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आजादी के सच्चे प्रहरी, जिनके बदलाव की खातिर बढ़े कदम
हर साल 15 अगस्त आते ही इस बात का आकलन शुरू हो जाता है कि आजादी के मायनों को साकार करने के लिए अभी क्या-क्या होना शेष है. आजादी के सात दशक बाद भी अभी किन चीजों से आजादी पाना बाकी है! आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में पेश आनेवाली कई मुश्किलें इस मौके […]
हर साल 15 अगस्त आते ही इस बात का आकलन शुरू हो जाता है कि आजादी के मायनों को साकार करने के लिए अभी क्या-क्या होना शेष है. आजादी के सात दशक बाद भी अभी किन चीजों से आजादी पाना बाकी है! आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में पेश आनेवाली कई मुश्किलें इस मौके पर चरचा में आ जाती हैं और एक बहस चल पड़ती है. अब तो इस बहस को वायरल करने के लिए सोशल मीडिया का एक बड़ा प्लेटफॉर्म भी मौजूद है.
जाहिर है इस बहस में शामिल होने, अपनी राय देने, व्यवस्था की खामियां गिनानेवालों की तादाद भी बढ़ गयी है. लेकिन हम में से कितने लोग होते हैं, जो इस बहस में शामिल होने और तारीख बीतते ही इसे भुला देने के बजाय इन खामियों को दुरुस्त करने की पहल करते हैं!
आजादी महज एक शब्द नहीं, रस्म अदायगी का एक दिन भर नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों के लंबे संघर्ष और बलिदान से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमें मिली एक विरासत है.
आजादी मिले सात दशक होने को हैं, लेकिन क्या आजादी के साथ देखा गया सपना साकार हुआ! क्या हम अपने इस सपने के साथ ईमानदार रहे! राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में- ‘है बड़ी बात आजादी कापाना ही नहीं, जुगाना भी, बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी.’
हम अकसर आजादी का दिन नजदीक आते ही एक लंबी फेहरिस्त लेकर बैठ जाते हैं कि ‘अभी इन सबसे आजाद होना बाकी है.’ पिछले कुछ वर्षो से तो एक परंपरा सी चल पड़ी है स्वतंत्रता दिवस के आसपास यह बताने-गिनाने की, कि देश को अब भी किन-किन चीजों से आजादी चाहिए. अब तो तकनीक ने ऐसे विचारों को वायरल बनाने के कई साधन भी मुहैया करा दिये हैं.
15 अगस्त के दौरान ह्वाट्सएप्प, मोबाइल के इनबॉक्स, फेसबुक वॉल या मैसेज बॉक्स में ऐसे संदेशों की भरमार हो जाती है, जो बताते हैं कि हमारे देश को अब भी गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि-आदि से आजादी चाहिए. ऐसे संदेश मिलने पर हम क्या करते हैं? अमूमन इस तरह के संदेशों में दो तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं. कुछ लोग संदेश को पढ़ कर परे कर देते हैं और कुछ लोगों में देशभक्ति का जज्बा जाग जाता है और वे इसे औरों को भेजते हैं, अपनी वॉल पर साझा करते हैं. कोई कमेंट आ गया तो अपने तर्क देकर बहस भी करते हैं.
इस तरह आजादी से जुड़े उपरोक्त विचार खूब देखे जाते हैं, पढ़े जाते हैं, साझा किये जाते हैं. लेकिन यह सिलसिला महज कुछ दिनों तक ही चल पाता है. फिर मोबाइल संदेश, एफबी अपडेट और ट्वीटर कमेंट के विषय बदल जाते हैं. देशभक्ति का जब्बा उबासियां लेता हुआ कहीं एक कोना पकड़ लेता है.
और हम जिन चीजों से आजादी चाहते हैं, उनकी गिरफ्त और बढ़ती जाती है. क्या कभी हमने जरा ठहर कर इस बात पर गौर किया है कि हमें जिन चीजों से आजादी चाहिए, वह आजादी दिलायेगा कौन! हम इसमें अपनी तरफ से बहुत छोटा ही सही, क्या कोई योगदान दे सकते हैं? आजादी की इमारत को मजबूत बनाने के लिए क्या एक ईंट भी जोड़ सकते हैं? क्या कभी हम यह सोचते हैं कि हमने आजादी की अपनी विरासत को आगे ले जाने के लिए और उसे सहेजने के लिए आखिर क्या किया है? और अगर नहीं किया है, तो क्या कर सकते हैं?
