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कहीं टूट न जायें नेपुरा की महिलाओं के हौसले

अजय कुमार नेपुरा (नालंदा) : घर की चौखट लांघ कर अमेरिका और सिंगापुर जाने वाली नेपुरा गांव की औरतों के हौसले अब टूट रहे हैं. उनके बनाये एप्लिक और सुजनी बक्से में बंद हो चुके हैं.बाकी सामान बेतरतीब हैं. खतरा औरतों के फिर से पुरानी स्थिति में लौट जाने का भी है. नालंदा-राजगीर सड़क के […]

अजय कुमार
नेपुरा (नालंदा) : घर की चौखट लांघ कर अमेरिका और सिंगापुर जाने वाली नेपुरा गांव की औरतों के हौसले अब टूट रहे हैं. उनके बनाये एप्लिक और सुजनी बक्से में बंद हो चुके हैं.बाकी सामान बेतरतीब हैं. खतरा औरतों के फिर से पुरानी स्थिति में लौट जाने का भी है.
नालंदा-राजगीर सड़क के बगल में बसे नेपुरा को गांव की महिलाओं ने नयी पहचान दी. लेकिन, घर से निकलना महिलाओं के लिए इतना आसान भी नहीं था. रश्मि रानी बताती हैं, मर्द लोग बहुत ताना देते थे. वे इल्जाम लगाते थे कि महिलाएं गांव को बरबाद करने पर तुली हैं. चूल्हा-बर्तन छोड़ महिलाओं के स्वयं सहायता समूह की गतिविधियों में शामिल होना उन्हें अखर रहा था. हालांकि कइ पुरुषों ने उन्हें सपोर्ट भी किया. रश्मि कोऑपरेटिव की ट्रेजरर हैं.
250 घरों वाले इस गांव में 40 घर बुनकरों के हैं. यह उनका पुश्तैनी काम है. पर महिलाओं की पहल तब खुली जब उन्होंने स्वयं सहायता समूह बनाया. उन्होंने बैंक की शुरुआत की. इसी बीच यूएनडीपी (यूनाइटेड नेशन डेवलप्मेंट प्रोग्राम) ने ग्रामीण भारत के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया.
ग्रामीण पर्यटन के तहत नेपुरा का चुनाव हुआ. महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग, एप्लिक, सुजनी, कुशन कवर, पिलो कवर, बैग वगैरह तैयार करने के लिए ट्रेनिंग दी गयी. महिलाओं ने दो सहकारी समिति भी बना ली. समिति के जरिये उनके सामान बिकने लगे. यूएनडीपी की ओर से गांव की रेणु देवी को अमेरिका और मालती देवी को सिंगापुर भेजा गया.
महिलाओं की सहकारी समिति के लिए गांव में ही एक बड़ी बिल्डिंग भी बनी. चार साल पहले बिल्डिंग तैयार हो गयी. पर, उसे महिलाओं को सौंपा नहीं जा सका है. अब तो इसका प्लास्टर जगह-जगह से झड़ने लगा है. रेणु कहती हैं, ठेकेदार ने गड़बड़ कर दिया. पता नहीं क्यों बिल्डिंग भी हमें नहीं दी जा रही है.
सामान का ऑर्डर नहीं मिलने से उनके पास काम भी नहीं है. मालती कहती हैं, जब काम नहीं होगा, तो हम क्या करेंगे? बिहारशरीफ में जब हमने इस बारे में पता किया तो बताया गया कि यह पायलट प्रोजेक्ट नियत समय तक के लिए था. मंजू देवी कहती हैं, बहुत मुश्किल से हम घर से निकलकर यहां तक पहुंचे. अब रास्ते बंद होते दिख रहे हैं. यह चिंता अकेले सिर्फ मंजू का नहीं है.
नेपुरा का भले ही काफी नाम हुआ, पर उसकी किस्मत नहीं बदली. बुनकर प्रकाश राम मिलते हैं. हम अखबारवाले हैं, यह सुनते ही वह प्रतिसवाल करते हैं: अखबार में छप जाने से क्या होगा?
अक्सर यहां कोई न कोई आता है. लेकिन हम जैसे थे, वैसे ही है. नाराज प्रकाश अपने घर में चले जाते हैं. उनका करघा चलता रहता है. उधर,सड़क पर प्रचार वाहन दौड़ रहे हैं. गांवों का विकास और महिलाओं को सशक्त बनाने का नारा नेपुरा को चिढ़ाता हुआ हवा में तैर रहा है.

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