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डिजिटल इंडिया की प्रासंगिकता
सोपान जोशी पत्रकार एवं शोधार्थी, गांधी शांति प्रतिष्ठान प्रसंग एक सुंदर शब्द है. ध्वनि में मधुर, अर्थ में विविध. अपने-अपने स्मार्टफोन और टैबलेट में लीन, अकेलेपन की काल-कोठरी में बंद लोगों को ‘प्रसंग’ शब्द में दूसरे लोगों का ‘संग’ भी मिलता है. अगर संग हो तो फिर प्रासंगिकता भी आ टकराती है. प्रासंगिकता किसी व्यक्ति […]
सोपान जोशी
पत्रकार एवं शोधार्थी,
गांधी शांति प्रतिष्ठान
प्रसंग एक सुंदर शब्द है. ध्वनि में मधुर, अर्थ में विविध. अपने-अपने स्मार्टफोन और टैबलेट में लीन, अकेलेपन की काल-कोठरी में बंद लोगों को ‘प्रसंग’ शब्द में दूसरे लोगों का ‘संग’ भी मिलता है. अगर संग हो तो फिर प्रासंगिकता भी आ टकराती है. प्रासंगिकता किसी व्यक्ति या घटना को उसके संदर्भों से जोड़ती है. उन संबंधों से, जिन्होंने उस व्यक्ति या घटना को बनाया हो.
गांधीजी की प्रासंगिकता पर 2 अक्तूबर को भाषण और सेमिनार होते हैं. इसलिए नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करनेवालों में सत्य और अहिंसा की ललक अचानक जाग जाती है, बल्कि इसलिए कि यह तारीख कैलेंडर या फोन के रिमाइंडर-अलार्म की तरह हमें एक ऐसी बात याद दिलाती है, जिसे हम भूल गये हैं. ऐसी अवस्था में ग्लानि सहज भावना होती है. ग्लानि से किये कर्म में न तो विवेक होता है, न ही प्रायश्चित, उसमें केवल खानापूर्ति होती है. हमारे चारों तरफ ऐसे प्रसंग फैले हैं, जिनके व्यवहार में हमें गांधीजी याद आने चाहिए, फिर चाहे हम उनकी करी या लिखी बातों से एकमत हों या नहीं. ऐसा और कौन होगा, जिसकी लिखाई का समग्र 100 खंडों के 50,000 पन्नों में फैला हो? ऐसा कौन सा विषय है, जिसके लिए संदर्भ गांधीजी के जीवन और उनकी लिखाई में न मिलें?
डिजिटल इंडिया को ही ले लीजिए. सन् 1948 में जब गांधीजी की हत्या हुई थी, तब तक कुछ बुनियादी कंप्यूटर ही बने थे, जो या तो इने-गिने विश्वविद्यालयों के शोध तक सीमित थे, या खुफिया सैनिक गतिविधियों में. किसी को अंदाजा नहीं था कि कुछ ही वर्षों में करोड़ों लोग छोटे-बड़े कंप्यूटरों की मदद से हर तरह के काम करने लगेंगे. लेख भी कंप्यूटर पर लिखे जायेंगे, उन्हें छापनेवाले अखबार भी कंप्यूटरों पर ही रचे जायेंगे, और कई पढ़नेवाले भी उन्हें कंप्यूटर पर ही पढ़ लेंगे. लेकिन गांधीजी को सर्वाधिकार, यानी कॉपीराइट, के बारे में पता था. और कंप्यूटरों की दुनिया जितनी बिजली से चलती है, उतनी ही कॉपीराइट से भी चलती है.
आज दुनिया के सबसे अमीर लोगों में कंप्यूटर की दुनिया के लोग शुमार होते हैं. कॉपीराइट के बिना ऐसी अमीरी असंभव है. सर्वाधिकार के पीछे विचार यह है कि लोगों को उनके किये काम का मुनाफा मिलना चाहिए. व्यापार की आंख से देखें, तो यह बात वाजिब लगती है. लेकिन क्या कंप्यूटरों की दुनिया सर्वाधिकारों को मानती है? नहीं, कंप्यूटर की दुनिया के कई, बल्कि कहना चाहिए ज्यादातर, व्यापार कॉपीराइट तभी मानते हैं, जब ये उनके अपने आविष्कारों पर लागू होता हो. ऐसी कंपनियों की भरमार है, जो दूसरों की रचनाओं को बिना आज्ञा के इस्तेमाल करती हैं. इसीलिए इन कंपनियों के एक-दूसरे पर कानूनी दावे लगे रहते हैं. कई बड़ी कंपनियां वकीलों और अभियोगों पर हर साल अरबों डॉलर खर्च करती हैं.
एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट को ही लीजिए, कंप्यूटर की दुनिया की दो बड़े नाम. 1980 के दशक से ही दोनों कंपनियां एक-दूसरे पर कानूनी अभियोग ठोकती आ रही हैं, सर्वाधिकार के उल्लंघन को लेकर. या मोबाइल फोन की दुनिया में सैमसंग और एप्पल के बीच की कानूनी महाभारत ही ले लीजिए. आये दिन दोनों के बीच के किसी न किसी अभियोग के करोड़ों डॉलर में निपटारे की खबरें आती हैं.
सर्वविदित है कि ये कंपनियां एक-दूसरे के काम को चुराती रही हैं. फिर भी ये एक-दूसरे के सर्वाधिकार का सम्मान करने की बात करती हैं. मुंह में राम, बगल में छुरी. क्योंकि किसी भी कंपनी की असली जवाबदेही केवल अपने शेयर-धारकों के प्रति होती है, किसी सामाजिक या नैतिक या संवैधानिक संहिता के प्रति नहीं. यही कारण है कि सामाजिक और न्यायिक जिम्मेवारी किसी कंपनी को नहीं दी जाती. उसके लिए लोगों की चुनी सरकार है, न्यायपालिका है, विधायिका है. ये संस्थाएं सार्वजनिक हित के लिए बनी हैं, सार्वजनिक हित की रक्षा इनकी सबसे बड़ी जिम्मेवारी है. जैसे-जैसे सरकारी और आर्थिक कामकाज कंप्यूटरों पर निर्भर होता जा रहा है, यह और भी जरूरी हो रहा है कि सॉफ्टवेयर और उसकी जानकारी रखने के तरीके किफायती हों, सुरक्षित हों, और सार्वजनिक हित में हों. किसी एक कंपनी के मोहताज न हों. सरकारी जानकारी, आंकड़े और लेन-देन ऐसे मानकों में होना चाहिए, जो सदा-सदा सरकार का हो, किसी कंपनी के मुनाफे या घाटे से संबंधित न हो.
ऐसी एक दुनिया कंप्यूटर के संसार में मौजूद है. इसे ‘फ्री और ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर’ की दुनिया कहते हैं. अंगरेजी में इसका छोटा शब्द है ‘फॉस’. इसमें ‘फ्री’ से माने मुफ्त नहीं, मुक्त है. इसमें इस्तेमाल करनेवाले को कई सुविधाएं दी जाती हैं, ज्यादातर सॉफ्टवेयर मुफ्त भी रहते हैं, क्योंकि उन्हें बनानेवाले खुद उनका सर्वाधिकार लोकार्पित कर देते हैं. कंप्यूटर की दुनिया में यह सामाजिकता की मिसाल है. लेकिन इसका प्रचार नहीं होता, क्योंकि इसके प्रसार में किसी का व्यक्तिगत मुनाफा नहीं है. इसलिए ज्यादातर लोग कंप्यूटरों के इस सामाजिक संसार से अनभिज्ञ हैं.
सन् 1910 में जब गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ छापी, तो उसमें कहा था कि लेखक किसी प्रकार का सर्वाधिकार नहीं रखता. गांधीजी कॉपीराइट पसंद नहीं करते थे. लेकिन उनके मित्रों में कई व्यापारी और उद्योगपति भी थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन में आर्थिक योगदान भी करते थे. गांधीजी ने कभी उनके व्यापार को अनैतिक नहीं ठहराया. बस उन्हें उनकी सामाजिक जिम्मेवारी की लगातार याद दिलायी. गांधीजी की लिखी किताबें और लेख कई अखबार और प्रकाशक छापते थे. उन्हें गांधीजी ने कभी रोका नहीं, बल्कि कहा कि वे उनके लिखे से धन कमाने के लिए आजाद हैं. गांधीजी वकील तो थे ही, बनिये भी थे. जब उनकी लिखाई का आशय बदलने का खतरा उठा, तो उन्होंने अपने लिखे के सर्वाधिकार नवजीवन प्रकाशन को दिये.
लोग अपने काम को लोकार्पित करते हैं. गांधीजी का पूरा जीवन लोकार्पित था. अगर ‘डिजिटल इंडिया’ में ऐसे उपयोगी और व्यावहारिक मूल्य नहीं रहे, तो उसका लाभ केवल कुछ कंपनियों को होगा. फिर ‘डिजिटल इंडिया’ की प्रासंगिकता नहीं रहेगी.
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