प्रभात रंजन
कथाकार
मैंने राजन भईया को फोन किया. बिहार चुनावों के बारे में जानना चाहता था. कहने लगे कि देख रहे हो भाषा की मर्यादा रोज-रोज टूट रही है. अब तो चुनावों में याद रखनेवाले नारे भी नहीं सुनाई देते. ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है/ भावी इतिहास तुम्हारा है/ ये नखत अमा के बुझते हैं/सारा आकाश तुम्हारा है.’
1977 के चुनावों और उससे पहले 1974 में जेपी के नेतृत्व में चले छात्र आंदोलन में रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं गूंजती थीं. अजीब बात है कि आजीवन कांग्रेसी रहे दिनकर की कविताएं 1977 के आम चुनावों में मतदाताओं को अपील करनेवाले नारे में बदल गयीं- ‘दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!’
1980 में हुए मध्यावधि चुनाव तक आते-आते नारों में झलकता यह आशावाद गायब होने लगा. मुजफ्फरपुर में बेनजीर बाई की ढहती दीवार पर यह नारा पढ़ने के लिए मैं पहली बार ठिठका था. वहां के सांसद जॉर्ज फर्नांडिस थे, चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री- ‘देखो जॉर्ज-चरण का खेल/ खा गया चीनी पी गया तेल!’ क्या जमाना था, जब दीवार की लिखावटें, पढ़नेवाले को जनता का मूड बता देती थीं!
उससे कुछ समय पहले ही एक नारा पढ़ा था- ‘एक शेरनी सौ लंगूर/ चिकमंगलूर चिकमंगलूर! बालपन में इसे मैं कविता की पंक्ति समझ कर दोहराता था. बहुत बाद में समझ आया कि चिकमंगलूर के उपचुनाव में इंदिरा गांधी के लिए यह नारा बनाया गया था. उसी जीत के साथ इंदिरा गांधी की वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई थी.
जब कुछ और सयाना हुआ, तो सोचने लगा कि यह नारा किसने लिखा होगा? वैसे मेरी स्मृतियों में अटकी बाद की अधिकतर कविताओं के कवि गुमनाम ही रहे. सोचता हूं, किसने लिखा होगा यह नारा- ‘वीर महोबिया कड़ाम-कड़ाम/ बम फूटेगा बड़ाम-बड़ाम! कौन था वह गुमनाम कवि, जिसने उत्तर बिहार में जनदाहा विधानसभा क्षेत्र की दीवारों पर यह नारा लिखा या लिखवाया था, जो धीरे-धीरे बिहार की बदलती राजनीति का मुहावरा बन गया. उस साल वहां से वीरेंद्र सिंह महोबिया ने चुनाव जीता था.
एक और नारा- ‘रोम पोप का, सहरसा गोप का!’ हाजीपुर की धरती के उस सुकवि से मिलने की बड़ी हसरत है, जिसने यह नारा लिखा था- ‘ऊपर आसमान/ नीचे पासवान!’ कहते हैं, इस नारे ने ही तब वहां से एक करिश्माई नेता को रिकॉर्ड मतों से संसद पहुंचाया था.
1990 के आसपास से चुनावों में तनाव बढ़ने लगा. ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनायेंगे’ या ‘हुई भूल सो गयी भूल, अब न भूल कमल का फूल’ जैसे नारे फिजाओं में गूंजने लगे, तो दूसरी ओर फुसफुसाहटों में ‘भूरा बाल साफ करो’ जैसे उद्घोष गूंजने लगे.
फिजा बदलने लगी थी. 1989 में शायर सूर्यभानु गुप्त ने यह शेर लिख कर जैसे रचनात्मक नारों की बिदाई का संदेश लिख दिया था- ‘वादे जुलूस नारे फिर-फिर वही न/ जागीर है ठगों की कब से तमाम जंगल!’ और नारों से रचनात्मकता गायब होने लगी.राजन भईया ने रचनात्मकता की बात उठायी और मेरा मन ना जाने कहां से कहां जाने लगा!