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गंभीर मुद्दों पर सतही बयानबाजी
आज की तारीख में हमारा समाज न जाने कैसे दोराहे पर खड़ा है, जहां हम जैसे आम मध्यम वर्गीय लोग हर घटना से अपने आप को पूरी तरह जोड़ लेते हैं. जब याकूब को फांसी हुई तो कई लोगों को लगा कि उसे फांसी नहीं होनी चाहिए थी. मीडिया, खास कर सोशल मीडिया में इस […]
आज की तारीख में हमारा समाज न जाने कैसे दोराहे पर खड़ा है, जहां हम जैसे आम मध्यम वर्गीय लोग हर घटना से अपने आप को पूरी तरह जोड़ लेते हैं. जब याकूब को फांसी हुई तो कई लोगों को लगा कि उसे फांसी नहीं होनी चाहिए थी.
मीडिया, खास कर सोशल मीडिया में इस पर चर्चा आम हो चुकी थी. लोग अपने-अपने तरीके से इस बात की दलीलें पेश कर रहे थे. लेकिन ऐसा क्यों? क्या हमारा भरोसा देश के सर्वोच्च न्यायालय में भी नहीं रहा?
क्या ऐसे गंभीर मुद्दों पर भी सतही बयानबाजी जरूरी है? हमने यह नहीं देखा कि उस घटना में कितनी जानें गयीं. मीडिया लगातार दिखाता रहा कि कैसे याकूब की रिहाई के लिए प्रयास किये गये, उसके बीवी-बच्चों के हालात क्या हैं. काश किसी ने यह भी दिखाया होता कि 1993 के ब्लास्ट में मारे गये बेगुनाह लोगों के परिवार पर क्या गुजरी.
नीतू सिंह, ई-मेल से
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