देश की अर्थव्यवस्था की दशा और सरकार के आर्थिक सुधारों की दिशा के लिहाज से पिछले दो सप्ताह काफी हद तक नकारात्मक रहे हैं.
एक ओर शेयर बाजार में अस्थिरता, रुपये में गिरावट और वित्त वर्ष की पहली तिमाही में अपेक्षा से कम वृद्धि दर जैसे झटके आये, तो दूसरी ओर 30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबित भूमि अधिग्रहण कानून को वापस लेने की घोषणा की, दो सितंबर को मजदूर संगठनों की व्यापक हड़ताल हुई और फिर नौ सितंबर को सरकार ने वस्तु एवं सेवा करों (जीएसटी) से संबंधित विधेयक पर संसद के विशेष-सत्र में बहस की योजना को स्थगित कर दिया.
निवेश को आकर्षित करने के लिए कराधान, भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों में सुधार जरूरी हैं. विश्व बैंक द्वारा तैयार व्यापार की अनुकूल स्थितियों के पैमाने पर 189 देशों की सूची में भारत का स्थान 142वां है, जो चीन के 90वें स्थान की तुलना में बहुत नीचे है.
ऐसे में आर्थिक नीतियों में व्यापक सुधार के बिना अर्थव्यवस्था को गति दे पाना और वांछित वृद्धि दर हासिल कर पाना बहुत मुश्किल होगा. निवेश की कमी न सिर्फ नयी योजनाओं के कार्यान्वयन में बाधक होगी, बल्कि लंबित परियोजनाओं को भी पूरा नहीं किया जा सकेगा. जाहिर है, राजनीतिक गतिरोधों को अविलंब दूर कर अगर सुधार के कार्यक्रम लागू नहीं हुए, तो पिछले कुछ वर्षों की आर्थिक उपलब्धियां भी कमजोर हो सकती हैं.
आर्थिक बेहतरी के उपायों में जीएसटी प्रणाली में सुधार एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है. इसके लागू हो जाने से अनेक अप्रत्यक्ष करों से कारोबारियों और ग्राहकों को मुक्ति मिलने तथा राज्यों के बीच व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों में सरलता और समरूपता आने की उम्मीद है.
समान राष्ट्रीय बाजार स्थापित करने के उद्देश्य से लाये गये इस कराधान व्यवस्था को अगले वित्त वर्ष से कार्यान्वित करने का लक्ष्य रखा गया था, पर पिछले संसद-सत्र में हंगामे और अब विशेष सत्र के खारिज हो जाने के बाद इसके अप्रैल, 2016 में लागू होने की संभावना अत्यंत क्षीण है. राजनीतिक उठा-पटक लोकतंत्र का गुण है, लेकिन इसकी अति से देश की विकास-यात्रा का अवरुद्ध होना चिंताजनक है.
सत्तापक्ष और विपक्ष की स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता किसी नीतिगत पहल को ठोस स्वरूप दे सकती है. दुर्भाग्य से दोनों खेमे बहस से किसी सहमति तक पहुंच पाने में असफल रहे हैं. प्रमुख आर्थिक सुधारों को लागू करने में अनावश्यक विलंब का देश को भारी खामियाजा उठाना पड़ सकता है. ऐसे में राजनीतिक परिपक्वता की बहुत जरूरत है.