पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
जैसे-जैसे बिहार चुनाव नजदीक आता जा रहा है, कुछ गंभीर और चिंतित करनेवाली खबरें कई इलाकों से आ रही हैं.पहला, इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि भारतीय जनता पार्टी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता और उनके अनुषंगी संगठन उग्र सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के अपने प्रिय चाल चलने में लगे हैं. दूसरा, नयी आक्रामकता के साथ बड़े पैमाने पर धन-बल का इस्तेमाल किया जा रहा है.
अगर बिहार के सभी हिस्सों से आनेवाली ये सूचनाएं सही हैं, तो पवित्र और निष्पक्ष निकाय चुनाव आयोग को इसकी जांच करनी चाहिए और अवहेलना करनेवालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के साथ ऐसी गतिविधियों से निपटने के लिए विशेष उपाय करने चाहिए.
बिहार भारत की साझी और बहुलतावादी संस्कृति का लघुरूप है और सदियों से ऐसा रहा है. यह कोई सैद्धांतिक निर्मिति नहीं है.
यह चारों ओर साफ-साफ देखा जा सकता है. सिखों के पवित्रतम स्थलों में से एक गुरुद्वारा पटना साहिब बिहार की राजधानी में स्थित है. पटना साहिब में ही वर्ष 1666 में गुरु गोबिंद सिंह पैदा हुए.
गुरु नानक भी यहां आये छ2. पटना से थोड़ी दूर पर मुसलमानों और सूफियों के लिए महत्वपूर्ण दरगाह बिहार शरीफ है. अजमेर शरीफ के बाद इसी का महत्व है. पावापुरी भी बहुत दूर नहीं है, जहां भगवान महावीर ने अपना जीवन-उत्सर्ग किया था.
यह जैन धर्मावलंबियों के लिए बहुत ही पवित्र स्थल है. यहां से थोड़ी दूरी पर बोधगया है, जो बौद्धों के लिए बहुत ही पावन स्थान है. और बोधगया से बिल्कुल सटा हुआ गया है, जहां लाखों लोग अपने पुरखों की मुक्ति के लिए आराधना करने आते हैं.
कुछ बुरी घटनाओं को छोड़ दें, तो बिहार का जनजीवन एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण रहा है. बिहारी अस्मिता अलग-अलग विचारधाराओं से बड़ी होती जा रही है. लेकिन अब हम ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं, जहां सनक भरे तरीके से धार्मिक घृणा को हवा देने का खेल खेला जा रहा है.
इस नीति का साफ लक्ष्य है: मतदाताओं को धर्म के आधार पर बांट दिया जाये, ताकि भाजपा के सीमित जनाधार में इजाफा हो.
सूचनाओं के अनुसार, इस उद्देश्य को प्राप्त करने की तकनीक घृणायोग्य है.
प्रशिक्षित कार्यकर्ता हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमा को विकृत करेंगे और इसका आरोप दूसरे समुदाय पर मढ़ देंगे. अगर एक समुदाय विशेष का कोई त्योहार है, तो यही प्रशिक्षित कार्यकर्ता पर्वस्थल के पास लाउडस्पीकर लगा कर सांप्रदायिक गीतों को बजायेंगे.
मुद्दों पर और बिहार के लिए बेहतर क्या किया जा सकता है, इस पर अभियान चलाने के बजाय मतदाताओं का इस्तेमाल नफरत का अभियान चलाने में चारे के रूप में करने की सुनियोजित कोशिश की जा रही है.
अकसर ऐसे उकसावापूर्ण कार्रवाई को सिर्फ कानून के जरिये रोक पाना मुश्किल होता है. मगर जब ऐसी घटनाएं प्रत्यक्ष रूप से और ज्यादा गंभीर रूप में पूरे राज्य में सामने आ रही हों, तो कानून और चुनाव आयोग को स्वत:संज्ञान लेना चाहिए. साथ ही बिहार के लोगों को भी सतर्क रहने की जरूरत है.
