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हे प्रभु! इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि खुद क्या कर रहे हैं!

– हरिवंश – झारखंड के विधायक प्रार्थना, अनुरोध, फरियाद, एक नागरिक की बेचैनी-पीड़ा, गंभीर सार्वजनिक सवालों पर गौर नहीं करेंगे, फिर भी माननीय विधायकों के नाम यह खुला खत क्यों? क्योंकि लोकतंत्र में यही रास्ता है. अगर राजनीतिक नेतृत्व इन सवालों के प्रति संवेदनशील और सजग नहीं बनता, तो लोकतंत्र के लिए खतरा है. वैसे […]

– हरिवंश –
झारखंड के विधायक प्रार्थना, अनुरोध, फरियाद, एक नागरिक की बेचैनी-पीड़ा, गंभीर सार्वजनिक सवालों पर गौर नहीं करेंगे, फिर भी माननीय विधायकों के नाम यह खुला खत क्यों?
क्योंकि लोकतंत्र में यही रास्ता है. अगर राजनीतिक नेतृत्व इन सवालों के प्रति संवेदनशील और सजग नहीं बनता, तो लोकतंत्र के लिए खतरा है. वैसे भी माननीय विधायकों को यह जरूर पता होगा कि उनके कामकाज, लोक आचरण और घटती साख के कारण राजनीतिज्ञों से समाज का बड़ा तबका नफरत करने लगा है. मन में इन नेताओं के प्रति अनादर, घृणा और आक्रोश भर रहा है, क्यों?
झारखंड विधानसभा का मौजूदा सत्र इसका जीवंत नमूना है. सत्र के पहले दिन औपचारिक काम हुए. दूसरे दिन, पहला मुद्दा उठा, विधायकों की सुरक्षा का सवाल! हो-हल्ला और फिर स्थगन! जनता की सुरक्षा, राज्य में कानून-व्यवस्था, बेहतर गवर्नेंस के सवाल माननीय विधायकों ने नहीं उठाये? सही अर्थ में कामकाज की दृष्टि से यही पहला दिन था विधानसभा का.
विधायकों ने शोर-शराबा किया, अपनी सुरक्षा के सवाल पर. एक नागरिक के तौर पर मेरे मन में सवाल है, कि जो विधायक इतने आत्मकेंद्रित, स्वाथ और निजी नफा-नुकसान में डूबे हैं कि राज्य के बड़े और गंभीर सवालों को पीछे धकेल कर अपने स्वार्थ को पहले प्राथमिकता देते हैं, क्या उन्हें, राज्य की जनता की रहनुमाई-नेतृत्व का नैतिक अधिकार है?
निजी स्वार्थ की पराकाष्ठा पर नृत्य कर रहे ऐसे विधायकों से दूसरा विनम्र आग्रह! क्या आप सब में इतना धैर्य, संयम और मर्यादा भी नहीं कि आप अपने स्वार्थ के सवाल ‘सुरक्षा’ पर भी शांति, विनम्रता और संयम से विधानसभा में बहस करते. एक-एक तथ्य बताते कि किस विधायक के साथ कहां-क्या हुआ और वह कदम कैसे गैरकानूनी है, या सरकार किस तरह प्रतिशोध में विपक्षी विधायकों को परेशान कर रही है?
लेकिन, न एक तथ्य, न विश्वसनीय तर्क, न प्रमाण, महज सामान्य आरोप-प्रत्यारोप! क्या यही सदन की गंभीरता है? यही राजनीतिक गरिमा है? इस राजनीति के प्रति नफरत कैसे गलत है? सदन में सवाल भी कैसे उठे? भानु प्रताप शाही पर सरकारी मुलाजिमों के साथ मारपीट के आरोप कई बार लगे हैं. पुन: एक कर्मचारी से मारपीट का आरोप है.
क्या विपक्ष यह चाहता है कि विधायकगण सरकारी कारिदों को पीटें-धमकायें, सार्वजनिक रूप से अपमानित करें? क्या विधायक कानून से ऊपर हैं ? विधायक मनोज कुमार अगर किसी सरकारी कर्मचारी के साथ मारपीट या अभद्रता करते हैं, तो क्या माननीय विधायकगण चाहते हैं कि उन पर कार्रवाई न हो? दुलाल भुइयां को विधायक होने के कारण कानून की सीमा में आचरण न करने का विशेषाधिकार मिल गया है? विदेश सिंह विधायक हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक जमीन को निजी बनाने का पासपोर्ट मिल गया है?
