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फणीश्वर नाथ रेणु की चुनावी लीला

1972 के विधानसभा चुनाव में महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु फारबिसगंज से चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए थे. उनके पास न धनबल था और न बाहुबल. उन्होंने राजनीति में एक नयी संस्कृति लाने के संकल्प के साथ यह चुनाव लड़ा. हार भी गये. 2010 के विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र पद्म […]

1972 के विधानसभा चुनाव में महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु फारबिसगंज से चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए थे. उनके पास न धनबल था और न बाहुबल. उन्होंने राजनीति में एक नयी संस्कृति लाने के संकल्प के साथ यह चुनाव लड़ा. हार भी गये. 2010 के विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र पद्म पराग वेणु भाजपा के टिकट पर विधायक चुने गये.
इस बार भाजपा ने उनका टिकट काट दिया. श्री वेणु ने राजनीति के वर्तमान हालात पर फेसबुक पर अपनी पीड़ा कुछ इस तरह लिखी है -‘मेरा दोष यह था कि मैं एक महान समाजवादी स्वतंत्रता सेनानी और दलित और शोषितों के अधिकारों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे फणीश्वर नाथ मंडल (रेणु) का पुत्र हूँ. मेरा दोष यह था कि मेरा संबंध अन्य नेताओं की तरह चमचागिरी का नहीं रहा..’ रेणु के चुनाव हारने से लेकर वेणु के बेटिकट होने के बीच लंबा फासला है. लेकिन, राजनीतिक संस्कृति में बदलाव का मुद्दा वहीं का वहीं है. रेणु जी के चुनाव में उतरने पर यह टिप्पणी आज के दौर में पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है.
गिरीन्द्र नाथ झा
बिहार में इस वक्त चुनाव की बहार है. राजनीतिक दलों में टिकट का बंटवारा लगभग हो चुका है. जिन्हें टिकट मिला, वे खुश हैं और जिन्हें नहीं मिला, वे आगे की रणनीति में जुटे हैं. राजनीति तो यही है, आज से नहीं हजारोंबरसों से.
खैर, बिहार में मौसम भी गरम था, लेकिन पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है. शायद टिकट बंटवारा का असर हो. मौसम बदलते ही आपके किसान को साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन करने लगा. आप सोचिएगा, कहां राजनीति और कहां साहित्य. दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं.
रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था. उनका चुनाव चिन्ह नाव था. हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी, लेकिन चुनाव के जरिये उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया.
मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे. रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था, क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था. इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अभी तक उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं. हालांकि इस बार भारतीय जनता पार्टी ने उनका टिकट काट कर मंचन केशरी को टिकट दिया है. रेणु के बेटे ने इस संबंध में फेसबुक पर सवाल भी उठाये हैं. उनके सवाल बहुत लोगों के लिए जायज भी हो सकते हैं. हालांकि राजनीति में जायज और नाजायज में कितना अंतर होता है, ये हम सब जानते हैं.
अब चलिए हम 2015 से 1972 में लौटते हैं. उस वक्त फणीश्वर नाथ रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था. 31 जनवरी, 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रु प में चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है, लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है. उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए.
रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था.
उन्होंने खुद लिखा है- मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुङो पाव भर चावल और एक वोट दें. मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां, दोहों का उद्धरण दूंगा. कबीर को उद्धरित करु ंगा, अमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगा, गालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करु ंगा और लोगों को समझाउंगा. यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अ™ोय, पंत और रघुवीर सहाय तक को उदृत किया है-
दूध, दूध ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अ™ोय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पंत
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय
72 के चुनाव के जरिये रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे. उन्होंने कहा था- ‘मुङो उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जायेगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है.’
चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरूरी है. उन्होंने कहा था- ‘लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं. मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़ कर देखना चाहता हूं. समाज और तंत्र में आयी इन विकृतियों से लड़ना चाहिए.’ रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था. अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा. उनका नारा था – ‘कह दो गांव-गांव में, अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव में, नाव मे, नाव में.’
‘कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में.‘
‘मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर..‘
‘कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में. ‘
‘मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर..
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर.. ‘
राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे. राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किये जाने पर वे चिंतित थे. वे कहते थे- ‘धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते , मगर ये समस्याएं उठायेंगे किसानों की ! समस्या उठायेंगे मजदूरों की ! ‘
गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रि यता काफी पहले से थी. साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रि यकार्यकर्ता थे.

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