शिवाजी से जुड़ी किसी धारणा को लेकर तो पुरंदरे जैसे विद्वान से मतभेद हो सकता है, पर यदि उनका ब्राह्मण होना शिवाजी के संदर्भ में उनकी अयोग्यता माना जाता है, तो यह आपत्तिजनक तो है ही, पीड़ा की बात भी है.
बाबासाहेब पुरंदरे को उनकी रचनाओं ‘राजा शिव छत्रपति’ एवं ‘जाणता राजा’ के लिए महाराष्ट्र सरकार का सर्वोच्च सम्मान ‘महाराष्ट्र भूषण’ प्रदान किये जाने के साथ ही इस प्रकरण से जुड़ा विवाद फिलहाल समाप्त दिखने लगा है. महाराष्ट्र में कुछ लोगों को उन्हें यह सम्मान दिया जाना स्वीकार्य नहीं था. उनकी दृष्टि में श्री पुरंदरे का ब्राह्मण होना और उनके द्वारा शिवाजी को ‘गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक’ के रूप में स्थापित करना शिवाजी महाराज की अवमानना है! पिछले एक अरसे से छत्रपति शिवाजी को मराठा-समुदाय के नायक के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने के प्रयास हो रहे हैं.
यदि कोई समुदाय किसी व्यक्ति-विशेष को अपना नायक मानता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन किसी इतिहास-पुरुष को सिर्फ अपने तक सीमित रखने की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता. शिवाजी के साथ जुड़े अनेक आख्यान यह बताते हैं कि वे धर्म, जाति अथवा वर्ग विशेष से कहीं ऊपर थे. इसीलिए, जब ‘शिव शाहीर’ कहे जानेवाले बाबा साहेब पुरंदरे को सम्मान दिये जाने को लेकर विवाद उठा, तो हैरानी भी हुई थी और दुख भी हुआ था.
बरसों पहले, पुणे स्थित भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (बोरी) पर हमला हुआ था. स्वयं को मराठों का प्रतिनिधि माननेवाले एक संगठन को शिकायत थी कि इस अनुसंधान-संस्थान ने एक पाश्चात्य लेखक जेम्स लेन को एक ऐसी पुस्तक लिखने में सहायता दी थी, जिसमें शिवाजी को अपमानित करनेवाली कुछ बातें थीं. जेम्स लेन की शोध पर उंगली उठायी जा सकती है, लेकिन इसके चलते ‘बोरी’ जैसे संस्थान में तोड़-फोड़ किये जाने का औचित्य समझ नहीं आता. आज यह बात बहुत से लोग समझ रहे हैं कि जेम्स लेनवाले इस विवाद के पीछे महाराष्ट्र की मराठा-ब्राह्मण राजनीति भी थी. इस प्रवृत्ति की तब भी आलोचना हुई थी, और आज भी होनी चाहिए.
इतिहास के सत्यों को भावनाओं के तराजू पर नहीं तोला जाना चाहिए. शिवाजी को हिंदू हृदय-सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने अपने-कृतित्व और व्यक्तित्व से इतिहास में अपना स्थान बनाया है. शिवाजी ने अपनी गरीब रैयत पर लगा कर हटा कर उसका आदर पाया था. रास्ते में पड़े पवित्र कुरान को सम्मान के साथ उठावा कर सही स्थान पर रखवाने अथवा कल्याण के नवाब की मुसलिम पुत्री को सेना के संरक्षण में नवाब तक पहुंचवाने जैसी कथाएं शिवाजी की महानता को दर्शाती हैं.
कल शिवाजी को सांप्रदायिकता की राजनीति का माध्यम बनाया गया था, आज मराठों और ब्राह्मणों के बीच खाई चौड़ी करने के लिए उनका नाम लिया जा रहा है. राजनीतिक स्वार्थों के लिए इतिहास-पुरुषों के उपयोग की इस प्रवृत्ति पर लगाम लगनी ही चाहिए. इसी के साथ चिंता उस प्रवृत्ति पर भी प्रकट की जानी चाहिए, जो पिछले एक अरसे से समाज में फैलती जा रही है- यह प्रवृत्ति असहिष्णुता को पालने-पनपाने की है. गोविंद पानसरे, डाॅ दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्याएं एक समाज की बीमार मानसिकता से ही परिचित कराती हैं. बाबा साहेब पुरंदरे जैसे विद्वान को सम्मानित किये जाने को लेकर उठे विवाद भी इसी संकुचित मानसिकता को ही उजागर करते हैं. किसी भी सभ्य समाज में मतभेदों का होना गलत नहीं है, गलत है इन मतभेदों के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश करना. मतभेदों का निपटारा तर्कशीलता और विवेक के आधार पर होना चाहिए.
आज पुरंदरे को सम्मानित किया जाना विवाद का विषय बना है, कल शिवाजी महाराज के स्मारक से जुड़ी समिति की अध्यक्षता के नाम पर उनकी आलोचना हुई थी. शिवाजी से जुड़ी किसी धारणा को लेकर तो पुरंदरे जैसे विद्वान से मतभेद हो सकता है, पर यदि उनका ब्राह्मण होना शिवाजी के संदर्भ में उनकी अयोग्यता माना जाता है, तो यह आपत्तिजनक तो है ही, पीड़ा की बात भी है.
ऐसी घटनाओं पर समाज के प्रबुद्ध और जागरूक वर्ग को दुख भी प्रकट करना चाहिए और इनका प्रतिकार भी करना चाहिए. शिवाजी जैसे नायक हमारे इतिहास-पुरुष हैं, हम सबके हैं. उन्हें धर्म, जाति या वर्ग के साथ जोड़ना गलत है. उसी तरह विचारों के यौद्धा भी समूचे भारतीय समाज की धरोहर हैं. विचार-वैभिन्य एक अवसर होता है स्वयं को परिष्कृत करने का. इस अवसर का सदुपयोग किया जाना चाहिए. वैचारिक मतभेदों को जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. उनके आधार पर फतवे देना अथवा किसी को दुश्मन मान लेना मानवीय विवेक का अपमान है. जिस समाज में विवेक का अपमान होता है, वह बीमार समाज ही माना जा सकता है. इस बीमारी का एक ही इलाज है- विवेक का सम्मान करें.