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एक विश्वास के टूटने की दास्तान

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस अब से कोई पैंसठ साल पहले की बात है. कतार में खड़े आखिरी व्यक्ति के आंख से आंसू पोंछने के वादे के साथ ‘इंडिया दैट इज भारत’ में जनता की चुनी हुई सरकार बन चुकी थी. आजादी की लड़ाई की यादें अभी इतनी धुंधली नहीं पड़ी थीं कि लोगों को […]

चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
अब से कोई पैंसठ साल पहले की बात है. कतार में खड़े आखिरी व्यक्ति के आंख से आंसू पोंछने के वादे के साथ ‘इंडिया दैट इज भारत’ में जनता की चुनी हुई सरकार बन चुकी थी. आजादी की लड़ाई की यादें अभी इतनी धुंधली नहीं पड़ी थीं कि लोगों को लगे इस देश में शासन का ‘तंत्र’ तो ‘लोक’ से कटा हुआ है.
बेशक खाने को अनाज नहीं था, दुश्मन से लड़ने को हथियार नहीं थे. तो भी, एक विश्वास था कि अंगरेजी साम्राज्य के हाथों बहुत गंवा चुके भारत के दिन बहुरेंगे, राजनेता जनता का सेवक बन कर देश-सेवा करेंगे. नेता इस विश्वास की रक्षा का यकीन दिलाते थे. विश्वास-रक्षा का यही सवाल रहा होगा, जो उस वक्त राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद आज के छत्तीसगढ़ के एक जिले सरगुजा के गांव पंडोपुर पहुंचे.
आदिवासियों के दुख-सुख को नजदीक से महसूस करने के लिए राष्ट्रपति ने दो दिन गांव में ही बिताने का निश्चय किया. कंदमूल के सहारे भूख मिटाने और किसी तरह जिंदगी के दिन काटनेवाले लोगों के उस गांव में घूमते हुए राजेंद्र प्रसाद ने कुशल-क्षेम जानने के नाते कोरवा जनजाति के एक व्यक्ति से पूछा- रोटी खा ली? कोरवा का जवाब था- ‘रोटी क्या चीज होती है?’ भूख जिसका दैनंदिन का अनुभव हो, वह जवाब में भला और क्या कहता! राष्ट्रपति को राहत का ख्याल आया. उन्होंने कोरवा जनजाति को गोद लिया, आदेश हुआ कि गांव के प्रत्येक परिवार को दस एकड़ जमीन दी जाये, ताकि वे भुखमरी की दशा से बाहर निकलें.
पैंसठ साल पुराने इस वाकये ने अपने को अजीब तरह से दोहराया है. सरगुजा से जसपुर नगर कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर होगा. जसपुर नगर के कोरवा समुदाय का एक प्रतिनिधिमंडल इस हफ्ते राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलने पहुंचा है.
और, अचरज कीजिए कि मिलने की वजह एक बार फिर से रोटी ही है. इस प्रतिनिधिमंडल के पास महामहिम को सुनाने के लिए एक कहानी है- भुखमरी की दर्दनाक कहानी. इलाके का एक बुजुर्ग पहाड़ी कोरवा लंबूराम इस माह के पहले पखवाड़े में एक दिन पत्नी की बीमारी का इलाज कराने अपने गांव से कई कोस दूर पर मौजूद एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पहुंचा. इलाज हुआ, लेकिन उपचार की जरूरत के हिसाब से अस्पताल में ही रुकना पड़ा. अस्पताल में खाने-पीने की सुविधा नहीं थी और ना ही लंबूराम की जेब में इतने पैसे थे कि कुछ खरीद कर अपना और पत्नी का पेट भर सके.
लंबूराम तीन दिनों तक भूखा-प्यासा रहा. चौथे दिन पत्नी को पीठ पर लादकर अपने गांव को चला. बारिश आता देख रास्ते के एक खेत में बनी छपरी में इस दंपत्ति ने शरण ली. इसी बीच उम्र के साठ साल पूरे कर चुके लंबूराम के सीने में दर्द उठा और उसकी आंखें हमेशा के लिए मुंद गयीं. छत्तीसगढ़ का शासन-प्रशासन हैरान-परेशान है. पक्ष और विपक्ष की राजनीति ने अपनी सुविधा के हिसाब से लंबूराम की कहानी को मुआवजे की मांग और राहत की घोषणा की लीक पर बांट लिया है.
कोई-कोई कह रहा है लंबू राम ऐसा भी गरीब ना था, उसके कब्जे में कुछ कट्ठा खेत थे. कहानी का यह करुण सिरा हाथ से छूट गया है कि लंबूराम का परिवार भोजन के अधिकार कानून की दुहाई देनेवाले रमन सरकार के शासन के भीतर इतना मजबूर था कि पिछले साल बीमारी के उपचार कराने के लिए रकम जुटाने की बात आयी, तो उसे अपना राशन-कार्ड मोटी गांठ वाले किसी बिचौलिये को एक हजार रुपये में गिरवी रखना पड़ा.
पहाड़ी कोरवा को गोद लेनेवाले राजेंद्र प्रसाद और पहाड़ी कोरवा का दुख सुननेवाले प्रणब मुखर्जी के बीच भारत ने पूरे छह दशक की यात्रा की है. इस बीच अर्थव्यवस्था पौने तीन लाख करोड़ से बढ़ कर 57 लाख करोड़ रुपये की हो चुकी है.
लेकिन लकड़ी चुन कर, महुआ बीन कर जीविका चलाने पर मजबूर लंबूराम और उसकी पत्नी सुकनी के पास इस 57 लाख करोड़ की कितनी पायी पहुंची है? सवा अरब आबादी वाले भारत के बारे में एफएओ (यूएन) की नयी रिपोर्ट कह रही है कि 20 करोड़ लोग दो जून की रोटी को मोहताज हैं. पिछले साल नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट ने बताया कि देश के चौदह बड़े राज्यों के ग्रामीण इलाके में लोगों को रोजाना 2,400 किलोकैलोरी का भोजन भी हासिल नहीं है.
सरकारी गोदाम अनाज से भरे हैं, सरकार का खजाना रुपये से भरा है, शासन जनता की अधिकारिता के कानूनों से भरा है. छह दशकों में अगर कुछ खत्म हुआ है, तो यह विश्वास कि सरकार कतार में खड़े आखिरी आदमी की आंख का आंसू पोंछ सकती है.

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