जान-बूझ कर नफरत फैलानेवालों द्वारा पैदा किया गया सांप्रदायिक तनाव बिहार की जनता के हित के लिए नुकसानदेह है. इसकी कम-से-कम तीन वजहें हैं. पहला, यह जानमाल को नुकसान पहुंचाता है. दूसरा, ऐसे द्वेषपूर्ण तनाव चुनाव के बाद भी लोगों पर अपना असर छोड़ते रहते हैं.
सभी समुदाय जो प्रेम और शांति से रहते आये हैं, उनके बीच अविश्वास का माहौल कायम रहता है और यह उनके जीवन की गुणवत्ता को गंभीरता से कम करती है. उदाहरण के रूप में उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर सामने है. ‘लव जेहाद’ से पैदा हुई तनाव की स्थित ने जाटों और मुसलमानों के बीच बड़ी और स्थायी खाई बना दी है.
दोनों सदियों से एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक साथ रहते आ रहे थे, एक-दूसरे के तीज-त्योहारों में, एक-दूसरे के सुख-दुख में भाग लेते आ रहे थे. तीसरा, धर्म की बुनियाद पर जान-बूझ कर समाज में एक नकली खाई का निर्माण आर्थिक तरक्की और विकास के असली मुद्दों से ध्यान दूर ले जाता है.
बिहार के संदर्भ में देखें, तो ऐसे हथकंडे दिवालियापन दिखाते हैं. दूसरी तरफ यह निश्चय ही उस गहराई को दर्शाता है, जिसके सामने राजनीतिक ताकतें सिर्फ फौरी चुनावी फायदे के लिए अपना सिर झुका सकती हैं.
बहुत साफ दिखता है कि आज धनबल में भाजपा की बराबरी कोई नहीं कर सकता है. यह पिछले लोकसभा चुनाव में स्पष्ट दिखा था और इसके बाद होनेवाले राज्य के चुनावों में भी यह दिखता रहा.
मेरी दृष्टि में क्रोनी पूंजीवाद और चुनावी कदाचार के बीच सीधा संबंध है. क्रोनी पूंजीवाद में चंद कॉरपोरेट हाउस बेहिसाब मुनाफा कमाते हैं और बाकी लोग मुरझाते रहते हैं.
वोट खरीदने में धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग को विशेष कोशिश करनी चाहिए. आयोग की सतर्कता के अलावा मतदाताओं से ही आखिरी उम्मीद है. अगर किसी कारण से उनका मन नहीं डोला, तो उन्हें खरीदा नहीं जा सकता है.
वे धन ले सकते हैं, अन्य चीजें ले सकते हैं, मगर वोट उन्हीं को देंगे, जिन्हें अपने हित में बेहतर समङोंगे. विगत में यह तमिलनाडु के चुनाव में देखा गया है और हाल में दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखा गया.
हर सर्वेक्षण ने दिखाया है कि बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार मतदाताओं की पहली पसंद हैं. पिछले सर्वेक्षण में राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार नीतीश कुमार की लोकप्रियता नरेंद्र मोदी से ज्यादा थी.
नीतीश कुमार ने सांप्रदायिक घटनाओं को रोकने के लिए पुलिस और प्रशासन को स्पष्ट निर्देश दिये हैं और इस विषय पर लगातार नजर रख रहे हैं. उनकी ताकत यह भी है कि बिहार के लोग जानते हैं कि उनके लिए क्या बेहतर है.
उनके नेतृत्व में पिछले कई वर्षो से हुए विकास ने बिहार को रूपांतरित कर दिया है, यह साफ दिखता है, इसे परखा जा सकता है. उन्होंने निर्धनतम लोगों की जिंदगी को छुआ है. बिहार के लोग विकास की इस कहानी को जारी रखना चाहते हैं. भाजपा दीवार पर लिखी इस इबारत को देख चुकी है.
यही वजह है कि भाजपा पहले से भी बड़े स्तर पर ऐसे चालाक हथकंडे अपना रही है. नियमानुसार, दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र में चुनाव सबको समान अवसर देने के रूप में होना चाहिए.
हमें बहुत उम्मीद है कि चुनाव आयोग उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा, जिन्होंने कानून तोड़ने की रणनीति बनायी है. विगत में चुनाव आयोग ने ऐसा किया भी है.