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भगवान शिव का भस्मधारण व भस्मस्नान

इस बार भगवान शिव बोले- हे मुनीश्वर! इन सबके महात्म्य युक्त कथा के सारभाग का वर्णन मैं आपलोगों से करूंगा. सोम का कारण स्वरूप अग्नि मैं हूं तथा अग्निसंयुक्त सोम भी मैं ही हूं. इस लोक (भारतवर्ष) में रहने के कारण सबके कर्मो का फल अग्नि द्वारा ही धारण किया जाता है. अग्नि ने इस […]

इस बार भगवान शिव बोले- हे मुनीश्वर! इन सबके महात्म्य युक्त कथा के सारभाग का वर्णन मैं आपलोगों से करूंगा. सोम का कारण स्वरूप अग्नि मैं हूं तथा अग्निसंयुक्त सोम भी मैं ही हूं. इस लोक (भारतवर्ष) में रहने के कारण सबके कर्मो का फल अग्नि द्वारा ही धारण किया जाता है.
अग्नि ने इस स्थावर-जंगम जगत् को अनेक बार दग्ध बार है. अग्नि से भस्मीभूत हो जाने से यह संपूर्ण जगत पवित्र तथा उत्तम हो जाता है. उसी भस्म से आज प्राप्त करके यह सोम प्राणियों को जीवित करता है. जो मनुष्य अग्निहोत्र कार्य संपन्न करके भस्म से त्र्यायुष करता है, वह मेरे ओज से समस्त पापों से मुक्त हो जाता है.
यह भस्म प्रकाशित करता है, कल्याण संपादित करता है तथा समस्त पापों का नाश करता है, अतएव इसे भस्म कहा जाता है. ऊष्मपसंज्ञक पितर तथा देवतागण चंद्रमा से उत्पन्न कहे गये हैं. यथावर-जंगममय यह समस्त जगत अग्नि-सोमात्मक है. मैं महान तेज से युक्त अग्नि हूं तथा वे महिमामयी अंबा पार्वती सोमस्वरूपा हैं. प्रकृति के साथ पुरुष रूप मैं अग्नि तथा सोम दोनों ही हूं.
अतएव हे महाभाग मुनियो! यह भस्म मेरा वीर्य है-ऐसा कहा जाता है. मैं अपने शरीर में अपने वीर्य (भस्म) को धारण करके अधिष्ठित हूं और उसी समय से यह भस्म सभी अमंगलों से लोकों की रक्षा करता है तथा इसी भस्म से सूतिका गृहों की भी रक्षा की जाती है.
जो मनुष्य क्रोध तथा इंद्रियों को जीतकर भस्मस्नान करके पवित्र अंत:करणवाला हो जाता है, वह मेरा सानिध्य प्राप्त कर लेता है तथा पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है. पाशुपतव्रत, योगशास्त्र तथा कापिल (सांख्यशास्त्र) की रचना मैंने ही की. इनमें पाशुपतयोग की रचना पहले हुई है, इसलिए यह उत्तम है.
आश्रम-संबंधी शेष सभी शास्त्र स्वयंभू ब्रह्मजी के द्वारा बाद में रचे गये और लज्जा, मोह तथा भय से युक्त इस सृष्टि की रचना मैंने ही की है.
देवता तथा मुनिगण नग्‍न ही उत्पन्न होते हैं. लोक में अन्य जो मनुष्य हैं, वे भी वस्त्रविहीन अवस्था में उत्पन्न होते हैं. इंद्रियों पर विजय प्राप्त न किये हुए लोग सुंदर वस्त्र धारण करके भी नग्‍न हैं और इंद्रियजित लोग नग्‍न रहते हुए भी वस्त्र से ढंके हुए हैं, इसमें वस्त्र हेतु नहीं माना गया है. क्षमा, धैर्य, अहिंसा, वैराग्य तथा हर तरह से मान-अपमान में समानता उत्तम आवरण कहे गये हैं. भस्म स्नान के द्वारा पूरे शरीर में भस्म का अनुलेपनकर मन से शिवजी का ध्यान करना चाहिए. हजारों प्रकार के कुकृत्य करके भी यदि जो कोई मनुष्य भस्म से स्नान करे तो उसके सभी पापों को भस्म उसी प्रकार जला डालता है, जिस प्रकार अग्नि अपने तेज से वन को दग्ध कर देता है.
अतएव जो मनुष्य प्रत्यनशील होकर त्रिकाल भस्म स्नान करता है, वह मेरे गणों में श्रेष्ठता को प्राप्त होता है. जो लोग उत्तम व्रत धारण करके समस्त यज्ञ संपन्न करके महादेव के लीला-विग्रह का चिंतन करते हुए उनकी आराधना करते हैं, वे अमृतत्व (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं.
