंसक विस्फोट की जमीन तैयार की है. दशकों चला गृहयुद्ध इसी कारण त्रासद बना. आज प्रचंड अौर बाबूप्रसाद भट्टराई संसदीय राजनीति में हिस्सेदार हैं, पर असंतोष व्यापक हैं. सवर्ण अौर दलित, शहरी अौर देहाती, जनजातीय तथा अल्पसंख्यक के बीच की खाई भीषण है. सामंती संस्कार की जड़ें आज भी हमारी ही तरह पड़ोस में भी गहरी दबी हैं. महिला उत्पीड़न हो या अल्पसंख्यक तबके का कुनबापरस्त भ्रष्ट ‘जनतंत्र’ का अभिशाप, नेपाल भारत की तरह ही झेलता रहा है.

इस घड़ी भारत में असहिष्णु अधिनायकवाद को निशाना बना कर यह आरोप लगाना सहज है कि नेपाल के संकट की अनदेखी बिहार चुनावों के कारण हुई है या इन्हीं चुनावों में मधेस के दर्द को भुनाने की नासमझ कोशिश में राजनय पथभ्रष्ट हुआ है, पर इसे नकारा नहीं जा सकता कि नेपाल में संविधान निर्माण हो या जनतंत्र का वास्तव में बीजारोपण, इस बारे में भारत के विकल्प सीमित हैं. यह समय उत्तेजित होने का नहीं- नेपाल अौर भारत दोनों से ही धैर्य अपेक्षित है. चिंता का विषय यह है कि इसकी संभावना बहुत कम नजर आ रही है. क्योंकि, एक अोर करिश्माई तिलिस्म पर अंधविश्वास अौर अहंकार है, तो दूसरी तरफ अतिराष्ट्रवादी अभिमान!

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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