अपने देश में राजनीतिक सिस्टम कितना खुला है? यह सही है कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और 18 साल से ज्यादा की उम्र के हर नागरिक को वोट देने का अधिकार है. लेकिन क्या संसद और विधानसभाओं में चुने जाने के लिए भी हमें बराबर मौके मिलते हैं?
एक आम नागरिक वोट तो दे सकता है, लेकिन संसद या विधानसभा में पहुंचने के लिए पर्याप्त वोट पाने की संभाव्यता उसके लिए है क्या? यदि कोई आम नागरिक निचले स्तर से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करता है, तो क्या उसके संसद या विधानसभा में पहुंचने की प्रायिकता वही होगी, जो इस समय संसद में निर्वाचित होकर पहुंचे हुए जनप्रतिनिधियों की है? इस समय बिहार में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है और इसलिए ये सवाल और ज्यादा प्रासंगिक हैं.
इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं. पैट्रिक फ्रेंच ने 2009 की लोकसभा के सदस्यों का अध्ययन किया और उसके बाद न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस की प्रोफेसर डॉ कंचन चंद्रा ने इस पर एक पेपर लिखा, जो 12 जुलाई, 2014 के ‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित हुआ. फ्रेंच के अध्ययन के मुताबिक, 2009 की लोकसभा में 29 फीसदी यानी लगभग एक तिहाई सदस्य राजनीतिक परिवार से जुड़े हुए थे. 30 साल से कम उम्र के सभी सदस्य और 40 वर्ष से कम उम्र के दो-तिहाई सदस्य राजनीतिक परिवारों से ही थे.
करीब 70 फीसदी महिला सदस्य राजनीतिक परिवारों की ही थीं. यही नहीं, इनमें से 27 लोकसभा सदस्य राजनीतिक परिवारों की तीसरी या चौथी पीढ़ी के थे. डॉ कंचन चंद्रा ने मौजूदा लोकसभा के सदस्यों का भी अध्ययन किया है. इसके मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 22 फीसदी सदस्य राजनीतिक परिवारों से हैं. इनमें भाजपा के 15 फीसदी लोकसभा सदस्य, कांग्रेस के 48 फीसदी लोकसभा सदस्य और समाजवादी पार्टी के 100 फीसदी लोकसभा सदस्य परिवादवाद की देन हैं.
इस समय 36 राजनीतिक दल संसद में हैं, जिनमें से 13 के लीडर परिवारिक उत्तराधिकारी हैं. उपरोक्त आंकड़ों से सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राजनीतिक परिवार के सदस्यों और एक आम नागरिक के लोकसभा या विधानसभा में चुन कर जाने का मौका मिल पाने की संभाव्यता में कितना अंतर हो सकता है. वह भी खास कर तब, जब इन 36 राजनीतिक दलों में 24 दल परिवार नियंत्रित हों.
आइये बिहार पर नजर डालें. राज्य से करीब एक चौथाई लोकसभा सदस्य राजनीतिक परिवारों से हैं. बिहार में इस समय विधानसभा चुनावों में 35 राजनीतिक परिवारों के 44 लोग मैदान में हैं.
इसके अलावा छह ऐसे व्यक्ति भी मैदान में हैं, जो हैं तो राजनीतिक परिवार से, लेकिन उन्हें राजनीतिक संरक्षण अपने परिवारों से नहीं मिला. इनमें वे लोग व परिवार शामिल नहीं हैं, जो अपनों के लिए टिकट चाह तो रहे थे, लेकिन उन्हें संबंधित राजनीतिक दल से टिकट नहीं मिला.
यानी परिवारवाद का मामला सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि राजनीति के हर हिस्से में नये नेहरू-गांधी परिवार उग चुके हैं और लगातार उगते जा रहे हैं. बिहार विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो यही दिखाई देगा.
राजनेताओं से पूछिये तो उनका तर्क होता है कि जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन सकता है, तो राजनेता का बेटा राजनेता क्यों नहीं. पहली नजर में यह तर्क जायज लगता है, लेकिन जरा बारीकी से देखिये. डॉक्टर का बेटा सिर्फ इसलिए डॉक्टर नहीं बन जाता कि उसके पिता डॉक्टर हैं, बल्कि एक डॉक्टर के बेटे को भी वही टेस्ट पास करने होते हैं जो एक गैर डॉक्टर के बेटे को.
डॉक्टर के बेटे को भी उतने ही साल मेडिकल की पढ़ाई करनी पड़ती है, जितनी किसी दूसरे के बेटे को. यही बात हर पेशे पर लागू होती है, सिवाय दुकानदारी के. यानी राजनीति को अपनी दुकान मानते हैं परिवारवाद के पोषक राजनेता. पिछले दिनों एक बड़े राजनेता ने कह ही दिया कि उसके बेटे राजनीति नहीं करेंगे तो क्या भैंस चराएंगे! यह सवाल तो है, लेकिन इसका जवाब सिर्फ वही नहीं है जो उस राजनेता ने दिया.
राजनीति में बढ़ते परिवारवाद को शिकस्त देने की जरूरत है. यह जरूरत इसलिए है कि राजनीति में नये लोग आ सकें, इसलिए है कि राजनीति में समाज के तमाम हिस्सों, समुदायों, वर्गों आदि का प्रतिनिधित्व हो सके, इसलिए है कि राजनीति में नयी सोच और नये विचार पनप सकें. देश और राज्य की राजनीति पर परिवारवाद की अजगरी जकड़न बनी रही तो सिर्फ चुनाव जीतने की तीन-तिकड़म की ही राजनीति होती रहेगी, लोगों की दशा सुधारने और समाज को दिशा देने की राजनीति हाशिये पर ही रहेगी.