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भाषा के सम्मेलन में भाषा की दुर्गति

पहली बार इस विश्व हिंदी सम्मेलन में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एप्पल जैसी बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियां मौजूद थीं. साहित्यकार नदारद थे. स्पष्ट है कि सरकार कैसी हिंदी के पक्ष में है. संघ की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और बाजारू हिंदी में क्या कोई संबंध है? मध्य प्रदेश के भोपाल में आयोजित तीन दिनों (10-12 सितंबर, 2015) का दसवां िवश्व […]

पहली बार इस विश्व हिंदी सम्मेलन में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एप्पल जैसी बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियां मौजूद थीं. साहित्यकार नदारद थे. स्पष्ट है कि सरकार कैसी हिंदी के पक्ष में है. संघ की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और बाजारू हिंदी में क्या कोई संबंध है?
मध्य प्रदेश के भोपाल में आयोजित तीन दिनों (10-12 सितंबर, 2015) का दसवां िवश्व हिंदी सम्मेलन कई सवालों के साथ समाप्त हो चुका है. 32 साल बाद भारत में आयोजित इस सम्मेलन में भले 32 देशों की भागीदारी रही हो, पर हिंदी लेखकों, साहित्यकारों और भाषाविदों-भाषावैज्ञानिकों की शिरकत इसमें नहीं रही. इस सम्मेलन के हिंदी ज्ञान के रचयिता महेश श्रीवास्तव ने ‘भाषा संस्कृति प्राण देश की‍- इसके रहते राष्ट्र रहेगा’ में जिस भाषा और संस्कृित को देश के लिए प्रमुख माना, उस भाषा और संस्कृित के प्रति संघ और भाजपा की दृष्टि भिन्न है. इस गान में भारत माता के मान को ‘हिंदी के जयघोष’ से जोड़ा गया, हिंदी गान में हिंदीमय कंप्यूटर की बात की गयी.
इस सम्मेलन के आरंभ के पूर्व विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह हिंदी लेखकों के संबंध में खाने-पीने को लेकर जो अभद्र-अशालीन बातें कही थीं, उसकी निंदा-भर्त्सना की गयी. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस सम्मेलन को साहित्य-केंद्रित के स्थान पर भाषा-केंद्रित कहा. उनका यह कथन सत्य के परे था िक पहले के सभी विश्व हिंदी सम्मेलन साहित्य केंद्रित थे. पहले से चाैथे सम्मेलन का विषय ‘वसुधैव कुटुंबकम’ था, पांचवें सम्मेलन का विषय ‘आप्रवासी भारतीय और हिंदी’ था, छठें सम्मेलन का विषय ‘हिंदी और भावी पीढ़ी’ था, सातवें सम्मेलन का विषय ‘विश्व हिंदी : नयी शताब्दी की चुनौतियां’ था, आठवें सम्मेलन का विषय ‘विश्व एवं हिंदी’ था, नौवें सम्मेलन का विषय ‘भाषा की अस्मिता और हिंदी का वैश्विक संदर्भ’ था और इस बार यानी दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन का िवषय था ‘हिंदी जगत : विस्तार एवं संभावनाएं’.
उद्घाटन-सत्र में ही उद्घोषिका ने बारह-तेरह भाषिक अशुद्धियां की. हिंदी भाषा पर केंद्रित इस सम्मेलन में भाषिक शुद्धता पर विशेष ध्यान नहीं िदया गया, जबकि एक सत्र में भाषा की शुद्धता पर विचार था. उद्घाटनकर्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जिस प्रकार भाषा और साहित्य के बीच एक दीवार खड़ी की, एक को दूसरे से पृथक किया, वह इन दोनों की भाषाई और साहित्यिक समझ का प्रमाण था.
