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एक इंसान के बेमिसाल जज्बे और हौसले की कहानी को निर्देशक केतन मेहता ने रूपहले परदे पर फिल्म ‘मांझी : द माउंटेनमैन’ के रूप में जिस संजीदगी से पेश किया है, उसके लिए एक शब्द में लाजवाब कहना सटीक होगा. बिहार के एक गांव में रहनेवाले दशरथ मांझी ने गांववालों की राह में मुश्किल बन […]

एक इंसान के बेमिसाल जज्बे और हौसले की कहानी को निर्देशक केतन मेहता ने रूपहले परदे पर फिल्म ‘मांझी : द माउंटेनमैन’ के रूप में जिस संजीदगी से पेश किया है, उसके लिए एक शब्द में लाजवाब कहना सटीक होगा.
बिहार के एक गांव में रहनेवाले दशरथ मांझी ने गांववालों की राह में मुश्किल बन कर खड़े पहाड़ को हराने के लिए सिर्फ छैनी और हथौड़े से दो दशकों तक एक जुनून के साथ जैसा अनूठा संघर्ष किया, उस किरदार को अपने लाजवाब अभिनय से अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अमर कर दिया है.
हालांकि इस बॉयोपिक फिल्म को सपाट होने से बचाने के लिए इसमें प्यार का मसालेदार जायका भी परोसा गया है, पर सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार, राजनीतिक अवसरवादिता और गंवई समाज में रची-बसी जात-पात की भावना को भी बखूबी निशाना बनाया गया है.
फिल्म के कई संवाद जुमला बन कर वर्षो तक मांझी की मिसाल पेश करते रहेंगे, मसलन- ‘भगवान के भरोसे मत बैठो, क्या पता वो हमारे भरोसे बैठा हो’. बालीवुड में बॉयोपिक फिल्में पहले भी बनी हैं, खुद केतन मेहता भी ‘मंगल पांडेय’ सहित कई शानदार बॉयोपिक फिल्में बना चुके हैं, पर ‘मांझी : द माउंटेनमैन’ इन सबसे कई मायनों में अलग है. इसकी पहली खासियत तो यही है कि बॉयोपिक फिल्म के लिए पहली बार किसी हिंदी प्रदेश के आजादी के बाद के एक आम गंवई इंसान को चुना गया है. जाहिर है, इसके जरिये हिंदी फिल्मों का फलक एक नया विस्तर लेता दिख रहा है. अमूमन प्रेम और जंग की काल्पनिक दुनिया में मनोरंजन के सूत्र तलाशते बॉलीवुड का यह आज के समय की हकीकत से साक्षात्कार भी है.
यदि इस फिल्म को हम अपनी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के चश्मे से देखें, तो यह भी पहली बार हुआ है कि महादलित समाज का कोई चरित्र रुपहले परदे पर इस तरह एक नायक के रूप में साकार हुआ है.
यह उस चरित्र की महानता का सबूत तो है ही, साथ में एक संकेत भी है कि हिंदी सिनेमा अब बिहार, झारखंड जैसे पिछड़े हिंदी प्रदेशों के किरदारों को भी एक नये नजरिये से देखने लगा है. इसके पीछे एक कारण इन पिछड़े प्रदेशों के हाल के वर्षो में अपेक्षाकृत तेजी से आगे बढ़ने के कारण बने नये मध्यवर्ग और नये बाजार का दबाव भी हो सकता है, फिर भी यह इन राज्यों के लोगों के जज्बे और जुनून का रेखांकन तो है ही.
बिहार-झारखंड में ऐसे नये पुराने चरित्र भरे पड़े हैं, जिनके काम को देश-समाज में सही पहचान नहीं मिल पायी है. इसलिए उम्मीद करनी चाहिए ‘मांझी : द माउंटेनमैन’ उस दिशा में एक शुरुआत भर है.

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