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क्यूबा में ‘घर वापसी’
कैथोलिक ईसाईयत के मुखिया पोप फ्रांसिस की क्यूबा यात्रा कई महत्वपूर्ण संदेशों और संदर्भों से परिपूर्ण है. ऐसी यात्राओं के राजनीतिक और कूटनीतिक पहलू तो स्वाभाविक रूप से होते हैं, पर पोप एक धर्मगुरु हैं और इस लिहाज से इस दौरे के धार्मिक आयाम भी हैं. चीन और उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा ही ऐसा […]
कैथोलिक ईसाईयत के मुखिया पोप फ्रांसिस की क्यूबा यात्रा कई महत्वपूर्ण संदेशों और संदर्भों से परिपूर्ण है. ऐसी यात्राओं के राजनीतिक और कूटनीतिक पहलू तो स्वाभाविक रूप से होते हैं, पर पोप एक धर्मगुरु हैं और इस लिहाज से इस दौरे के धार्मिक आयाम भी हैं.
चीन और उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा ही ऐसा देश है, जो अपने को घोषित रूप से साम्यवादी मानता है. लेकिन यह जगजाहिर तथ्य है कि अलग-अलग तरीकों से चीन और उत्तरी कोरिया साम्यवादी सिद्धांतों से किनारा कर चुके हैं. क्यूबा की शासन प्रणाली राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों के लिहाज से साम्यवाद की राह पर चलने का दावा करती है.
क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो और उनके भाई राऊल कास्त्रो, जो देश के वर्तमान राष्ट्रपति हैं, दुनियाभर के साम्यवादी आंदोलन के प्रतिनिधि व्यक्तित्व माने जाते हैं. अन्य पूर्व और मौजूदा साम्यवादी देशों की तरह क्यूबा भी नास्तिकता को प्रोत्साहित करता है तथा धार्मिक गतिविधियों पर कठोर नियंत्रण की नीति का अनुसरण करता है.
ऐसे समय में पोप फ्रांसिस की यात्रा और क्यूबा में दिये गये उनके संबोधन से देश के 27 फीसदी कैथोलिक धर्मावलंबियों में नये उत्साह का संचार हुआ है. क्यूबा की कुल आबादी लगभग 1.1 करोड़ है. कैथोलिक धर्मावलंबियों के अलावा सैंतारिया संप्रदाय के लोग भी कैथोलिक चर्च से जुड़े हैं. इस समुदाय की आबादी 13 फीसदी है. क्यूबा में कास्त्रो शासन की मुखालफत करनेवालों असंतुष्टों में बड़ी संख्या कैथोलिक ईसाईयों की है.
पोप के क्यूबा सरकार पर प्रभाव का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी यात्रा से पहले राऊल कास्त्रो ने साढ़े तीन हजार कैदियों को रिहा किया है, जिनमें अनेक कैथोलिक भी हैं. उल्लेखनीय है कि पोप फ्रांसिस अर्जेंटीना के निवासी हैं और लातिनी अमेरिका की समस्याओं पर बेबाकी से अपनी राय व्यक्त करते रहे हैं. इस वर्ष जुलाई में वेटिकन में राष्ट्रपति कास्त्रो ने यहां तक कह दिया था कि पोप ऐसे ही तेवर दिखाते रहे, तो वे भी चर्च में शामिल हो सकते हैं. हवाना के सुप्रसिद्ध क्रांति चौक इलाके में पोप की उपस्थिति में आयोजित प्रार्थना सभा में राष्ट्रपति कास्त्रो भी शामिल हुए. कास्त्रो नास्तिक हैं.
वे पोप की आगवानी करने हवाई अड्डे भी गये थे. कैथोलिक चर्च एक तरफ जहां क्यूबा पर अमेरिकी आर्थिक नाकेबंदी का विरोधी रहा है, वहीं उसने साम्यवाद और क्यूबा के एकाधिकारवादी शासन की भी आलोचना की है. पोप फ्रांसिस से पहले 1998 में पोप जॉन पॉल द्वितीय और 2012 में पोप बेनेडिक्ट भी क्यूबा की यात्रा कर चुके हैं. उन लोगों ने भी क्यूबा में लोकतांत्रिक अधिकारों के अभाव पर चिंता व्यक्त की थी.
लेकिन पोप फ्रांसिस ने इस द्वीपीय देश में चर्च के प्रभाव के विस्तार के लिए अपने राजनीतिक रसूख का भी इस्तेमाल किया है. क्यूबा से अमेरिकी प्रतिबंध हटाने और राजनीतिक संबंधों की बहाली के लिए वे पिछले कुछ वर्षों से लगातार सक्रिय हैं तथा विश्लेषकों की राय में राष्ट्रपति बराक ओबामा के सकारात्मक निर्णयों पर पोप का बड़ा असर रहा है. क्यूबा के बाद पोप अमेरिका की यात्रा पर हैं.
इन दोनों देशों की यह उनकी पहली यात्रा है. अमेरिकी जेलों में बंद कास्त्रो समर्थकों को रिहा कराने में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रही है. वर्ष 2006 में राऊल कास्त्रो के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही शासन में उदारवाद के लिए स्थानीय कैथोलिक चर्च सरकार के साथ सहयोग कर रहा है, जिसे पोप फ्रांसिस के पोप बनने के बाद बड़ी गति मिली. नाकेबंदी और साम्यवादी नीतियों ने क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर डाला है. अब बदलती दुनिया में सरकार के रुख में भी बदलाव आया है. ओबामा, पोप फ्रांसिस और राऊल कास्त्रो के व्यक्तित्व और व्यवहार में नरमी ने भी क्यूबा-अमेरिकी संबंधों को बेहतरी की ओर ले जाने में सहयोग दिया है.
एक तरफ जहां साम्यवादी नीतियों में खुलेपन और उदारीकरण का प्रवेश हो रहा हैं, वहीं दूसरी ओर ईसाईयत के प्रणेता ईसा मसीह के चित्र तथा मूर्तियां क्यूबा के क्रांतिकारी चरित्रों के साथ चौक-चौराहों पर प्रदर्शित की जाने लगी हैं. क्यूबा में पांच दशकों से अधिक समय से चल रहे एकाधिकारवादी साम्यवादी शासन की शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धियां जरूर रही हैं, पर इस अवधि में धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों पर कठोर बंदिशें भी रही हैं.
लेकिन पोप फ्रांसिस के प्रयासों ने इस स्थिति को सकारात्मक परिवर्तन की ओर गतिशील किया है. यह न सिर्फ क्यूबा की बड़ी आबादी पर थोपी गयी नास्तिकता से ईसाईयत की ओर ‘घर वापसी’ की प्रक्रिया का प्रारंभ है, बल्कि एक देश के रूप में उसके लोकतंत्र की ओर यात्रा का आरंभ भी है.
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