इस आयोजन में विचार-विषय ‘गिरमिटिया देशों में हिंदी’, ‘विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएं और समाधान’, ‘विदेशियों के लिए भारत में हिंदी अध्ययन की सुविधा’, ‘अन्य भाषाओं के राज्यों में हिंदी’, ‘विदेश नीति में हिंदी’, ‘प्रशासन में हिंदी’, ‘विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी’, ‘संचार एवं सूचना प्रसारण में हिंदी’, ‘विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिंदी और अन्य भाषाएं’, ‘बाल साहित्य में हिंदी’, ‘हिंदी पत्रकारिता एवं संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता’ और ‘देश और विदेश में प्रकाशन समस्याएं एवं समाधान’ थे, जिन पर रिपोर्ट प्रस्तुति एवं स्वीकृति का सत्र था. पूरे आयोजन में संघ की भाषाई दृष्टि प्रमुख रही. सुषमा स्वराज ने यह विश्वास दिलाया था कि यह सम्मेलन एक निश्चित नतीजा पेश करेगा. सम्मेलन का निष्कर्ष या नतीजा क्या रहा इस पर विस्तार से बातें बाद में होती रहेंगी.
मुख्य सवाल यह है कि इस सरकार का भाषा-संबंधी नजरिया क्या है? क्या यह नजरिया ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ का विरोधी है? हिंदी साहित्यकारों और भाषाविदों से दूर यह विश्व हिंदी सम्मेलन अपने में ‘अनूठा’ रहा है. आयोजकों को भारतीय भाषाओं की सर्वोच्च संस्था साहित्य अकादमी के नाम का भी पता नहीं था, जिसे उसने साहित्य अकाडेमी परिवार कहा. साहित्य रहित, जीवनरहित, अनुभवरहित, विचाररहित, तर्क और विवेकरहित हिंदी को समृद्ध नेताओं-अभिनेताओं ने नहीं, साहित्यकारों ने किया है. हिंदी का अधिकांश साहित्यकार प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और जनपक्षधर है. स्वाभाविक था कि उन्हें सरकार इस आयोजन से दूर रखे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके गुरु दयानंद गिरी ने गरीबों की चिंता जतायी थी. हिंदी गरीबों, किसानों, मेहनतकशों की भाषा है. कॉरपोरेट को महत्व देनेवाली सरकारें हिंदी का पक्षधर नहीं हो सकतीं. अमिताभ बच्चन अगर आते, तो ‘अच्छी हिंदी कैसे बोलते हैं’ बताते. आयोजक को दशकों पहले रामचंद्र वर्मा की पुस्तक ‘अच्छी हिंदी’ का पता नहीं रहा होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने उद्घाटन भाषण में ‘सिंहस्थ की तैयारी’ के पहले हिंदी के इस ‘महाकुंभ’ की बात कही. उनकी चिंता में मुख्य चिंता संस्कृत भाषा की महान विरासत से अलग-थलग हो जाना और भाषा की समृद्धि थी. अहिंदी भाषियों के हिंदी प्रेम के साथ उन्होंने सभी भाषाओं के लिए एक लिपि देवनागरी को उपयुक्त माना. वह उनके अनुसार ‘राष्ट्रीय भाषा के लिए बड़ी ताकत’ होती. भाषाशास्त्रियों की बात उन्होंने की, पर सम्मेलन में कोई प्रमुख भाषाशास्त्री नहीं था.
प्रधानमंत्री के द्वारा कही गयी ‘हिंदी और तमिल भाषा के वर्कशाॅप’ की बात कइयों को भले अच्छी लगे, पर ये दोनों दो भिन्न भाषा-परिवारों की भाषाएं हैं. शब्द और मुहावरे किसी अन्य भाषा से मांगे नहीं जाते. ‘भई, ये हमें दीजिए’- हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए इन शब्दों की हमें जरूरत है- ऐसा कथन आपत्तिजनक है. हिंदी उदार भाषा है. हिंदी का राजनीतिक महत्व जितना है, उससे कहीं अधिक साहित्यिक-सांस्कृतिक है. नरेंद्र मोदी के भाषण में भाषा की राजनीति वाला पक्ष भी था. हिंदी बाजार की भाषा बन कर समृद्ध नहीं हो सकती. व्यापक हो सकती है. पहली बार इस विश्व हिंदी सम्मेलन में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एप्पल जैसी बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियां मौजूद थीं. लेकिन, साहित्यकार नदारद थे. स्पष्ट है कि सरकार कैसी हिंदी के पक्ष में है? संघ की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और बाजारू हिंदी में क्या कोई संबंध है?

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