ऐसा लगता है कि विश्वास एक ऐसा विषय है जिसे हम एकदम अपना लेते हैं और उस पर सवाल उठाने की बात ही मन में नहीं आती. मैं विश्वासों पर आक्रमण नहीं कर रहा हूं.
हम केवल यही जानने का प्रयत्न कर रहे हैं कि हम किसी भी विश्वास को क्यों अपना लेते हैं और यदि हम इसके कारण और प्रयोजन को समझ लें, तो संभवत: हम न केवल यह समझ पायेंगे कि हम ऐसा क्यों करते हैं, बल्कि साथ ही इससे मुक्त भी हो जायेंगे. कोई भी देख सकता है कि कैसे राजनीतिक एवं धार्मिक विश्वास, राष्ट्रवादी एवं दूसरे प्रकार के विश्वास लोगों में फूट डालते हैं, कैसे द्वंद्व, भ्रांति एवं वैर-भाव पैदा करते हैं.
यह बिल्कुल स्पष्ट बात है और फिर भी हम विश्वास को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते. हिंदू विश्वास, ईसाई विश्वास, बौद्ध विश्वास और इसी प्रकार के अन्य सांप्रदायिक एवं राष्ट्रीय विश्वास हैं, अनेक राजनीतिक विचारधाराएं हैं, जो परस्पर संघर्षरत हैं तथा एक-दूसरे को अपनी तरफ खींचना चाहती हैं. साफ है कि विश्वास लोगों में असहिष्णुता लाता है.
तो क्या विश्वास के बिना जीना संभव है? इस प्रश्न का उत्तर हमें मिल सकता है, परंतु तभी जब हम स्वयं का, विश्वास के साथ अपने संबंध का अध्ययन करें. सत्य तो यह है कि हममें यह क्षमता होनी चाहिए कि अतीत की संस्कारबद्ध प्रतिक्रियाओं के बिना, क्षण-प्रतिक्षण, प्रत्येक स्थिति का हम सामना कर सकें.
जे कृष्णमूर्ति