यह आरोप विधायकगण लगा रहे हैं कि सरकार उन्हें फंसा रही है. इस आरोप पर एक नजर. जो सरकार दो या तीन के बहुमत से सांस ले रही है, जो इतनी असहाय-लाचार दिखती है कि मामूली सरकारी अफसरों पर स्पष्ट आरोप होने के बावजूद कार्रवाई करने में डरती है, वह विधायकों को फंसाने का साहस करेगी? यकीन नहीं होता. वैसे भी सरकार किसी की हो, अपने-अपने इलाकों में विधायक-सांसद ही सत्ता, प्रभाव और ताकत के केंद्र होते हैं.
इनके खिलाफ सरकारी कर्मचारी या डीसी या एसपी (एकाध अपवाद छोड़ कर) शिकायत करने या कार्रवाई करने का साहस रखते हैं? वह भी आज के अराजक झारखंड में. फिर भी मान लिया जाये कि ये सारे आरोप सच हैं, तब विधायक यह मांग क्यों नहीं करते कि इन सारे मामलों की जांच, हाईकोर्ट के किसी जज से करायी जाये. समयबद्ध, ताकि जनता जान सके कि विधायक सही हैं या सरकार?
कौन सच है ! उन माननीय विधायकों (जिनकी सुरक्षा के सवाल पर झारखंड विधानसभा का आरंभिक महत्वपूर्ण दिन कुर्बान किया गया) के एक-एक काम का ब्योरा दिये बिना, झारखंडी जनता माननीय विधायकों से यह जानना चाहती है कि प्राप्त तथ्यों-सूचना के अनुसार आप 31 विधायकों पर 150 से ज्यादा मामले दर्ज हैं! मंत्रियों में कमलेश सिंह, सुदेश, चंद्रप्रकाश, एनोस, प्रदीप यादव वगैरह के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं. क्या माननीय विधायक यह कहना चाहते हैं कि सब मामले झूठे हैं? फरजी हैं. प्रतिशोध के कारण हैं.
अगर ऐसा है, तो माननीय विधायकों से एक विनम्र आग्रह है. जिस तरह झारखंड विधानसभा का आरंभिक दिन आप विधायकों ने, जनता के सवालों को दरकिनार कर, अपने नाम कर लिया, अपने हित के सवालों को उठा कर नया इतिहास रचा, यह साबित किया कि आप पहले अपनी, अपने वर्ग हित, अपने स्वार्थ की रहनुमाई करते हैं, तब जनता के नाम की माला भजते हैं.
इसलिए एक कदम और आगे जाइए! आप सब झारखंड विधानसभा से एकमत, निर्विरोध, सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करिए! हमारे 31 विधायकों (जिनमें कई मंत्री हैं) पर 150 से अधिक जो मामले दर्ज हैं, वे झूठे हैं, सदन सरकार को सर्वसम्मति से निर्देश देता है कि ये सारे मामले सरकार उठा ले.
इस तरह माननीय विधायक एक और ऐतिहासिक काम कर डालें? पर वे सत्ता, पद, प्रतिष्ठा, यश के मद में अपनी अंतरात्मा न भूलें. इस मुल्क में एक व्यक्ति हुआ (जो आज के माननीय विधायकों-राजनेताओं के लिए अजनबी है), जिसके सौजन्य से हम नागरिक आजादी की सांस ले रहे हैं, विधायकों-मंत्रियों के ठाट-बाट, पद-प्रतिष्ठा, अहंकार हैं उस गांधी ने बताया, सार्वजनिक जीवन में अपने आचरण को समझने की कुंजी या ताबीज! देश के सबसे गरीब-फटेहाल को देख कर कोई निर्णय करें.
और यह तो सरकार-विपक्ष सब कहते हैं कि झारखंड में देश के सबसे अधिक गरीब बसते हैं. लगभग 70 फीसदी. इसलिए विधायकगण खुद अपनी अंतरात्मा से पूछें कि इन 70 फीसदी लोगों की सुरक्षा-समृद्धि के सवाल अहम हैं या कुछ विधायकों की सुरक्षा के सवाल?
इन गरीबों के सवाल विधानसभा में कहां हैं? जो राज्य के सबसे बड़े, गंभीर और संवेदनशील सवाल हैं, वे पहले, क्यों नहीं उठे? क्या अन्य सवालों को उठा कर माननीय विधायक सरकार की मदद कर रहे हैं? विपक्ष की भूमिका पर संदेह पैदा कर रहे हैं. क्यों पहले दिन वे सवाल नहीं उठाये गये, जिनके उत्तर देने में सरकार हिल जायेगी? यह देश में पहली बार हुआ है कि एक विधानसभाध्यक्ष (जो शासक दलों द्वारा समर्थित हैं) ने गृह मंत्री के खिलाफ ‘स्पष्ट और स्पेसिफिक’ आरोप लगाये हैं. गृह मंत्री ने भी उत्तर दिये हैं.