अब आप कहेंगे कि आखिर हम अकेले के बूते देश की इतनी बड़ी-बड़ी समस्याओं के लिए कर ही क्या सकते हैं. लेकिन नहीं! हम जरूर कर सकते हैं. हमारे बीच ऐसे कई चेहरे हैं, जो हमें ऐसा कर पाने की राह दिखाते हैं.
वे बताते हैं कि कैसे छोटी-छोटी कोशिशों से देश को उन सारी चीजों से आजादी दिलायी जा सकती है, जिनसे आजाद होना अभी बाकी है. वे बताते हैं कि कैसे एक छोटी-सी पहल बड़ी बन जाती है और अनगिनत चेहरों पर आजादी की मुस्कान बिखेर देती है. जो लोग ऐसी समस्याओं से देश को आजादी दिलाने के जज्बे के साथ एक नयी शुरुआत कर रहे हैं, ऐसे लोगों के काम को देश में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में सराहना भी मिल रही है. कैलाश सत्यार्थी, अंशु गुप्ता और संजीव चतुर्वेदी जैसे नाम इसी की एक मिसाल हैं.
ये लोग आपके और हमारे बीच से ही निकले हैं. एक सुरक्षित और आरामदेय जिंदगी के दायरे को छोड़ कर इन्होंने हालात को बदलने का जोखिम उठाया. इन्होंने आजाद भारत में जीने की बेहतर गुंजाइशों को तलाशना शुरू किया और इसके लिए लगातार सक्रिय हैं.
बाल मजदूरी से आजादी
कैलाश सत्यार्थी
हम अकसर छोटे-छोटे बच्चों को होटलों, ढाबों, दुकानों, कारखानों में काम करते देखते हैं. स्कूल जाने-पढ़ने, खेलने-कूदने की उम्र में काम कर रहे मासूमों को देखना मन को आहत करता है.
हमें लगता है कि काश हम इनके लिए कुछ कर पाते! फिर हम मन को समझाते हैं कि हम कर ही क्या सकते हैं, यह तो सरकार का काम है. हम सरकार को गैरजिम्मेवार बताते हैं, कानून को बेअसर. ‘इस देश को बाल मजदूरी से जाने कब आजादी मिलेगी!’ कहते हुए आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन वह आगे नहीं बढ़े, उन्होंने बच्चों को बाल मजदूरी से मुक्त कराने में अपना जीवन लगा दिया. जी हां, बात हो रही है 2014 में शांति के लिए नोबेल पानेवाले कैलाश सत्यार्थी की. इलेक्ट्रिक इंजीनिरिंग की पढ़ाई करने के बाद वह एक अच्छी नौकरी पाकर सुरक्षित जीवन बिता सकते थे, जैसा कि आमतौर पर होता है.
लेकिन मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के एक मध्यमवर्गीय परिवार का यह आम शख्स महज 26 साल की उम्र में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की मुहिम से जुड़ गया. अब तक वह 80,000 से अधिक बच्चों को बाल और बंधुआ मजदूरी से बचा चुके हैं और उन्होंने शिक्षा तथा पुनर्वास के लिए एक सफल मॉडल विकसित किया है.
आज पूरा विश्व कैलाश सत्यार्थी को नोबेल विजेता के तौर पर जानता है, लेकिन वह अब भी बच्चों को बाल मजदूरी से आजाद करानेवाले एक सजग कार्यकर्ता के तौर पर वैश्विक स्तर पर सतत सक्रिय हैं. कैलाश सत्यार्थी ‘ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर’ (बालश्रम के खिलाफ वैश्विक अभियान) के अध्यक्ष हैं. अपनी कोशिश से हालात बदलने का जज्बा कैलाश में बचपन से ही था.
वह 11 वर्ष के थे, तब उन्होंने महसूस किया कि बहुत से बच्चे किताबें न होने के कारण पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं और उन्होंने एक ठेला लेकर पास होनेवाले बच्चों की किताबें एकत्रित कीं और उन्हें जरूरतमंदों तक पहुंचायी. आज कैलाश सत्यार्थी दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा बन गये हैं.
भ्रष्टाचार से आजादी
संजीव चतुर्वेदी
भ्रष्टाचार से आजाद होने के लिए आज देश तड़प रहा है. यह तड़प संजीव चतुर्वेदी के भीतर भी है. इसलिए उन्होंने अपने स्तर से लड़ना शुरू किया और आज उनकी लड़ाई को हर जगह सराहा जा रहा है.