इसे श्रेष्ठ उत्तरमार्ग कहा गया है. जो लोग दक्षिण मार्ग के द्वारा नाशवान काम्यकर्मो के लिए परमेश्वर की आराधना करते हैं, वे अणिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, इच्छाकामावसायित्व, प्राकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व सिद्धियां प्राप्त कर अमर हो जाते हैं.
इंद्र आदि सभी देवता भी काम्य व्रत का आश्रयणकर परम ऐश्वर्य की प्राप्ति करके अपरिमित तेजस्वी हो गये. मद-मोह से शून्य, रागों से मुक्त तथा तम-रज आदि विकारों से रहित स्वभाववाला होकर संसार को परिभूत करनेवाले पाशुपत योग को उत्तम जानकर सदा इस पशुपतियोग में स्थित रहना चाहिए.
सभी इंद्रियों को जीतकर जो मनुष्य पवित्र मन से सभी पापों का नाश करनेवाले इस पाशुपत योग का ध्यानपूर्वक श्रद्धाभाव से पाठ करता है, सभी पातकों से रहित विशुद्ध आत्मावाला वह प्राणी रुद्र लोक को प्राप्त होता है.
महादेवजी का यह वचन सुनकर द्विजों से श्रेष्ठ वशिष्ठ आदि वे सभी मुनि अपने अंगों में पीताभ-श्वेत भस्म लगाने लगे और इच्छारहित वे मुनिगण कल्प के अंत में शिवजी के तेज के प्रभाव से रुद्रलोक के लिए प्रस्थित हुए.
(नंदी कहते हैं-हे सनत्कुमारजी) अत: मलिन, विकृत, रूप संपन्न चाहे जिस रूप में हो, महान योगी की शंका करके उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए, अपितु उनकी सदा पूजा करनी चाहिए.
अधिक कहने की क्या आवश्यकता; दृढ व्रतवाले भगवान शिव के द्विजश्रेष्ठ भक्त चाहे वे मलिन ही क्यों न हों, पूरे प्रयत्न से शिव की ही भांति उनकी पूजा करनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है. इसी भांति मुनि दधीच शिव की भक्ति से देवदेव नारायण को जीत कर लोक में प्रतिष्ठित हो गये थे, इसमें संदेह नहीं है.
अतएव भस्म से लिप्त शरीरवाले, जटाधारी, मुंडित सिरवाले तथा दिगम्बर वेशवाले अनेक प्रकार के महात्माओं की मन, वचन तथा कर्म से पूर्ण प्रयत्न के साथ महादेव की भांति विधिवत् पूजा करना चाहिए.
आईपीसी सेवा शिविर में कांवरियों की सेवा के साथ-साथ मनोरंजन भी आईपीसी सेवा शिविर में शुक्रवार को लगभग 15 हजार कांवरिया पहुंचे, जिनकी सेवा में ट्रस्टी जितेश राजपाल, राजेश कुमार सिंह, उमेश पाण्डेय, कमलेन्द्र कुमार सहित सभी ट्रस्टी एवं कुंदन सिंह, नूतन सिंह, प्रीति झा, कुन्दन झा, सिद्धार्थ शिवम, परशुराम इत्यादि की देख-रेख में शिविर कार्यकर्ता 24 घंटे काँवरिया की सेवा में लगे हैं.
आईपीसी फाउंडेशन ट्रस्ट अपने सेवा संकल्प को निभाते हुए आनेवाले कांवरिया के लिए कार्यकर्तागण सभी समय फल, पेयजल, नींबू पानी, शर्बत, हलवा एवं फलाहार के वितरण के लिए प्रस्तुत रहते हैं. गर्म शुष्क जल से भरे हुए टब की व्यवस्था की गयी है, जिसमें कांवरिया अपने पांव को डूबो कर राहत का अनुभव करते हैं.
डाक काँवरिया के लिए चलंत चिकित्सा, पांवों में गर्म जल का छिड़काव, पौष्टिक आहार की व्यवस्था की गयी है एवं काँवरिया भक्त के लिए प्रथमिक चिकित्सा एवं नि:शुल्क दवाई की व्यवस्था है.
गुरुवार के भजन कार्यक्रम में समधुर गीत-संगीत एवं जौली छावड़ा के ‘चल रे काँवरिया चल चल रे काँवरिया भोलेनाथ बुलाते हैं’ एवं ‘ले भोले का नाम पता नहीं क्या दे दें’ आदि भजनों से सभी काँवरिया भाव विभोर हो गये. प्रतिदिन की भांति आज भी शिविर में बोल बम, जय शिव के उद्घोष गुंजायमान रहा.

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