निवेदिता
स्वतंत्र टिप्पणीकार
हमें अपने बच्चों को समझ का चस्का लगने देना चाहिए, जिससे उन्हें सीखने में मदद मिले. जब वे कतरों और बिंबों में संसार को देखें और जिंदगी की लेन-देन में दाखिल हों, तो अपने मुताबिक ज्ञान का रूपांतर कर पायें.
ज्ञान का ऐसा स्वाद हमारे बच्चों के वर्तमान को पूर्णतः सृजनात्मक और आनंदप्रद बना सके, यह बात यशपाल ने 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा तैयार करते समय कही थी. त्रासदी है कि यशपाल कमिटी के जिन सुझावों के आधार पर पाठ्यक्रम बनाये गये और लागू किये गये, आज उस पर खतरा मंडराने लगा है. हाल में शिक्षा संबंधी केंद्रीय सलाहकार बोर्ड ने फिर से परीक्षा शुरू करने का फैसला लिया है.
हमारे देश में शिक्षा का परिदृश्य काफी खतरनाक है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल में देशभर में एक लाख सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं, जिसमें 17 हजार स्कूल राजस्थान के हैं.
कई दूसरे राज्यों में भी स्कूलों को बंद करने की तैयारी हो रही है. ये आंकडे हमारी सरकार को डराते नहीं. वे जानते हैं, अभी के समय में जिनके पास पैसा व ताकत है, वे ज्ञान को खरीद सकते हैं.
ज्ञान का ऐसा बाजार विकसित किया जा रहा है, जहां पैसों का बोलबाला होगा. सरकार शिक्षा की पूरी जिम्मेवारी से खुद को मुक्त करना चाह रही है.
हमारे देश के सरकारी स्कूलों में वही बच्चे जाते हैं, जो गरीब हैं या दलित हैं. त्रासदी है कि सरकारी स्कूलों की हालत पर अब अदालत को आगे आना पड़ा है.
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा कि जजों, जनप्रतििनधियों, सरकारी अफसरों और सरकारी वेतन या मानदेय पानेवालों के बच्चे का सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य हो. जो ऐसा ना करे, उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाये. जब तक जनप्रतिनिधियों, अफसरों व जजों के बच्चे प्राइमरी स्कूल में अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की स्थिति बेहतर नहीं होगी.
जो चिंता अदालत ने की, क्या वह चिंता सरकार की नहीं है? अगर होती तो सरकारी स्कूल इस हालात में नहीं होते. हमारे देश में सबसे ज्यादा प्रयोग अब तक बच्चों पर ही किये गये हैं. यह प्रयोग अगर हमने शिक्षा व्यवस्था पर की होती, तो शायद आज फिर से बच्चों को परीक्षा देने की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता.
शिक्षा आयोगों और राममूर्ति व यशपाल समितियों ने शिक्षा को परीक्षा से मुक्त किया था. उसके पीछे अवधारणा थी कि परीक्षा श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ में विभाजित करती है. परीक्षा प्रतियोगिता पैदा करती है, तनाव देती है, यहां तक िक बच्चे उस तनाव में आत्महत्या कर लेते हैं.
इसलिए परीक्षा को लेकर कुछ विकल्प तलाशे गये थे. वार्षिक परीक्षा के बजाय सेमेस्टर प्रणाली लागू किया गया था, ताकि परीक्षा के भय से मुक्त ज्ञान के प्रति बच्चों का आकर्षण बढ़े. यह प्रयोग विफल हुआ या विफल किया गया? अब कहा जा रहा है कि बच्चों के लिए परीक्षा जरूरी है. जबिक, यह व्यवस्था शिक्षा को एक नये फलक पर ले जाती, अगर उसके लिए वैसा वातावरण निर्माण किया जाता. इस िनर्माण की प्रकिया में समाज और सरकार की ही जिम्मेवारी थी.
जाहिर है यह बड़ा काम है और इसे पूरा करने की मंशा सरकार की नहीं है. हमारे देश में बजट का सबसे कम हिस्सा शिक्षा पर खर्च होता है. स्कूलों में शिक्षकों की भयानक कमी है. जो हैं उनका भी स्तर बढ़िया नहीं है. स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं. यह हालत तब है, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है. शिक्षा अधिकार अधिनियम के मुताबिक, स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 2012 तक का वक्त तय किया गया था और 2015 तक स्कूलों की बेहतरी संबंधी शर्तों को पूरा करना था. पर न तो शिक्षकों की नियुक्ति हुई, ना ही बुनियादी शिक्षा का विस्तार हुआ..
शिक्षा बाजारू नहीं होगी और न ज्ञान बिकेगा. अगर हमने शिक्षा को इस तरह देखा होता, तो आज यह हाल नहीं हुआ होता. यह चिंता बहुत पहले रबींद्र नाथ टैगोर ने की थी. ‘जब मैं बच्चा था तो छोटी-छोटी चीजों से अपने खिलौने बनाने और अपनी कल्पना में नये-नये खेल ईजाद करने की मुझे पूरी आजादी थी. मेरी खुशी में मेरे साथियों का पूरा हिस्सा होता था.
एक दिन हमारे एक साथी को एक आधुिनक िखलौना दे दिया गया. साथी को उस खिलौने पर घमंड हो गया और वह अपने अन्य साथियों से खुद को श्रेष्ठ समझने लगा. वह यह भूल गया कि इस प्रलोभन में उसने एक चीज खो दी है, जो खिलौने से कहीं श्रेष्ठ थी, एक श्रेष्ठ और पूर्ण बच्चा. उस खिलौने से महज उसका धन व्यक्त होता था, उसकी रचनात्मक ऊर्जा नहीं.’
यदि हमारी सरकार और हमारे समाज ने यह चिंता की होती, तो आज करोड़ों बच्चों का भविष्य दांव पर नहीं होता.