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‘गुजश्ता अहदों’ को फिर याद करो

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार प्रत्येक वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्रियों द्वारा देशवासियों को किये गये संबोधनों में जितनी बातें कही जाती रही हैं, जितने आश्वासन दिये जाते रहे हैं, उनमें से अधिकांश अधूरे रहे हैं. सरकार और सत्ता किसी भी दल विशेष की रही हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा. अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, […]

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार

प्रत्येक वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्रियों द्वारा देशवासियों को किये गये संबोधनों में जितनी बातें कही जाती रही हैं, जितने आश्वासन दिये जाते रहे हैं, उनमें से अधिकांश अधूरे रहे हैं. सरकार और सत्ता किसी भी दल विशेष की रही हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा. अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई में कमी नहीं आयी. शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम ध्यान दिया गया. सत्तर के दशक में विश्व बैंक जिन देशों को अपनी शर्तो पर ऋण प्रदान करता था, उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर उसका अधिक ध्यान था. किसी भी देश के विकास में शिक्षा व स्वास्थ्य की विशेष भूमिका है.

इसे निजी हाथों में सौंप कर सरकार ने व्यवसाय बना डाला. पूंजीवादी व्यवस्था, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था गरीबों के हित में नहीं है. इस व्यवस्था में अमीरों की संख्या बढ़ी है. 69वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवा सौ करोड़ देशवासियों की टीम की बात कही है. यह कैसी टीम है, जिसमें भिखमंगे, गरीब, दलित, शोषित, वंचित से लेकर अंबानी-अडानी तक हैं. टीम इंडिया में सब एक साथ शामिल नहीं हो सकते. जहां आपस में एक दूसरे के हित टकराते हों, वे साथ-साथ नहीं चल सकते. गरीबों की ईमानदारी से चिंता करना, उनके लिए नीतियां व योजनाएं बनाना पूंजीवाद व्यवस्था में संभव नहीं है.

लोकतंत्र की पहचान और शक्ति संवाद में है. सच्चे लोकतंत्र में असहमति का सम्मान किया जाता है, विरोधियों की बातें सुनी जाती हैं. यहां अभिव्यक्ति पर न कोई संकट होता है, न खतरा. लुम्पेन ताकतें प्रभावी नहीं होतीं. देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों- कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है. दोनों के क्रियाकलाप एक हैं. पिछले दस साल में भाजपा ने 900 घंटे संसद नहीं चलने दी थी. कई सत्र पूरी तरह बर्बाद किये गये. कांग्रेस भी भाजपा की लीक पर चली. पावस-सत्र ठप रहा. उसने सुषमा स्वराज के इस्तीफा देने के बाद ही संसद चलने की बात कही थी. सवा सौ करोड़ देशवासी चुप रहे. अपने प्रतिनिधियों को देखते-सुनते रहे. पद का मद और सत्ता का अहंकार अधिक दिनों तक नहीं टिकता. क्षेत्रीय दलों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे इन दो राष्ट्रीय दलों में से किसी एक के साथ जाने पर विवश हैं. कई बार अलग से उनका मोरचा बना और टूटा. यह दौर उपभोक्तावाद का है. यहां त्याग पर नहीं, उपभोग पर बल है. आज की राजनीति उपभोक्तावादी है जहां आदर्श, मूल्य, सिद्धांत, नैतिकता और ‘आचरण की सभ्यता’ के लिए कोई जगह नहीं है. राजनीति में अब ‘खिलाड़ियों’ की पूछ है. एक ललित मोदी के कारण पूरा मॉनसून सत्र ठप रहा. क्रिकेट से राजनीति का यह संबंध नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर का है. यह समझना-समझाना गलत है कि इस अर्थव्यवस्था में हमारी समस्याएं सुलझेगी. चमकीले मुहावरों और वाग्जाल से समस्याओं का निदान नहीं हो सकता. भाषा का खेल अधिक दिनों तक नहीं चलता.

सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच की संवादहीनता लोकतंत्र के लिए घातक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से डेढ़ घंटे भाषण दिया, पर वे संसद में मौन रहे. संवाद में, बातचीत में, बहस में उनकी आस्था नहीं है. वे केवल अपनी कहते हैं. उनके लिए उनके ‘मन की बात’ प्रमुख है. दूसरों के ‘मन की बात’ सुनने के लिए उनके पास समय नहीं है. लोकतंत्र में ‘अन्य’ प्रमुख है. संवादहीनता के दौर में ही मर्यादाएं समाप्त होती हैं, नैतिक आचरण समाप्त होता है. क्या हम सब एक मर्यादा रहित, अनैतिक लोकतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं? जिसे हम उदारवादी अर्थव्यवस्था कहते हैं, वह कहीं से भी उदार नहीं है. भ्रष्टाचार की जननी को नष्ट किये बिना भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिल सकती. ‘गरीबी हटाओ’ की तरह ‘भ्रष्टाचार मिटाओ’ का नारा भी कामयाब नहीं होगा. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही भाजपा की सरकार आयी थी. ‘विकसित’ भारत में स्वेच्छा से अब कोई मंत्री इस्तीफा नहीं देगा. संसद की मर्यादा देशवासियों ने नहीं, सांसदों ने भंग की है. सांसदों की मर्यादा, आचरण का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है. मुख्य चिंता भारतीय लोकतंत्र की है. लोकतांत्रिक आचरण में हृास से लोकतंत्र समृद्ध नहीं हो सकता.

69वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के 15 मिनट के भाषण और स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डेढ़ घंटे के भाषण से हमने क्या संदेश प्राप्त किये. राष्ट्रपति ने संसद में चर्चा-परिचर्चा के बजाय टकराव और भिड़ंत की जो बात कही है, जिस समावेशी लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था की बात कही है, उस पर ध्यान कौन देगा? राष्ट्रपति ने आतंकवाद की बात कही, पर प्रधानमंत्री के संबोधन में आतंकवाद की कहीं कोई चर्चा नहीं थी, जबकि स्वतंत्रता दिवस को सुबह साढ़े छह बजे से ही पाकिस्तान ने फायरिंग शुरू की. प्रधानमंत्री जुमलों के बादशाह हैं. आज तक किसी प्रधानमंत्री ने जुमलों की इतनी बौछार नहीं की है. ‘स्टार्ट अप इंडिया’ और ‘स्टैंड अप इंडिया’ का नारा आकर्षक है. विज्ञापनों में जिस प्रकार बार-बार ‘इंडिया’ की बात की जाती है, उससे ‘इंडिया’ का कोई वास्तविक चित्र नहीं उभरता. अब ‘इंडिया’ का सर्वाधिक प्रयोग विज्ञापनों में होता है. एक भारत में कई भारत हैं, कई वर्ग-समूह हैं.

सवा सौ करोड़ देशवासी केवल एक अर्थ में एक हैं कि वे भारतवासी हैं. सभी भारतवासी एक समान नहीं हैं. रघुवारी सहाय ने बहुत पहले लिखा था- ‘‘फटा सुथन्ना पहने किसका गुन हरचरना गाता है.’’ नागाजरुन ने भी प्रश्न किया था- ‘‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?’’ सवा सौ करोड़ देशवासियों और ‘टीम इंडिया’ में सभी ‘सुखी’ और ‘मस्त’ नहीं हैं. दुखी और त्रस्त भारतीयों की संख्या कहीं अधिक है. ‘जातिवाद के जिस जहर’ और संप्रदायवाद के जुनून’ को ‘विकास के अमृत’ से मिटाने की बात कही गयी है, वह ‘विकास’ सबके लिए नहीं है. यह कहना केवल लुभाना है कि सारी व्यवस्थाएं, सारी योजनाएं देश के गरीबों के काम आनी चाहिए. प्रधानमंत्री जनधन योजना में 17 करोड़ लोगों ने बैंक खाता खोल कर 20 हजार करोड़ रुपये जो जमा किये, वह ‘गरीबों की अमीरी’ के कारण? दलित, आदिवासी, गरीब, शोषित का कल्याण और विकास मौजूदा अर्थव्यवस्था में संभव नहीं है. जिस आजादी के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानियां दीं, उन्होंने जो सपने देखे, उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए. फिराक का शेर है- ‘‘गुजश्ता अहद की यादों को फिर करो ताजा/ बुझे चिराग जलाओ कि बहुत अंधेरा है.’’

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