लेकिन यह लड़ाई आसान नहीं थी. हरियाणा कैडर के इस आइएफएस अफसर को भ्रष्टाचार से लड़ाई के एवज में पांच साल में 12 ट्रांसफर मिले. झूठे मुकदमे और निलंबन का सामना करना पड़ा. हर बार राष्ट्रपति के यहां से इनकी बहाली हुई. एम्स में मुख्य सतर्कता अधिकारी रहते अपने दो साल के कार्यकाल में इन्होंने भ्रष्टाचार के 150 से अधिक मामले उजागर किये. एम्स में दवाओं की खरीद, डॉक्टरों की अनाधिकृत विदेश यात्रएं, चिकित्सा उपकरणों की खरीद और प्रमाण-पत्र से लेकर परिसर की विस्तार परियोजना तक में भ्रष्टाचार व्याप्त था.
संजीव ने सरकार का इनकी ओर ध्यान खींचा. 2014 में स्वास्थ्य सचिव ने इन्हें ईमानदार अधिकारी के तौर पर सम्मानित किया. लेकिन संजीव को इस सम्मान के बावजूद प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा. पिछले साल इन्हें सीवीओ के पद से हटा दिया गया. हाल में संजीव चतुर्वेदी को रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड से नवाजे जाने की घोषणा की गयी है. इन्हें यह अवॉर्ड सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार उजागर करने के लिए दिया गया है.
कपड़ों के अभाव से आजादी
अंशु गुप्ता
एक आम लड़का अगर कॉरपोरेट जगत में बना बनाया कैरियर छोड़ कर जरूरतमंद लोगों तक कपड़े पहुंचाने के लिए एक संस्था शुरू कर दे, तो बहुत से लोगों को उसका यह फैसला बेतुका लग सकता है. लेकिन, अंशु गुप्ता को यह फैसला बेहद जरूरी लगा और उन्होंने कपड़े को विकास से जोड़ने की पहल की. उनके इस फैसले को दुनिया भर में सम्मान मिल रहा है. बेशक कैरियर और परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिहाज से एक मध्यम वर्गीय परिवार के सबसे बड़े बेटे के लिए यह जोखिम भरा फैसला था. लेकिन कड़कड़ाती ठंड में कपड़ों के अभाव के चलते दम तोड़ने, तन ढंकने को कपड़े न होने से शर्म ङोलने की मजबूरी से आजादी दिलाने की यह एक शुरुआत थी. अंशु ने अपने घर के 67 जोड़ी कपड़ों से ‘गूंज’ संस्था की शुरुआत की. यह संस्था पुराने और बेकार कपड़ों को उपयोगी बना कर गांवों और आपदा क्षेत्रों में पहुंचाती है.
आज यह संस्था करीब अस्सी से सौ टन कपड़े हर महीने अभावग्रस्त लोगों में बांटती है. आज गूंज के 21 राज्यों में संग्रहण केंद्र हैं और दस ऑफिस हैं. टीम में डेढ़ सौ से ज्यादा साथी हैं. अंशु गुप्ता का पेट प्रोजेक्ट ‘केवल कपड़े के एक टुकड़े के लिए नहीं’ गांवों में और झुग्गी बस्तियों में रहनेवाले ऐसे लोगों के लिए है, जहां महिलाओं के पास पर्याप्त कपड़े नहीं थे.
इसके साथ गूंज ने ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ शुरू किया. इस कार्यक्रम के तहत अंशु ने कई गांवों में बांस व लकड़ी के पुल बना कर लोगों के जीवन को सहज बनाया है. कोसी की बाढ़ ङोलेनवाले गांव हों या आपदा के बाद बाहरी दुनिया से कट जानेवाले उत्तराखंड के गांव, यहां अंशु ने ग्रामीणों की सामूहिक भागीदारी से बांस व लकड़ी के कई पुल बनाये. गूंज की ओर से जमा किये गये कपड़ों और घेरलू सामान की इसमें अहम भूमिका रही.
आपदा के समय जरूरतमंद लोगों तक सामान पहुंचाने में ‘गूंज’ की सक्रियता को बार-बार सराहा जाता है. अपने एक साक्षात्कार में अंशु कहते हैं, ‘कपड़ा विकास का एक हिस्सा होना चाहिए, किसी चैरिटी का नहीं. मैं चाहता हूं लोग इस बात को समङों.’ हाल ही में अंशु गुप्ता को रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड दिये जाने की घोषणा की गयी है.
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