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हैं विदेशी, मगर सेवा भारत की
प्रतिभाशाली अप्रवासी भारतीयों व विदेशियों को भारत में काम करने का अवसर जो लोग यह सोच कर शुरुआत नहीं करते कि वह तैयार नहीं हैं, वह कभी तैयार नहीं होते. अगर आपके पास कोई आइडिया है और आपको उस पर भरोसा है तो आपको शुरुआत कर देनी चाहिए. यह मानना है ट्रॉय अर्स्टलिंग का. जानिए […]
प्रतिभाशाली अप्रवासी भारतीयों व विदेशियों को भारत में काम करने का अवसर
जो लोग यह सोच कर शुरुआत नहीं करते कि वह तैयार नहीं हैं, वह कभी तैयार नहीं होते. अगर आपके पास कोई आइडिया है और आपको उस पर भरोसा है तो आपको शुरुआत कर देनी चाहिए. यह मानना है ट्रॉय अर्स्टलिंग का. जानिए उनकी कोशिशों के बारे में….
अकसर भारत से विदेश जाकर पढ़ाई करते हुए देखा है, विदेश में नौकरी पाकर फिर कभी अपने देश न लौटने वालों को भी देखा है. उन्हें अपने देश के बजाय विदेश ज्यादा पसंद हैं. ऐसे में एक अमेरिकी नागरिक भारत आया और हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया. और अब वह दूसरों को भी यहां आने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. इनका नाम है ट्रॉय अर्स्टलिंग, जो कई अाप्रवासी भारतीयों एवं विदेशियों को यहां काम करने के अवसर भी प्रदान कर रहे हैं.
ट्रॉय उनके लिए न केवल स्वैच्छिक बल्कि पूर्णकालिक उच्च-वेतन वाली नौकरियां उपलब्ध कराते हैं बल्कि नये-नये टेक्नोलॉजी स्टार्ट अप में सहायता करते हैं. उनका कार्यक्षेत्र बेंगलुरु है. वैसे बेंगलुरु में आइटी से जुड़े लोगों की कमी नहीं है, लेकिन जरूरत के हिसाब से वो पर्याप्त नहीं है. मार्केटिंग, डिजाइन, टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में प्रतिभा की कमी दिखती है. साथ ही दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे प्रतिभावान लोग हैं जिन्हें समुचित मौका नहीं मिल पाता. उन लोगों को यहां लाने में ट्रॉय लगे हुए हैं.
उन्होंने इस काम के लिए पिछले साल ‘ब्रेनगेन’ नाम से अपनी एक कंपनी बनायी है. और इसके माध्यम से वे अब तक सात भिन्न देशों से 15 विदेशी नागरिकों को नियुक्त कर चुकी है. इन देशों में चीन, स्पेन, फ्रांस, दक्षिण कोरिया और पोलैंड शामिल है. वे सिर्फ विदेशियों को ही नहीं बल्कि भारतीय मूल के लोगों और प्रवासी भारतीयों को भी भारत लाने में मदद कर रहे हैं. अपने इस काम के लिए ब्रेनगेन उम्मीदवारों से कोई पैसा नहीं लेता है. वह नियोक्ता कंपनी से उम्मीदवार के प्रथम वर्ष के वेतन का 15 प्रतिशत ही लेते हैं.
भारत आने से पूर्व वह दक्षिण कोरिया गये थे. वहां बच्चों को अंगरेजी सिखाया करते थे. वह छह महीने की एक फेलोशिप के लिए बेंगलुरु आये थे, जिसमें युवा नेताओं को दुनिया भर के सामाजिक उद्यमों के उभरते बाजार से जोड़ा जा रहा था. इसी दौरान उन्हें एक कार की रेंटल कंपनी में काम करने का अवसर मिला. उन्होंने एक साल तक वहां काम भी किया. इसके बाद उन्होंने अपनी कंपनी शुरू की.
पहले वर्ष वह अपने संपर्क से बहुत सारी कंपनियों में गये तो उन्हें 15 कंपनियां मिली, जो विदेशी लोगों को रखने के लिए तैयार थी. उन्होंने पहले उनसे पूछा कि उन्हें किस तरह के प्रोफेशनल चाहिए, और फिर उसी के अनुसार उन्होंने संभावित लोगों को ढूंढना शुरू किया. वे वापस अमरीका गये और वहां के बड़े-बड़े बिज़नेस स्कूलों जैसे हार्वर्ड एंड कॉर्नेल से संपर्क किया. यहां उन्हें कुछ छात्र मिले जो भारत में काम करने के इच्छुक थे. ये छात्र जॉब प्रोफाइल को ले कर अधिक उत्साहित थे.
भारत आनेवालों का रखते हैं विशेष ख्याल : वह नये उम्मीदवारों का विशेष ख्याल रखते हैं. वह उनका स्वागत खुद करते हैं और उन्हें लेने एयरपोर्ट जाते हैं. एयरपोर्ट से उन्हें ले जाकर नाश्ता करवाते हैं. इसके बाद उन्हें जरूरी सामानों की खरीदारी करवाते हैं. उनके रहने से लेकर सभी जरूरी सुविधाओं का विशेष ध्यान रखते हैं. नये उम्मीदवार हमेशा फोन द्वारा उनसे जुड़े रहते हैं और फोन पर लगातार मेसेज से हर मसले पर उनकी सलाह लेते हैं.
उनके प्रयासों से न केवल भारतीय टेक्नोलॉजी स्टार्ट अप के लिए प्रतिभावान व्यक्ति मिले हैं, बल्कि विदेशी लोगों के लिए एक ऐसे देश में काम करने और रहने का अनुभव मिला है जहां उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. इससे भारत के प्रति उन लोगों का नजरिया भी बदला है. भारत के लिए उनका प्रेम बढ़ता ही जा रहा है और साथ ही वे यहां के मौसम के साथ भी ढल चुके हैं. वे ब्रेनगेन के अलावा खुद को व्यस्त रखने के लिए बहुत सारी दिलचस्प चीज़ें भी करते हैं जैसे एनिमेशन फिल्मों में आवाज देना.
ट्रॉय आगे चल कर अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों को भारत लाना चाहते हैं. उन्हें कई उच्च शिक्षित लोगों, जैसे केमिकल एवं मैकेनिकल इंजीनियर, वैज्ञानिक और अन्य लोगों के आवेदन प्राप्त हुए हैं, लेकिन वह अभी उनके लिए उपयुक्त नौकरियां नही ढूंढ़ पाये हैं.
उनका मानना है कि जो लोग यह सोच कर शुरुआत नहीं करते कि वे तैयार नहीं हैं, वे कभी तैयार नहीं होते. और, अगर आपके पास कोई आइडिया है और आपको उसपर भरोसा है तो आपको शुरुआत कर देनी चाहिए.
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