इन दोनों में सच कौन है? यह संवैधानिक संकट का नाजुक मामला है. गृह मंत्री पर अपराधियों को प्रश्रय देने का आरोप, विधानसभाध्यक्ष ने लगाये हैं. राज्य की जनता को इस प्रसंग का सच जानने से क्यों रोका जा रहा है? जनता के हित में, झारखंड विधानसभा के पहले सत्र का यह पहला सवाल होता. जन विधायक यह प्रसंग उठाता! यह संवैधानिक संकट का मामला है. सार्वजनिक जीवन का एक अति नाजुक और संवेदनशील प्रसंग है.
खासतौर से ऐसे अवसर पर विधायक स्वर्गीय महेंद्र सिंह की स्मृति उभरती है. वह होते, तो जनता के सवाल, सार्वजनिक जीवन के बड़े सवाल, पहले उठाते. विधानसभा इस पर स्थगित होती. इस सवाल पर हंगामा होता. सरकार सांसत में होती.
यह मान लिया जाये कि मनुष्य अपने आहार, सुरक्षा की चिंता पहले करता है. हमारे माननीय विधायक भी हम झारखंडी मानवों के बीच से ही हैं, इसलिए अपनी सुरक्षा का सवाल सबसे पहले उठना स्वाभाविक है. पर साथ में एक प्रस्ताव जोड़ लेते कि हमारी विधानसभा के एक सदस्य होते थे, महेंद्र सिंह. उनकी हत्या की जांच वर्षों से चल रही है.
यह सदन (झारखंड विधानसभा) केंद्र सरकार से आग्रह करता कि हत्या की जांच समयबद्ध हो, षडयंत्रकारी और हत्यारे शीघ्र पकड़े जायें, यह सदन की इच्छा है. सिर्फ इस एक अतिरिक्त प्रस्ताव से विधायकों की निजी सुरक्षा के सवाल-प्रसंग को भी एक नैतिक आधार मिल जाता.
जब राज्यों में विकास की गति को लेकर होड़ हो, तब क्या एक दिन भी झारखंड विधानसभा ने तैयारी और गंभीरता से यह डिबेट किया है कि पड़ोसी बंगाल, बिहार, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में क्यों तेजी से काम हो रहे हैं, हमारे राज्य में क्या परेशानी है?
हमारा गवर्नेस क्यों कमजोर, लाचार और असहाय है? बिहार के बदलाव को देखिए. जिस बिहार के पिछड़ेपन से मुक्ति के लिए झारखंड बना, वही बिहार धीरे-धीरे सुशासन की ओर लौट रहा है, और झारखंड बिहार के रास्ते पर? ऐसा क्यों? इसकी जिम्मेवारी किस पर? यह विवरण समझने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त है. बिहार में नयी सरकार बनते ही नीतीश कुमार ने बीआइटी मेसरा को तुरंत पटना आमंत्रित किया. बिना ढोल बजाये. जमीन दी.
वित्तीय मदद दी. इसी सत्र से वहां पढ़ाई भी शुरू हो रही है. झारखंड के देवघर में बीआइटी को अब तक शायद पूरी जमीन भी नहीं मिली. यह फर्क है. चाणक्य लॉ इंस्टीट्यूट की पढ़ाई पटना में शुरू हो रही है. झारखंड के पहले राज्यपाल, पहले मुख्य न्यायाधीश ने सेंट्रल लॉ इंस्टीट्यूट शुरू कराने का रास्ता बनाया, लेकिन न बाबूलाल मरांडी ने कुछ किया, न अब तक अर्जुन मुंडा ने. लगभग छह वर्ष हो गये, हम एक केंद्र से मिला लॉ इंस्टीट्यूट नहीं बना सके. यह हमारी कार्यशैली-कार्यसंस्कृति है. पर इस पर सब मौन हैं.
आज की दुनिया में शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्र (सेंटर ऑफ एक्सेलेंस) ही राज्य-समाज को आगे ले जायेंगे. दक्षिण के राज्य इसी रास्ते दुनिया में डंका बजा रहे हैं, पर झारखंड? न विधायक चिंतित हैं, न सरकार. युवकों को रोजगार मिले, सर्वश्रेष्ठ संस्थान यहां आयें, निवेश जमीन पर दिखाई दे, इसके लिए बंगाल के मुख्यमंत्री, देंग सियाओपिंग की भाषा बोल रहे हैं कि कैपिटलिज्म इज वी नीड (पूंजीवाद की ही हमें जरूरत है, 14 जुलाई), पर झारखंड को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए आत्मकेंद्रित विधायकों के पास न कोई एजेंडा है, न विचार, न संकल्प और न प्राथमिकता.
बिहार-झारखंड, अलग होने के दौरान, बिहारी नेताओं का एक जुमला लोकप्रिय हुआ था. सारा खनिज झारखंड में, बिहार क्या बालू फांकेगा? आज बिहार में आंशिक तौर पर कानून-व्यवस्था सुधरते ही रतन टाटा बिहार के मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर वहां जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं. उसी बालू की धरती पर! झारखंड की अपार खनिज संपदा,1.74 लाख करोड़ के एमओयू वगैरह के बावजूद सतह पर चीजें क्यों नहीं उतरतीं! क्या विधायकगण, हो-हल्ला, गला फाड़ने और चीख प्रतियोगिता छोड़ कर इस पर गंभीर विमर्श कर कुछ रास्ता निकालने के लिए पहल नहीं कर सकते?
मंत्रियों के आचरण, ओछी हरकतें और आत्मकेंद्रित कामकाज, विधानसभा में बहस के केंद्र क्यों नहीं बनते? गली-मोहल्ले तक मंत्रियों के आचरण की बातें फैल रही हैं. कोई मंत्री सीधे मामूली अफसर को फोन करता है, मेरे इलाके से 10-20 लोग आये हैं, अमुक ढाबे में खाना खिलवा दीजिए. ड्रिंक करा दीजिए ! यह बरताव ! ऐसी अनंत बातें हैं, क्या ये छिपी हैं ?
रांची के गोंदा थाने में गोली चली, एक व्यक्ति मरा. राज्य सरकार ने किसी तरह मुआवजा देकर मामला ठंडा किया. उधर, पुलिस का सबसे जूनियर आदमी दंडित हुआ? कोई पहल हुई कि ऐसी चीजें भविष्य में न हों? किसी की मौत न हो? चंदाखोरी, छेड़खानी पर भी प्रतिबंध लगाने, सख्ती बरतने के उपाय पर विचार हुआ? राज्य में कानून का राज कैसे चले, क्या कभी यह भी विधानसभा में विमर्श का विषय होगा?
भ्रष्टाचार और सार्वजनिक जीवन में अनाचार से तो लगता है कि ऐसे सवालों से झारखंडी नेताओं के सरोकार ही नहीं हैं. पग-पग पर भ्रष्टाचार, बांध, पुल, पुलिया बने नहीं कि ढह गये. बह गये या बहा दिये गये.
सड़कों के बनने के नाम पर क्या हो रहा है? रोज अखबारों में तथ्यात्मक विवरण छप रहे हैं, पर अरबों-अरबों के इस नुकसान (या लूट !) पर मंत्री मौन हैं, सरकार मौन है, और विधानसभा भी मौन है? 150 करोड़ का नुकसान, पीटीपीएस में आग लगने से हुआ? इसके पहले भी लगातार आग लगती (या लगायी जाती!) रही है, क्या एक भी दोषी दंडित हुआ है?
क्या जनता से कर के रूप में वसूले गये पैसे की बरबादी से कोई बेचैन-परेशान है? किसी निजी कारखाने में बार-बार यह आग लगना संभव है? अगर नहीं, तो सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की एकाउंटेबिलिटी किसकी है? नौकरशाही! सरकार! और विधानसभा! या तीनों की! रूक्का डैम का पानी ओवरफ्लो की स्थिति में है. गेट खोल कर पानी निकालने के क्रम में जंजीर टूट गयी, क्योंकि न देखरेख है, न मेनटेनेंस है, न कोई कार्य संस्कृति है.
न कभी ड्रेजिंग (साफ-सफाई, कीचड़ निकालना) की जाती है. पीने के पानी से लेकर सार्वजनिक व्यवस्था की कोई चीज देख लीजिए. सब जगह जंग लग गया है. किसानों की हालत, झारखंडी मजदूरों की स्थिति, झारखंडी लड़कियां, जो अन्य राज्यों में जा रही हैं, उनकी आर्थिक स्थिति जैसे असंख्य सवाल, जो किसी संवेदनशील समाज, राजनीति को झकझोरने की संभावनाओं से भरे हैं, पर झारखंड की प्रतिनिधि सभा (विधानसभा) मौन है?
यह एक नागरिक की पीड़ा से भरा खुला पत्र है. इस पत्र के किसी शब्द/अंश/भाव से किसी को आहत करने की मंशा नहीं है. न सम्माननीय, माननीय विशिष्टजनों के विशेषाधिकार (प्रिविलेज) को ठेस पहुंचाने की भावना है. फिर भी कोई आहत हों, तो सार्वजनिक क्षमा याचना भी!

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